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पं.जसराज: शास्त्रीयता के विलक्षण सुर-गंधर्व!

pandit jasraj

जयराम शुक्ल

सुर-लय-तान के यशस्वी साधक संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज जी आज परलोक की संगीत सभा के लिए प्रस्थान कर गए। इसी वर्ष जनवरी में नब्बे वर्ष के पूरे हुए थे।

सुमधुर वाणी,आत्मीय संलाप और विद्वता उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी। वे सहज-सरल और किसी अपरिचित को भी अपना बना लेने वाले सुदर्शनीय सुर गंधर्व थे। वे संगीत की शास्त्रीयता के विलक्षण मीमांसक थे।

उनके साथ सानिध्य की यह तस्वीर 1987 की है। वे आकाशवाणी के कंसर्ट में आए थे। वैसे कंसर्ट तो एक बहाना था, वस्तुतः वे पंडित आशकरण शर्मा के आग्रह पर आए थे जो रिश्ते में उनके दामाद लगते थे। जसराज जी के बड़े भाई पं. मणिराम आशकरण शर्मा जी के स्वसुर थे।

उनदिनों ख्यातिलब्ध गायक आशकरण जी आकाशवाणी केन्द्र रीवा के निदेशक थे। वे मुझे अनुजवत् स्नेह देते थे। उन्हीं के सौजन्य से मुझे पंडित जसराज जी का दो दिन का सानिध्य मिला।

जसराज जी ने ही बताया कि प्रसिद्ध संगीत साधक पं.प्रतापराम जो कि सुलक्षणा-विजेता पंडित के पिता थे, का गहरा नाता रीवा राजदरबार से रहा है। वे कई वर्ष यहां रहे हैं।

पंडित जी से अखबार और आकाशवाणी के लिए लंबा इंटरव्यू लिया था। वह मेरे जीवन का अविस्मरणीय इंटरव्यू था। मैंने पंडित जी से पहला सवाल यही किया था कि आपके समारोह में मुश्किल से 100 लोग रहे..यहां तक कि मैं भी पूरा नहीं झेल पाया..फिर भी आपको महान गायक माना जाता है सरकार ने पद्मपुरस्कार दिए हैं..?

उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया और समझाया.. कि फिल्मी गीतों को प्रायमरी समझिए, लोकगायकी हुई मिडिल क्लास की, सुगम संगीत को ग्रेजुएशन मानिए.. और शास्त्रीय संगीत एम.ए., एम,फिल, पीएचडी और डि.लिट/डी.एससी है…इसका दीक्षांत साक्षात् ईश्वर के सम्मुख होता है।

यदि फिर भी न समझे हों तो इस तरह से समझें- प्रायमरी में बहुत बच्चे होते हैं…ग्रेजुएशन.. पोस्टग्रेजुएशन आते आते 10प्रतिशत रह जाते हैं..इनमें से कुछ ही पीएचडी कर पाते हैं…डि.लिट तो बहुत ही कम..।

बिना उत्तेजित हुए उन्होंने जिस सहजता के साथ शास्त्रीय संगीत समझाया कि मैं अभिभूत ही नहीं उनका शिष्य और परमप्रशंसक हो गया। गीत-संगीत की ध्वनि मेरी लिख्खाड़ी से भी निकलने लगी।

इसके बाद तो खजुराहो महोत्सव, मैहर का उस्ताद अलाउद्दीन खाँ समारोह व कुछेक बार ग्वालियर के तानसेन समारोह की तल्लीनता से रिपोर्टिंग की।

विंध्य के तपस्वी संगीत साधक पंडित मदनगोपाल तिवारी के साथ मिलकर कई वर्षों तक रीवा में ग्वालियर के समानांतर तानसेन समारोह का संयोजन किया।

पंडित जसराज जी ने आश्चर्य मिश्रित दुख के साथ कहा था- दुर्भाग्य देखिए आज मुंबई की ‘भिंडी बाजार’ के नाम से संगीत घराना है.. पर जिस विंध्य में तानसेन की तान गूँजी, जिनकी पालकी को बांधवगद्दी के यशस्वी नरेश महाराजा रामचंद्र ने कंधा दिया वहां तानसेन की कोई श्रुति-स्मृति शेष नहीं बची।

यह पंडित जी ने ही बताया था कि ख्याल गायिकी के महान साधक बड़े मोहम्मद खान साहब महाराज विश्वनाथ सिंह के दरबारी गायक थे।..सुनीता बुद्धिराजा ने पंडित जी की आटोबायोग्राफी “रसराज: पंडित जसराज” में पंडित जी के हवाले से रीवा घराने की गायकी और संगीत साधकों के बारे में विस्तार से लिखा है।

पंडित जसराज ध्रुपद(तानसेन) और खयाल(बड़े मोहम्मद खाँ) गायकी में रीवा(बाँधवगद्दी) घराने के योगदान को अतुलनीय मानते हैं..।

बहुत दिनों बाद मुंबई में एक बार फिर उनके चरणस्पर्श का अवसर मिला था। पंडित जी के गायन को सुनना अलौकिक व आध्यात्मिक अनुभूति पाना रहा है..। अब उनकी स्मृति-शेष बची है ईश्वर उन्हें अपने सानिध्य में रखे….।

‘संक्षेप में-एक नजर’

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