मुलायमसिंह : जिन्होंने अभिजात राजनीति को पछाड़ सियासत की देसी इबारत लिखी

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अजय बोकिल

समाजवादी पार्टी के संस्थापक और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे मुलायमसिंह यादव का जाना देश में बीसवीं सदी के अंतिम दशक में राजनीति को निर्णायक मोड़ देने वाले एक जुझारू नेता का अवसान है। अगर भारतीय राजनीति में मुलायमसिंह के व्यापक योगदान की बात करें तो उन्होंने मंडल राजनीति के जरिए देश में पिछड़े वर्ग के हाथों में राजनीतिक सत्ता सौंपने की जो मुहिम शुरू की थी, उसका एक चक्र दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के रूप में पूरा हुआ। भले ही वह कमंडल राजनीति के जरिए हुआ हो।

भारतीय राजनीति को करीब तीन दशकों तक प्रभावित करने वाले नेताजी मुलायमसिंह ने 82 वर्ष की आयु में लंबी अस्वस्थता के बाद हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं। मुलायमसिंह जमीन से उठकर राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकने वाले उन नेताअो में अग्रणी थे, जिन्होंने भारत में अभिजात राजनीति के अंत की शुरूआत की। पहलवानी से लेकर शिक्षक और साइकल पर चलने वाले जमीनी नेता तक, सत्ता के लिए समझौता करने से लेकर किसी भी मुद्दे पर पलटी मारने तक और धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखने कारसेवकों पर गोली चलवाने से लेकर गरीबों की मदद करने तक मुलायम सिंह के कई चेहरे रहे हैं।

लेकिन मुलायम ने अपने खांटीपन को कभी नहीं छुपाया। अंग्रेजी न जानने का उन्हें कभी गम नहीं रहा बल्कि वो हिंदी के पक्ष में मजबूती से खड़े रहे। देश के रक्षामंत्री के रूप में सैनिकों से यह कहना कि पाक सीमा से गोली चलती है तो आपको किसने रोका है, मुलायम को अलग पाए का नेता साबित करते हैं। इस लिहाज से मुलायमसिंह का समाजवाद सत्ता केन्द्रित ऐसा समाजवाद था, जिसमें पिछड़े, गरीब, किसान सभी शामिल थे। यूं मुलायमथसिंह यूपी के 3 बार सीएम रहे और तीनो बार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। लेकिन अपने समाज और पिछड़ों को ताकतवर बनाने का उनका उपक्रम जारी रहा।

आज मोदी की रीति-नीति और कार्यशैली को लेकर कितनी ही आलोचना क्यों न हो, लेकिन एक संदेश साफ है और वो नीचे तक जा चुका है और मोदी के रूप में देश की सत्ता आज एक पिछड़े वर्ग के नेता के हाथों में है। पार्टियां और विचारधारा भले अलग हो, लेकिन इसकी बुनियाद मुलायमसिंह और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं बीती सदी में 90 के दशक में रखी थी। हालांकि दोनो की राजनीति का तरीका और प्राथमिकताएं अलग-अलग रही हैं। देश की आजादी से लेकर 1984 तक के चुनावों को देखें तो जनप्रतिनिधियों में पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी बहुत कम थी। वो केवल अगड़ी जातियों को सत्तासीन रखने के लिए कहार की भूमिका में ज्यादा थे।

जबकि उनके पास धन बल, बाहुबल था (शैक्षणिक रूप से जरूर वो थोड़े पिछड़े थे और अब यह अंतर भी खत्म हो गया है)। अगड़ों को बेदखल कर राजनीतिक सत्ता पर खुद काबिज होने की यह खदबदाहट 70 के दशक में ही सुनाई देने लगी थी। आग्रह यही था कि सियासी सत्ता में सभी की बराबरी और खासकर उनकी संख्या के अनुपात में हिस्सेदारी हो। इसी को ध्यान में रखते हुए महान समाजवादी नेता डाॅ.राम मनोहर लोहिया ने देश में सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को एक साथ आने की पैरवी की।

हालांकि यह व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रयोग असफल साबित हुआ, क्योंकि पिछड़ी जातियां न तो दलितों की तरह अछूत थीं और न ही उनके पास धनबल की कमी थी। जमीनदारी प्रथा खत्म होने के बाद इनमें से ज्यादातर खुद जमीनों के मालिक बन गए थे। उनकी मुख्य आकांक्षा राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने की थी। मुलायमसिंह खुद को लोहिया का चेला मानते थे और युवावस्था में पहलवानी का शौक होने से दो-दो हाथ करने में संकोच नहीं करते थे। जनता दल की वी.पी.सिंह सरकार ने सामाजिक न्याय का दायरा बढ़ाते हुए ओबीसी आरक्षण के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का फैसला कर देश की राजनीति में नए घमासान को हवा दे दी।

आरएसएस और भाजपा ने इसे हिंदू समाज को तोड़ने की शक्ल में चली गई राजनीतिक चाल के रूप में देखा और जवाब में राम मंदिर आंदोलन को जमकर हवा दी। यह स्थापित करने का पूरा और सफल प्रयास किया गया कि अयोध्या में राम मंदिर का बनना सर्वोच्च हिंदू आकांक्षा है और इस मामले में जाति से परे सभी हिंदू एक हैं। हिंदुत्व के संदर्भ में यह आशंका बहुत साफ थी कि बात अगर आरक्षण से भी आगे गई तो हिंदू समाज का एक बड़ा तबका धर्म से दूर हो सकता है।

