पैसों की सभ्यता और मानव जीवन

Mohit
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अनिल त्रिवेदी

आज की दुनिया के लोग पैसों के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर पाते हैं।इसी से मनुष्यों के सारे व्यवहार,आचार, विचार सब कुछ पैसों के आसपास चलते हैं।मनुष्य सभ्यता का विस्तार या विकास नदियों के पास ही प्रारम्भ हुआ।घुमन्तु मानव सभ्यता को एक स्थान पर समूह बना कर रहने का विचार भी पानी की उपलब्धता के आधार पर विकसित हुआ।शायद इसीसे बिन पानी सब सून का विचार जन्मा।मानव सभ्यता के विकास में पैसों का विचार तो बहुत बाद में आया,और इस कदर छाया की आज की दुनिया का मनुष्य बिना पैसों की दुनिया का विचार और व्यवहार ही भूल गया।

मूलत: पैसों को मनुष्य के बीच आपसी व्यवहार के साधन के रुप में ही प्रचलित करने की कल्पना मनुष्य के मन में आयी।पर आपसी व्यवहार का छोटा सा साधन इतने बड़े जीवन के साध्य में बदल गया।आज का मनुष्य पैसों के मायाजाल में ऐसा उलझ गया कि उसे बिन पैसे जीवन सून लगने लगा।जीवन प्रकृति की रचना और पैसे मनुष्य की रचना फिर भी मनुष्य को प्रकृतिप्रदत्त जीवन से ज्यादा पैसों की कद्र हैं।आज हम सारे जीवन का अधिकांश समय पैसों की प्राप्ति में खर्च कर देतै हैं।

यदि पैसों का संग्रह ही जीवन की एकमेव प्रवृत्ति बन जाय तो जीवनका बहुआयामी स्वरुप ही बदल कर एकांगी हो जाता हैं।मनुष्य के जीवन में पैसों की उपयोगिता एक हद तक हैं पर उस हद को लांघना न लांघना यह हर व्यक्ति की अपनी सोच और समझ पर निर्भर करता हैं।पैसों की शुरूआत धातु से कागज और अब डिजिटल या अंक के स्वरूप में आभासी रूप में पहुंच गयी हैं।पैसों ने मनुष्य को लाचार बनाने से लेकर आर्थिक साम्राज्य का स्वामी भी बनादिया हैं।कई लोगों को लगता है कि पैसों से सब कुछ पाया जा सकता हैं।पैसों की सभ्यता ने मानव सभ्यता और स्वभाव में जितना बदलाव किया है शायद उतना गहरा प्रभाव मनुष्य के जीवन क्रम मे किसी और मानव रचित साधन ने नहीं डाला।कभी कभी तो लगता हैं मनुष्य पैसों की सभ्यता में पूरी तरह उलझ गया है।मनुष्य की मनोदशा आजकल प्राय: ऐसी हो गयी हैं कि उसके हर कर्म के बदले मे पैसा पर्याप्त मिलना ही चाहिए।मानव सभ्यता ने भी मनुष्य द्वारा किये गये परिश्रम के बदले में पैसे या पारश्रमिक का सिद्धांत स्वीकार किया।पर अधिकांश को केवल पारश्रमिक से संतोष नही होता।जो काम लेते हैं उनको लगता हैं काम करने वाले ने कामचोरी की हैं,तो कैसे कम से कम पैसा दे यह चिन्तन चलता है या कम पैसे में ज्यादा काम कैसे करवाये यह चिन्तन या जोड़ बाकी चलता रहता है।

पैसे की सभ्यता के उदय से पहले परिश्रम की सभ्यता थी।परिश्रम के विनिमय से आपसी दैनन्दिन कामकाज चलता था।आपके यहां काम करना है तो हम आ जायेगे, हमारे यहां काम है तो आप को बुलवा लेगे।इस तरह पारस्परिक परिश्रम का दौर चला और आज भी दूरदराज के पारम्परिक गांवों में इस सभ्यता के अवशेष जिन्दा हैं।यह मन और शरीर के संकल्प और सहयोग से रोज के कामकाज को चलाने की मानवीय सभ्यता थी।इस कालखण्ड़ में आवागमन के साधनों पर आधारित सभ्यता का उदय नहीं हुआ था।अधिकांश मनुष्य एक निश्चित क्षेत्र में ही अपना जीवन चलाने के लिये गतिविधियां संचालित करते थे।खेती किसानी,पशुपालन,शिकार और हस्तशिल्प जैसी गतिविधियों को लोग मिलजुलकर जीवनयापन का आधार बनाये थे।

