“मध्यप्रदेश में हो रहे विधानसभा उपचुनाव में उतरे प्रत्याशियों की स्थिति लुटे हुए मेले के मदारियों जैसी है। उनके डमरू बजाने और बंदरों सी कला के दिलचस्प तमाशे के बाद भी मजमें नहीं भर रहे हैं। कोरोना के मारे वोटर को यह सब कोढ़ में खाज सा लग रहा है।”
गद्दारी और खुद्दारी के दो पाटों
में फँसे हैं प्रत्याशी
चुनाव चर्चा/जयराम शुक्ल
कहते हैं राजनीति अक्षतयौवना होती है। उसकी सेहत पर उम्र,आँधी,पानी, बाढ़-बूड़ा, अकाल, दुकाल का कोई फर्क नहीं पड़ता। हम देख रहे हैं कि दुनियाभर के आर्थिक दादाओं को पल भर में पस्त कर देने वाला कोरोना भी राजनीति का बालबाँका नहीं कर पाया।
प्रदेश में उप चुनाव चल रहे हैं। इस दीवाली के पहले कांग्रेस या भाजपा किसका दिवाला निकलता है..बिल्कुल जुएं के फड़ की तरह अनिश्चित है। भाजपा को नौ-दस सीटों की दरकार है जबकि कांग्रेस को कम से कम बीस सीटें मिलने पर ही सत्ता में आने की झीनी उम्मीदें हैंं। मुकाबले का नतीजा विटवीन्स द लाईन निकला तो शेरा, रामबाई जैसों की फिर पौबारह होगी।
बताने की जरूरत नहीं कि प्रदेश के इतिहास में पहली बार एक मुश्त 28सीटों पर उप चुनाव हो रहे हैं। सन् 67 में यही स्थिति बनी थी जब राजमाता सिंधिया ने द्वारिका प्रसाद मिश्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का सिराजा बिखरा दिया था। इस बार उनके पौत्र ज्योतिरादित्य ने वही भूमिका निभाई। बस उसबार दलबदल कानून नहीं था..सो गोविंदनारायण सिंह की संविद सरकार के पौने दो साल के भीतर ही लौटकर प्रायः सभी बुद्धू घर आ गए थे। इसबार ऐसी कोई सूरत नहीं बनती सिवाय इसके कि दल बदलने वाले हार गए तो न वे घर के रह जाएंगे और न घाट के। क्योंकि भाजपा में सत्ता और संगठन की बर्थ पहले से ही भरी हैं।
इस बार चुनाव के मुद्दे प्रत्याशी स्वयं है। केन्द्र व सरकार की कोई योजनाओं का तिलस्म नहीं खींच पा रहा मतदाताओं को। इस चुनाव में उतरे प्रत्याशियों की स्थिति लुटे हुए मेले के मदारियों जैसी है। उनके डमरू बजाने और बंदरों की तरह कुलाटी लगाने के दिलचस्प तमाशे के बाद भी मजमें नहीं भर रहे हैं। मतदाता ठगा-ठगा सा है कि यह असमय क्या हो रहा है। प्रत्याशी परेशान और कार्यकर्ता हैरान हैं। राजनीति उन्हें ऐसे मोड़पर लाकर खड़ा कर दी है कि जिन्हें वे दो साल पहले गरिया रहे थे उन्हीं की अब प्रशस्ति बाँचनी पड़ रही है। नीरसता ने कार्यकर्ताओं के जोश को ठंडी से से पहले ही बर्फीला बना दिया है।
दोनों दलों के अट्ठाइस दूनी छप्पन प्रत्याशियों के अलावा तीन अन्य किरदार हैं जिनकी नींद हराम है, और फिलहाल दिन में ही तारे नजर आ रहे हैं। ये तीन हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और शिवराज सिंह चौहान। अब जरा इनके बारे में। ‘धनुष जग्गि जेहि कारन होई’ जूनियर सिंधिया वही हैं। होली-फगुआ के आसपास और कोरोना के दस्तक के बीच सिंधिया जी के 22 समर्थकों ने कांग्रेस से नाता तोड़कर भाजपा से जोड़ लिया था इनमें आठ कांग्रेस सरकार में भी मंत्री थे। तीन विधायक इसके बाद टूटकर आए और तीन सीटें वहां के विधायकों की मृत्य की वजह से रिक्त हुईं।