उधर मुलायमसिंह और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं अपने समाज और अन्य ओबीसी जातियों को सामाजिक न्याय का हवाला देकर गोलबंद किया। यह सामाजिक न्याय हकीकत में राजनीतिक न्याय था। मुलायमसिंह तीन बार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यशमंत्री बने। पहली बार वो जनता दल के सीएम बने। तब उन्होंने चौधरी चरणसिंह के बेटे अजीतसिंह को यूपी का सीएम बनाने का प्लान फेल कर सत्ता सूत्र खुद संभाले थे। मुलायम ने अयोध्या में कारसेवा आंदोलन के दौरान गोलियां चलवाने में कोताही नहीं की, क्योंकि उनका मानना था ‍‍कि वो ओबीसी और मुस्लिम वोटों का ऐसा जोड़ बिठा लेंगे, जो उन्हें सत्ता में कायम रखेगा।

लेकिन उनकी सरकार गिर गई और यूपी में पहली बार कल्याणसिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। उसी दौरान बाबरी मस्जिद का विध्वंस भी हुआ। मुलायम ने बदले माहौल को भांपा और नया राजनीतिक दांव चला। उन्होंने बसपा नेता कांशीराम से हाथ मिलाकर यूपी में ओबीसी , दलित और अल्पसंख्यिकों का नया समीकरण बिठाने की कोशिश की। क्योंकि हिंदुत्व के नाम पर हिंदू समाज की एकजुटता को जातिवादी समीकरण ही पलीता लगा सकता है। मुलायमसिंह ने इसे बहुत पहले भांप लिया था। हालांकि दलितों के साथ पिछड़ो का यह गठबंधन नैसर्गिक नहीं था, क्योंकि दोनो की प्राथमिकताएं और तकाजे अलग अलग थे।

1993 में पहली बार यूपी में खुलकर जाति के आधार पर चुनाव लड़ा गया और मुलायमसिंह की नवगठित समाजवादी पार्टी और मायावती की बसपा का गठजोड़ सत्ता पर काबिज हुआ। जल्द ही मायावती को समझ आ गया‍ कि पिछड़े वर्ग की राजनीति का असल उद्देश्य केवल अगड़ों से राजनीतिक सत्ता छीनना है, हासिल सत्ता में दलितों को हिस्सेदार बनाना नहीं है। भारत में यूं तो जातिवाद हर प्रांत में है। लेकिन पिछड़े वर्ग की राजनीति की दो बड़ी प्रयोगशालाएं उत्तर प्रदेश और ‍बिहार हैं। इनकी एप्रोच में भी फर्क है।

यूपी की ओबीसी राजनीति में कुछ विकास का तड़का और सर्वसमावेशिता भी है। लेकिन लालू प्रसाद यादव की समाजवादी राजनीति मुख्यत: यादव गरीब और मुस्लिम वोटों के इर्द गिर्द घूमती रही है। वहां विकास जैसे शब्दों का कोई खास मायने नहीं है। वहां की राजनीति में यह एक बाय प्राॅडक्ट की तरह है। मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव ने यादव केन्द्रित ओबीसी राजनीति को खाद पानी डाला। इसका बड़ा फायदा यह हुआ कि सभी राजनीतिक दलो को अपनी प्राथमिकताएं नए सिरे से तय करनी पड़ीं।

पिछड़ों को राजनीतिक आरक्षण अभी भी नहीं है। लेकिन जनप्रतिनिधियों में उनकी बढ़ती संख्या और अनुपात से साफ समझा जा सकता है कि ओबीसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाअों का एक चक्र पूरा हो गया है। इस राजनीति का चरम गुजरात के नरेन्द्र मोदी का पिछले 8 साल से देश का प्रधानमं‍त्री पद संभाले रहना है, जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों में खुलकर कहा था कि वो पिछड़ी जाति से हैं। मोदी के रूप में देश के उत्तर पश्चिम भारत में पिछड़ों में यह साफ संदेश है कि अब देश की बागडोर इसी समुदाय के हाथो में है और संख्याड में यह वर्ग समूचे हिंदू समुदाय का लगभग आधा है। इस स्थिति में आगे जल्द ज्यादा बदलाव होने की ज्यादा संभावना नहीं है।

राहुल गांधी के लिए भी यही सोच सबसे बड़ी चुनौती होगी। वो चाहकर भी पिछड़ों के नेता नहीं बन सकते। मुलायमसिंह उन नेताओं में रहे हैं, जिन्होंने शरीर साथ देने तक राजनीति की और बाद में खुद बेटे को कमान सौंप दी। इस देश में ‘नेताजी’ कहलाने का मान दो ही लोगों को हासिल हुआ है। आजादी के पहले सुभाषचंद्र बोस को और आजादी के बाद मुलायमसिंह यादव को। एक ने विदेशी सत्ता को सैन्य चुनौती दी तो दूसरे ने अभिजात राजनीति को पछाड़कर सियासत की देसी इबारत लिखी। मुलायम में संतुलन साधने की गजब कला थी, जो उनके निजी जीवन में भी परिलक्षित हुई। हालांकि दोनो के कद, कार्यशैली और उपलब्धियों में काफी अंतर है। लेकिन इतना तय है कि आगे की राजनीति उसी बुनियाद पर आगे बढ़ने वाली है, जिसे मुलायम सिंह जैसे नेताओं ने रखा है। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि।