दूध में उफ़ान, शहर शांत

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नितिनमोहन शर्मा

उन लोगो से तो रत्तीभर उम्मीद नहीं, जिन्हें आपने वोट दिया। सता दी। ताकत दी। आस उनसे भी नही जिसे तंत्र कहा जाता है। उन अफ़सरो से तो बिलकुल ही नही, जो इस तंत्र को चलाते है। बची सरकार…उसकी चिंता का विषय दूध नही, शराब है कि कैसे सस्ती हो। कैसे घर घर पहुंच जाए। कैसे महिलाओं और बच्चियों तक आसानी से उपलब्ध हो। ठेकेदार को कोई नुकसान न हो। जनप्रतिनिधियों से उम्मीद बेमानी है। ये कोई एमआइसी चयन का मामला है क्या जहा संगठन तक को झुका लिया जाता है।

ये कोई पार्षद का टिकट है जो कैसे भी हो, लड़ झगड़कर ले आये। कोई टेंडर और ठेका भी नही कि दिन रात एक कर के झपट ले जाये। नेता है वे आखिर। विधायक-सांसद-पार्षद-जनपद सदस्य। आदि-इत्यादि। तुम्हारे दूध के लिए बोलेंगे? इतने गए बीते हो गए क्या जनप्रतिनिधि जो “4 रूपट्टी” के लिए चिंता-चिंतन करेंगे? दस महीने में 48 से 58 रुपये प्रति लीटर हो जाये दूध। आपकी बला से। आप जानो। आपका काम जाने। क्या वे आपके वोट से नेता इसलिए बने है कि दूध की भगोनी की चिंता करे? इत्ती सी बात के लिए आप उनसे सड़क पर उतरने की उम्मीद कर रहे हो…बड़े नादान हो।

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चुनावो के टिकट है क्या? निगम-मंडल-आयोग का कोई पद है? एमआइसी में आने न आने का कोई मामला है क्या जो दिन रात एक कर दे? ये कोई नगर जिला इकाई के पद है जो ज़िंदाबाद मुर्दाबाद करे? भजन-भोजन-भण्डारे ओर चुनरी यात्रा है जो बैठक कर चिंतन मन्थन करे? दूध के भाव ही तो है। 10 महीने में 10 रुपये तक बढ़ गए तो क्या…??? अब इसमें जनप्रतिनिधि बेचारे क्या करेंगे? कोई उनका जमीन-कालोनी, टीएनसीपी या कोई ट्रांसफर का विषय थोड़े ही है जो भोपाल तक दौड़ भाग की जाए?

वो कोई और नस्ल के नेता होंगे जो समाज की पीड़ा दुःख तकलीफ़ में स्वयम को दुःखी कर लेते थे। उन नेताओं का डीएनए ही अलग होगा जो इस शहर में दूध ही नही, कचोरी तक के वाज़िब भाव सरकार-प्रशासन से लड़ झगड़कर तय करवाते थे। वो प्रशासन भी शायद “मौर्य युगीन” दौर का होगा जो शहर में दूध के दाम…दूध का दूध और पानी का पानी की तर्ज पर मुकर्रर करता था। वो कलेक्टर भी शायद “अंग्रेजों के जमाने” का रहे होंगे जो इंदौर में कचोरी का भाव…कचोरी में भरे मसाले के अनुपात में तोलकर तय करवाता था। “दामू अन्ना” की कचोरी इसका पैमाना बनती थी।

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शायद ये वो ही शहर है जहां साल में एक बार दूध के दाम बढ़ते थे ओर एक बार घटते थे। घटत बढ़त रुपये दो रुपये के अंदर ही होती थी। कभी कभी अठन्नी भी घटती बढ़ती थी। शायद दूध वाले भी वे ही होंगे जो दूध को गो रस मानकर दूध में एक बूंद जल मिलाना भी खून मिलाने के सामान मानते थे। इन सबसे कोई शिकायत ही नही। क्योकि नेता अफसर सरकार और तंत्र तो वो ही काम कर रहे है जो करने के अभ्यस्त हो गए है। गुस्सा आपसे है। गिला शिकवा आपसे है। आप तो समाज हो न? नागरिक समाज? इस शहर के बाशिंदे? आप क्यो खामोश है? आप क्यो शांत है? जिन्हें इस मुद्दे पर मुखर होना था वे तो चुप्पी ओढे बेठे है।

लेकिन आपके मुंह क्यो सिले हुए है? हाथ पैर कहा बंधे हुए है? या आपको दस महीने में दस रुपये प्रति लीटर दूध के दाम बढ़ जाना ” परवरता” है। आपके पास इतनी कमाई है शायद की दूध के दाम कितने भी बढ़ जाये, आपको फर्क नही पड़ता? शहरी समुदाय का हिस्सा हो न आप? तो फिर आपने इसके लिये कोई प्रयास किये की कीमत एकदम क्यो बढ़ाई? किसी जिम्मेदार से प्रश्न किया कि दूध के दाम ऐसे कैसे ओर किसके कहने से लगातार बढ़ रहे है? क्या 20 लाख आबादी वाले इस शहर में कोई ऐसा नही जो ये सवाल खड़ा कर सके कि दूध के दाम किस आधार पर बढ़ाये गए?

किसी ने ये बताने या जानने की कोशिश की कि इंदौर के बगल में उज्जैन-रतलाम में दूध 52 से 54 रुपये लीटर बिक रहा है तो इंदौर में ही 60 रुपये क्यो? एक भी आवाज इस तरह से उठकर बाहर आई की आखिर दूध के दाम सरकार ओर जिला प्रशासन की निगरानी में क्यो नही तय होते? क्या कहा…अख़बार। वो क्यो जानेंगे कि दूध का दाम बार बार जिस खली कपास्या या पशु आहार के दाम का बहाना बनाकर बढ़ाये जा रहे है, हकीकत में क्या वाकई इतनी बढ़ोतरी हुई पशु आहार में?

क्या वाकई खली कपास्या के दाम इतने बढ़ गए की दस महीने में दस रुपये प्रति लीटर तक दूध के दाम उपर आ जाये? धार देवास उज्जैन रतलाम में क्या भाव है दूध का? इतनी फुर्सत है क्या पड़ताल की? अगर किसी “पिछड़ी सोच” के कलमकार ने अगर ये स्टोरी कर भी ली तो क्या ग्यारंटी अखबार में स्थान मिल जाये? आमजन के जीवन से जुड़ी ऐसी खबरो के लिए अब कोई स्थान रहता है क्या अखबारों में? कोई सपना दिखाती-सब्जबाग परोसती स्टोरी है क्या जो आठ कॉलम छप जाए? दूध ही तो है। साठ हो या सत्तर…किसे फिकर…???