माँ पर विशेष

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देवेन्द्र बंसल

माँ के बगेर ज़िंदगी नीरस है वह माँ है जो अपना सब भूलकर ,तुम्हें जन्नत दिखा दे ,खुद भूखी रह ले तुम्हें खिला दे ,हर मुश्किलों में सहारा बन चट्टान सी खड़ी हो जाए वह प्यारी माँ ही है ।
माँ को हमारे धर्म शास्त्रों में प्रथम पूज्यनिय वंदनीय माना गया है ।
माँ की सरलता ,ममत्व का भाव ,सहजता ,समर्पण कण कण में होता है ।
माँ है तो दुनिया आपकी जेब में है ,पल पल वह ताक़त ,आपके मार्ग को रास्ता दिखाती है ।जो माँ सपने बुनती है ,खुशनसीब है वह ,जिनके घर में माँ गुनगुनाती ,लोरी सुनाती है ।धर्म संस्कार का बीजारोपण करती है ।ख़ुशहाली ,आनंदित हो ,स्नेह भाव के फल लगाती है ।अपनी पाई पाई जुड़ी भी वक़्त पर दे देती है और ख़ुशहाली का संसार रचती है ।वंदन है माँ !चरणो में वंदन है !
हम माँ में ,अपने को ,समर्पित कर सके ,वो प्यार ,स्नेह ,पारिवारिक ख़ुशहाली सब कुछ दे सके जो माँ ने हमें दिया ।
मां की सेवा सभी देवताओं की सेवा में भी सर्वोपरि है।
माँ शब्द से मन के द्वार खुल जाते है ,स्वर लहरी सा मन ,आनंदित हो उठता है ।माँ से ही यह दुनिया रची बसी है ।माँ की ममता को शब्दों में नही रचा जा सकता।
माँ की आपर महिमा के दर्शन हमारे धार्मिक शास्त्रों मे भी मिलते है ।
ऋग्वेद में ‘माँ’ की महिमा का यशोगान कुछ इस प्रकार से किया गया है, ‘हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ ! हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो। तुम हमें नियम−परायण बनाओं। हमें यश और अद्धत ऐश्वर्य प्रदान करो।’
सामवेद में एक प्रेरणादायक मंत्र मिलता है, जिसका अभिप्राय है, ‘हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।’
श्रीमदभागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘माताओं की सेवा से मिला आशिष, सात जन्मों के कष्टों व पापों को भी दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा का कवच का काम करती है।’ इसके साथ ही श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ‘माँ’ बच्चे की प्रथम गुरु होती है।’
रामायण में श्रीराम अपने श्रीमुख से ‘माँ’ को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं-
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’
(अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।)
महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं-
‘माता गुरुतरा भूमेरू।’
अर्थात, माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।
महाभारत में अनुशासन पर्व में पितामह भीष्म कहते हैं कि ‘भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरु नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं और दान के समान को पुण्य नहीं है।’
इसके साथ ही महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने ‘माँ’ के बारे में लिखा है-
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’
अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।
माँ का यह यज्ञ ,यह अनुष्ठान ,जीवन की गहराइयों की उज्ज्वलता से परिपूर्ण हो नए संदेश बन विश्व मानव कल्याणकारी के लिए शुभ हो यही कामना है ।