MP High Court: ‘यदि आदेश का पालन नहीं करा सकते तो इस्तीफा दे दें अधिकारी’ MP High Court ने अवमानना से जुड़े मामलों में जताई नाराजगी

Meghraj
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MP High Court: मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति द्वारिकाधीश बंसल ने अवमानना प्रकरण पर सुनवाई के दौरान प्रशासनिक अधिकारियों को कड़ी चेतावनी दी है। उन्होंने कहा कि यदि अधिकारी छह महीने में भी आदेश का पालन नहीं करा सकते, तो उन्हें अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।

गृह विभाग के एसीएस पर कटाक्ष

कोर्ट ने यह टिप्पणी गृह विभाग के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव (एसीएस) संजय दुबे के संदर्भ में की, जो वर्तमान में सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) के एसीएस हैं। न्यायमूर्ति बंसल ने स्पष्ट किया कि यदि 14 अक्टूबर तक आदेश का पालन सुनिश्चित नहीं किया गया, तो अधिकारियों को अवमानना कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा।

अगली सुनवाई की तारीख

मामले की अगली सुनवाई 16 अक्टूबर को निर्धारित की गई है। इस दौरान कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि अधिकारी को आदेश अनुचित लगे, तो वे अपील करने के लिए स्वतंत्र हैं।

ऑर्डर शीट की अनुपस्थिति

अवमानना याचिकाकर्ता पुलिस अधिकारी विजय पुंज की ओर से अधिवक्ता मनोज चंसोरिया ने कोर्ट को सूचित किया कि अभी तक मामले की ऑर्डर-शीट उपलब्ध नहीं है। हालाँकि, कोर्ट में जताई गई नाराजगी महत्वपूर्ण है।

पदोन्नति के लाभ पर कोर्ट का आदेश

कोर्ट ने मौखिक आदेश में स्पष्ट किया है कि अवमानना याचिकाकर्ता की पदोन्नति का लिफाफा खोलकर लाभ प्रदान किया जाए। दरअसल, हाई कोर्ट ने पहले ही मार्च में पुंज की याचिका पर राहतकारी आदेश पारित किया था।

राज्य शासन की देरी पर टिप्पणी

हालांकि, राज्य शासन की ओर से शासकीय अधिवक्ता ने यह तर्क दिया कि मामले में कैबिनेट से समन्वय करने की आवश्यकता है, जिसके चलते देरी हो रही है। कोर्ट ने इस दलील पर नाराजगी जताते हुए कहा कि ऐसे अधिकारियों को इस्तीफा दे देना चाहिए जो छह महीने में कैबिनेट से समन्वय नहीं बना पाए हैं।

सेवानिवृत्ति की तिथि और उसके प्रभाव

अधिवक्ता मनोज चंसोरिया ने बताया कि अवमानना याचिकाकर्ता विजय पुंज 31 अक्टूबर को सेवानिवृत्त होने वाले हैं। इस स्थिति में राज्य शासन के वकील द्वारा एक महीने की मोहलत मांगना बेमानी है। कोर्ट ने इस पर शासकीय अधिवक्ता से सवाल किया कि क्यों अधिकारी सेवानिवृत्ति के निकट अवमानना याचिकाकर्ता के प्रकरण में पदोन्नति का लाभ नहीं दे रहे हैं। इस मामले में उच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया प्रशासनिक ढांचे की निष्क्रियता पर एक गंभीर सवाल खड़ा करती है।