सिंधिया जी के ‘सम्मान’ के खातिर 22 विधायकों के पद की कुर्बानी चुनावी लोकतंत्र में दुर्लभ घटना ही मानी जाएगी। संदर्भ के लिए- एक बार नीतीश कुमार ने जीतनराम माँझी को मुख्यमंत्री बना दिया इस उम्मीद से कि वे उनकी खड़ाऊँ ढ़ोएंगे और जरूरत पड़ी तो कुर्सी खाली कर देंगे। लेकिन सत्ता का मद भींजते ही जीतनराम नीतीश के सामने ही खड़ाऊँ लेकर खड़े हो गए। तो ऐसे में सिंधिया के लिए मंत्रीपद का बलिदान इतिहास में दर्ज करने वाली घटना है। सो इस चुनाव में सिंधिया सबसे प्रमुख किरदार हैं और उनपर अपने समर्थक 22 विधायकों को जिताने की गुरुतर जिम्मेदारी। ग्वालियर-चंबल की 36 सीटों में से 16 में चुनाव हो रहे हैं..जौरा की सीट कांग्रेस के बनवारीलाल शर्मा के निधन से रिक्त हुई। दो महत्वपूर्ण सोटों में एक सुर्खी की है जहां से गोविंद सिंह राजपूत लड़ रहे हैं और दूसरी सांवेर की जहाँ से तुलसी सिलावट मैदान पर हैं। इसके अलावा भी सीटें हैं पर ये वो हैं जिनपर नजर है।
ग्वालियर -चंबल में कांग्रेस को इसलिए बहुमत मिला था क्योंकि ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री के तौरपर पेश किया गया। और अब वे कमलनाथ सरकार द्वारा किए गए कथित अपमान की वजह से फिर प्रजा के सामने विनयवत हैं। यह इलाका पशोपेश में हैं। गद्दारी एक मुद्दा है ही भाजपा के पुरानों का असंतोष भी उभर रहा है..। इसके अलावा कोई मुद्दा शेष नहीं। सिंधिया जी बतर्ज़ शिवराज सिंह चौहान के परिश्रम की पराकाष्ठा कर रहे हैं। चंबल-ग्वालियर की सफलता पर ही उनकी दिल्ली में प्राणप्रतिष्ठा होना है।
दूसरे किरदार हैं कमलनाथ। अगर इन्हें दिग्विजय सिंह की भाँति तराजू में मेढ़क तौलने का हुनर मालूम होता तो शायद ही वे मुख्यमंत्री पद गँवा पाते..। लेकिन कमलनाथ ने राजनीति को भी अपने बिजनेस प्रबंधन का हिस्सा माना। इस उप चुनाव में वे एकल योद्धा हैं। उनके अभियान व भाषण की भाषा बताती है कि उनके बैक आफिस में कोई पेशेवर एजेंसी बैठी है। वे जिस चुनाव क्षेत्र जाते हैं पानी में पत्थर मार कर हिलोरें पैदा कर देते हैं। गद्दारी और उससे जुड़ी बाते पंच लाइन हैं। अनूपपुर में ‘बिकाऊलाल नहीं टिकाऊलाल चाहिए’ कहकर वहां भाजपा को तिलमिला दिया। तात्कालिक परिणाम उनके काफिले में पथराव के साथ निकला लेकिन उनके द्वारा हवा में उछाला गया यह जुमला आतिशी अनार की तरह रहरह कर फूट रहा है। कमलनाथ के पास गँवाने को कुछ भी नहीं। भले ही वे बीस से ज्यादा सीटों की जीत की बात कर रहे हों लेकिन उन्हें जन्नत की हकीकत का पता है..कि दुबारा कांग्रेस की सरकार पत्थर में दूब जमाने जैसा दुश्कर कार्य है सो उनका पूरा फोकस प्रदेश में स्वयं की ब्रांडिंग करने का है..सो प्रपोगंडा एजेंसी यही कर रही है।
तीसरे किरदार शिवराज सिंह चौहान है। पंद्रह से ऊपर मिली सीटें उनकी कुर्सी के पाए मजबूती से जमाएगी सो वे इस चुनाव में खुद को झोक रखा है और अपने विश्वसनीयों को प्रभार दिलाने में सफल रहे हैं। एक धड़ा ऐसा भी है जो ख्वाब देख रहा है कि सिर्फ उतनी ही सीटें मिलें जितने में भाजपा की सरकार बची रहे ताकि वे शिवराज जी को हटाने की मुहिम को अजंम तक पहुँचा सकें। ये वही तत्व हैं जिन्होंने मीडिया में प्रचारित कर रखा था कि शिवराज उपचुनावों के बाद चलते बनेंगे। चतुर शिवराज ने ऐसे तत्वों को चिन्हित भी कर लिया है..और यदि खुदा न खास्ता इस चुनाव में भाजपा को 28 में से 20 सीटें भी मिलती हैं तो वे एक बार फिर महाबली की तरह स्थापित होंगे और इस बार वे ‘अब न चूक चौहान’ के तीर-तरकश के साथ दिख सकते हैं।
मतदान के लिए अभी पंद्रह से ज्यादा दिन हैं। तबतक चुनावी माहौल भाँग के नशे की तरह ऊपर नीचे तरंगित होता रहेगा। 25 अक्टूबर के बाद यह कह पाना जरा आसान होगा कि इस लघु चुनावी समर में कौन कितने पानी में है..।