साधु संतों का गोत्र: अच्युत माना जाता है
पुरी शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी के अनुसार, साधु-संतों का भी एक गोत्र होता है। हालांकि वे संसार की मोह माया से ऊपर उठ चुके होते हैं, लेकिन उनका गोत्र “अच्युत” माना जाता है। श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कंद के अनुसार, जब साधु संसारिक संबंधों से मुक्त हो जाते हैं, तब उनका सीधा संबंध भगवान से होता है, और इसलिए उनका गोत्र अच्युत होता है।
नागा साधु, जो सांसारिक मोह-माया से दूर भगवान शिव की भक्ति में लीन रहते हैं, उनका गोत्र भी अच्युत माना जाता है। वे हमेशा भगवान की आराधना में लगे रहते हैं और सभी सांसारिक संबंधों से मुक्त रहते हैं। उनके लिए गोत्र की पहचान महत्त्वपूर्ण नहीं होती, क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य भगवान की उपासना करना होता है।
गोत्र पंरपरा की शुरुआत
गोत्र पंरपरा की शुरुआत प्राचीन काल में हुई थी, जब चार प्रमुख ऋषियों – अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भगु ने इसे स्थापित किया। बाद में, इन ऋषियों के शिष्य जैसे जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त मुनि भी गोत्र परंपरा का हिस्सा बने। गोत्र का अर्थ एक प्रकार से व्यक्ति की पहचान और उसकी परंपरा से जुड़ा हुआ होता है।
यदि किसी ब्राह्मण को अपना गोत्र नहीं पता होता, तो साधु-संत उन्हें कश्यप ऋषि का गोत्र देने की परंपरा है। कश्यप ऋषि की कई पत्नियाँ और पुत्र थे, जिनसे विभिन्न गोत्र उत्पन्न हुए। इसलिए, जिनका गोत्र अज्ञात होता है, उन्हें कश्यप गोत्र का उच्चारण करने के लिए कहा जाता है।