ग्रामीण हाट बाजार या छोटे बड़े गांवों मे लोग अपने अनाज को पांच दस किलो ले जाते हैं और जरुरत की वस्तुएं खरीद लेते है।बकरी मुर्गी बेच कर भी सामान लाया जाता हैं।याने आज के काल में भी मानव समाज में आदिम सभ्यता का वस्तु विनिमय,धातु और कागजी मुद्राओं से लेकर आधुनिक आभासी मुद्रा(डिजिटल मनी)सभी प्रचलित हैं।यानी प्राचीन काल से आज की दुनिया तक पैसे के स्वरूप में काफी बदलाव हुआ हैं।मानव सभ्यता तेजी से साकार मुद्रा से निराकार मुद्रा की दिशा में जा रहीं हैं।निराकार मुद्रा में सिर्फ आंकड़े स्थानान्तरित करने से ही आर्थिक व्यवहार सम्पन्न हो रहा हैं।लेन देन,भुगतान,व्यापार सब डिजिटल या निराकार पैसों से होने लगा हैं।धातु के सिक्के,कागज के नोट और आभासी आंकड़े तीनों के साथ साथ परिश्रम तथा वस्तुविनिमय का भी प्रचलन हैं।यह पद्धति गांवों के साथ साथ दो देशों के स्तर पर भी प्रचलित है।जैसे भारत और ईरान के मध्य पेट्रोल का भुगतान गेहूं से ।

पैसे का स्वरूप कैसा भी हो पर मानव मन में यह भाव आना कि पैसे की ताकत ही जीवन में सबसे बड़ा साधन है जिसके बल पर कुछ भी करना संभव हैं।इसका मनुष्य सभ्यता पर बहुत गहरा प्रभाव हुआ हैं।मानव के मन में पैसों की ताकत के इस्तेमाल से एक नयी सभ्यता का उदय हो चुका हैं जो पैसों को सबसे बड़ी ताकत या जीवनयापन की अनिवार्यता समझने लगे हैं।पैसा प्रमुख और मानव गौण होने लगा।मानव का बनाया आपसी व्यवहार का साधन खुद मानव के जीवन का साध्य बन गया।मानव सभ्यता में उल्टी गंगा बहने लगी पैसे की ताकत मनुष्य की ताकत को ललकारने लगी।मानव सभ्यता पैसे की सभ्यता से संचालित होने लगी।मानव पैसे का जनक है और अब पैसा अपनी ताकत से मनुष्य की हैसियत निर्धारित करने की हैसियत पागया।

मानव अंतहीन पैसा पैदा कर सकता है पर पैसा एक भी मानव नहीं पैदा कर सकता।यह विचार ही मानव सभ्यता की ताकत है।पैसे को साध्य न मानने वाले लोग आज भी पैसे की सभ्यता से बड़ी मानव सभ्यता की जीवनी शक्ति को मानते है और मनुष्य के मन की ताकत को पैसे की ताकत के समक्ष फिसलने नहीं देते।पैसे की सभ्यता ने मानव सभ्यता को समृद्ध करने के बजाय अंतहीन समस्याओं का अंबार खड़ा कर दिया जिनका समाधान पैसे की ताकत से संभव नहींहै।

रोजी,रोटी,शिक्षा,स्वास्थ्य,न्याय,आवागमन,राजनैतिक,सामाजिककार्य,पर्यटन,आवास आदि जीवन की सारी गतिविधियां पैसे की सभ्यता से संचालित होने लगी हैं।यदि आप के पास पैसा नहीं है तो आप हक के बजाय दया के आधार पर जीने को अभिशप्त हो जाते हैं।आप को मनुष्य होने के नाते ही नहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर सारी सुविधायें मिलेगी या नहीं यह पैसे की सभ्यता का निर्धारित मापदण्ड़ हैं।मानव होने मात्र से गरिमामय रुप से जीवन यापन का अधिकार पैसे की सभ्यता में संभव नहीं होता।पैसे की सभ्यता मानव जीवन में धनसंग्रह को साध्य बना सकती हैं और परिश्रम की सभ्यता मानव मे सामुदायिकता तथा एक दूसरे की मदद का रास्ता समझाती हैं।दोनों सभ्यता मानव समाज में लम्बे समय से घटबढ़ रही है।पर कम परिश्रम और अधिक पैसा मनुष्य के मूल साधन मन और तन की शक्ति और तेजस्विता को क्षीण कर रहा है।