मानसूनी बौछार, मंत्रिमंडल विस्तार, महामारी और राजनीतिक मारामारी

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कौशल किशोर चतुर्वेदी

मध्यप्रदेश की मनोदशा इन दिनों काफ़ी उलझी उलझी नज़र आ रही है। कभी खुशी कभी ग़म की तरह कभी ख़ुशियाँ बिखरी नज़र आती हैं तो कभी ग़मों की बारिश सराबोर कर देती है। हाल ही में नज़र डालें तो मानसून, मंत्रिमंडल विस्तार, कोरोना महामारी और लाज को ताक पर रखकर विषवमन करती राजनीतिक शब्दावली ने मानो शांति के टापू, नैतिकता के गढ़ और देश के दिल के ख़िताब से नवाजे गए मध्यप्रदेश को अशांत कर दिया है।

मानसून मेहरबान

मानसून इस साल मध्यप्रदेश पर मेहरबान नज़र आ रहा है। प्री मानसून ने ही फिजां में ठंडक घोलकर यह अहसास दिलाया था कि मध्यप्रदेश के महानुभावों आप लोगों को इस बार बारिश ख़ुशियों से सराबोर करेगी। संकेतों के मुताबिक़ ही मानसून ने समय से पहले दस्तक दी और झमाझम बारिश का दौर जारी है। जुलाई अगस्त में भी मानसून की मेहरबानी बनी रहेगी यह संभावना साकार होने का पूरा भरोसा किया जा सकता है। ख़ुशियों में फीकापन यह रहा कि बारिश के चलते सरकारी गेहूँ कुछ गीला हो गया पर सरकार ने साफ़ कर दिया कि आटे में नमक की तरह हुई इस गड़बड़ी से मन में खटास लाने की जरूरत नहीं है। किसान को परेशान होने की कोई बात नहीं है। मानसून की मेहरबानी जहाँ नदियों तालाबों का पेट गले गले तक भरने वाली है तो कुछ अनहोनी भी घटित होने की आशंकाएँ भी बनी रहेंगी। सावधानी हटी और दुर्घटना घटी के तर्ज़ पर मानसून में ग़मों से बचने के लिए सावधानी की नाव पर सवार रहना हर नागरिक का कर्तव्य है वरना बाद में सरकारी मुआवज़ा ख़ुशियाँ झोली में नहीं डाल पाएगा।

मंत्रिमंडल विस्तार

विकट गर्मी से सध रहा मंत्रिमंडल विस्तार का सुर मानसून आते आते भी अटका पड़ा है। अप्रैल के महीने में मंत्रियों की गिनती दोनों हाथ की पाँच उँगलियों तक जो सिमटी तो बाक़ी दिग्गजों की नज़रों के सामने अब तक दोनों हाथ के अंगूठे ही लहलहा रहे हैं।भाजपा नेताओं को तो ग़मों में भी मुस्कुराने और कीचड़ में कमल खिलाने की आदत है लेकिन हाथ का साथ छोड़कर केसरिया दामन थामने वाले पूर्व मंत्री विधायकों की जान सांसत में है। पता नहीं वह भोर जून के अंतिम सप्ताह में भी होगी या नहीं जब उनके चेहरे पर खुशी की छँटा बिखरेगी। मन में संशय के बादल मँडरा रहे हैं जो मंत्रिमंडल विस्तार की बारिश के बाद ही छँट पाएँगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बयान ने फ़िलहाल राहत दी है पर दिल है कि मानता नहीं …।

महामारी बेचारी

कोरोना महामारी भी मध्यप्रदेश में आकर दुविधा में फँसी है। उसे भी समझ में नहीं आ रहा कि आम आदमी की ज़िंदगी के साथ वह खिलवाड़ कर रही है या सरकार का खिलौना बनकर वह खुद रह गई है। मौतों का आँकड़ा 600 की तरफ़ बढ़ रहा, संक्रमितों का फ़िगर 13000 को छूने की तरफ़ है पर सरकार फ़ील गुड की बात कर चिढ़ाती है तो महामारी रुदाली बनी नज़र आती है। कोरोना का रोना यह है कि प्रदेश की साढ़े सात करोड़ जनता सरकार की राय से इत्तेफाक रखते हुए कोरोना की अनदेखी पर आमादा है। दोनों ही तरफ़ ख़ुशियाँ और दोनों ही तरफ़ ग़म पैर पसारे है।मंत्रिमंडल विस्तार की तरह कोरोना की हालत है, दावा भी नहीं और नाउम्मीद भी नहीं।

राजनीतिक मारामारी

मध्यप्रदेश में इन दिनों सबसे ज़्यादा बुरे दौर से राजनीति गुज़र रही है। कब कौन किस पर कैसे गालीनुमा ज़हरीले शब्दों से हमला कर दे, कोई गारंटी नहीं है।जिस तरह भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार किसी मुख्यमंत्री को पाँच मंत्रियों की कैबिनेट से दो महीने से ज़्यादा समय तक काम चलाना पड़ रहा है और क़रीब एक महीने बिना मंत्री बनाए ही मुख्यमंत्री रहना पड़ा है, ठीक उसी तरह पहली बार ऐसा लग रहा है कि पक्ष-विपक्ष में कब कौन किसके लिए कौन से आपत्तिजनक शब्द की बौछार कर दे इसकी कोई गारंटी नहीं है। उप चुनाव आते-आते राजनीतिक गलियों में बदज़ुबानी का कीचड़ भी उफान पर होने की आशंका प्रदेश को कहीं न कहीं भयग्रस्त कर रही है जब राजनीतिक मर्यादा तार-तार होने का रिकार्ड बना चुकी होगी। पाँच दिन के मानसून सत्र की प्रतीक्षा से शायद सदन भी डर रहा होगा कि पता नहीं उसके कानों को कर्कश स्वर क्या सुनाने वाले हैं, कहीं ऐसा न हो कि कान के पर्दे फट जाएँ और सदन बहरा होने को मजबूर हो जाए।