सुभाष चंद बोस की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य पर राष्ट्र का मुख्य कार्यक्रम कल कलकत्ता के एतिहासिक विक्टोरिया मेमोरियल के प्रांगण में मनाया गया। जैसा कि सुभाष चंद्र बोस के साथ होता आया है, वे इस अवसर पर भी देश की मानसिक सोच के केंद्र में आने में असफल रहे। कारण स्पष्ट है, क्योंकि यह कार्यक्रम सुभाषचन्द्र बोस से ज़्यादा ममता विरुद्ध बीजेपी के राजनैतिक युद्ध के लिए याद किया जाएगा। सुभाष का अर्थ होता है अच्छे वचन, परंतु इस कार्यक्रम में कुछ कड़वाहट आ गई। मोदी का कार्यक्रम होने के नाते पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए यह बड़ी बात थी कि वे इसमें सम्मिलित हुई।
परंतु कुछ गाढ़े केसरिया रंग के कार्यकर्ताओं ने उनके भाषण के पहले जय श्रीराम के नारे लगा दिये। इसकी सफ़ाई में कहा गया कि श्रीराम भगवान के रूप हैं और वे भारत के जन-जन के नायक हैं तथा उनका नाम लेना कोई ग़लत नहीं हैं। लेकिन यह बहुत भोले तरीक़े से कहा गया तर्क है, क्योंकि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले से ही जय श्रीराम पर बीजेपी का कॉपीराइट अधिकार हो गया है। बीजेपी के कार्यकर्ता जब यह नारा लगाते हैं तो लगभग हर दूसरी पार्टी के लोगों को यह बहुत नागवार गुज़रता है।
कार्यक्रम में यह नारा ममता बनर्जी को चिढ़ाने के लिए लगाया गया था और इसका प्रभाव भी उसी प्रकार का हुआ। तत्काल और आक्रामक निर्णय लेने वाली ममता ने दो टूक शब्दों में अपनी नाराज़गी व्यक्त कर दी और कुछ भी कहने सेइंकार करदिया।सारे कार्यक्रम की सुर्खी भी यही बनी। मोदी का उत्कृष्ट भाषण भी उतना ध्यान आकर्षित नहीं कर सका।मेरा दुख यही है कि मंच की यह घटना बंगाल की सड़कों पर हिंसा को और आक्रामक बना देगी।
इस घटना से सुभाष चंद्र बोस हमेशा की तरह एक बार फिर हाशिये पर चले गए। उल्लेखनीय है कि रामचंद्र गुहा सहित अनेक महान इतिहासकारों के बींसवी शताब्दी के भारतीय इतिहास में सुभाष चंद्र बोस का नाम तक नहीं है। हमारे दादुर छाप ट्विटरबाज और प्रवक्ता कार्यक्रम के तुरंत बाद अपनी चिर परिचित विभाजित लाइन पर टर्टराने लगे।