तुम्हारी ऐसी तैसी

Suruchi
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माणिक वर्मा

हरा भरा यह देश तुम्हारी ऐसी तैसी
फिर भी इतने क्लेश तुम्हारी ऐसी तैसी

बंदर तक हैरान तुम्हारी शक्ल देखकर
किसके हो अवशेष तुम्हारी ऐसी तैसी

आजादी लुट गई भांवरों के पड़ते ही
ऐसे पुजे गणेश तुम्हारी ऐसी तैसी

हमें बुढ़ापा मिला जवानी में और तुमको
जब देखो तब फ्रेश तुम्हारी ऐसी तैसी

देश बिके तो बिके ठाट से कर्जा लेकर
घूमो खूब विदेश तुम्हारी ऐसी तैसी

चंदन लकड़ी होय जले तब चिता तुम्हारी
मरकर भी ये ऐश तुम्हारी ऐसी तैसी

पहले अपने लाल कटाओ सीमाओं पर
फिर देना उपदेश तुम्हारी ऐसी तैसी

खुद रूढ़ी से ग्रस्त विश्व को तुम क्या दोगे
मुक्ति का संदेश तुम्हारी ऐसी तैसी

माँगीलाल और मैं
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लोकतंत्र के लुच्चो, दगाबाज टुच्चो!
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और हरिजन
जब हम हार गए तो काहे का इलेक्शन
जिस देश की जनता हो तुम जैसी
वहां काहे की डेमोक्रेसी?
भितरघातियो, जयचंद के नातियों
तुमने अंगूरी पीकर अंगूठा दिखाया है
आज मुझको नहीं
मिनी महात्मा गांधी को हराया है,
हमारी हार बीबीसी लंदन से ब्रॉडकास्ट करवाई
और ये खबर आज तक किसी अखबार में नहीं आई
देश को आजादी किसने दिलवाई?
मांगीलाल और मैंने!
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अंधेरे की अवैध संतानो!
हमने तुम्हें नई रोशनी में खड़ा किया
और हमीं को अंधेरे में चूना लगा दिया
दुश्मन को वोट और हमको टाटा
एक गाल पे चुंबन और एक गाल पे चांटा,
बहुत अच्छे अब खा लो रबड़ी के लच्छे
ये मुंह और रसगुल्ले, केसरिया दूध के कुल्ले
ऊपर से गांजे की चिलम, भगवान कसम
ये दिन तुमको किसने दिखाए?
मांगीलाल और मैंने!
.
ग़ुलाम से मतदाता बने तो बुद्धि चकराई,
हमारे चेहरे पर सुखा
और तुम्हारे चेहरे पर मलाई,
पशु मेले के पोस्टरों ,
भूल गये वो दिन जब जंगल मे उछल कूद करते थे,
आसमान धरती पर धरते थे,
अरे तुम्हें लँगोटी भी ठीक से लपेटने नही आया
तुम्हें बंदर से आदमी किसने बनाया?
मांगीलाल और मैंने!

कायरता के कुकुरमुत्तों,
तुमसे तो बेहतरीन तुम्हारा बाप था,
पिछला चुनाव उसी ने हमको जिताया,
और पेटी लेकर ऐसा भागा कि
आज तक घर नही आया,
हमने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया
और उसको शिखण्डी पुरस्कार किसने दिलवाया ?
मांगीलाल और मैंने!

झाँसी की रानी कौन था?,
पुरा पण्डाल मौन था,
एक मतदाता बोला
झाँसी की रानी “था” नहीं “थी”,
ये बुद्धि तुमको किसने दी ?
मांगीलाल और मैंने!
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कालीदास के कल्लूओं,
कभी खोला है
वो सुनहरे इतिहास का पन्ना,
जब भगत सिंह ने असेम्बली मे बम फोड़ा,
देश को जगाया,
हमारे शरीर मे भी ऐसा करंट आया
कि देश पर मिटने के लिए
एक दर्जन बच्चे पैदा किसने किये?
मांगीलाल और मैंने!

दुनिया के सारे देश,
हमसे ज्यादा तरक़्क़ी कर रहे थे,
उनके नाज नखरे हमें अखर रहे थे,
अरे हमने भी ऐसा दाव मारा
कि सब पे भारी हो गये,
सालों से इतना क़र्ज़ा लिया
कि वो खुद भिखारी हो गये ,
पिट गया सबका दिवाला
और ये तरक़्क़ी का नया फ़ार्मूला
किसने निकाला?
मांगीलाल और मैंने!

गीदड़ के आखिरी अवतारो!
ये राजनीति तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आती है?
सत्ता किसी की हो
जनता हमेशा सताई जाती है?
खून हमेशा गरीबोें का बहा
ये चार जनों के सामने किसने कहा?
मांगीलाल और मैंने!
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कामदेव की कार्बन कॉपियो!
क्या तुम और क्या तुम्हारी औकात
जिस दिन थी तुम्हारी सुहागरात,
अौर अंधेरे में दिखती नहीं थी तुम्हारी लुगाई
तब बिजली की बत्ती किसने पहुंचाई?
मांगीलाल और मैंने!

रेगिस्तान के ठूंठो!
सूखे का मजा तुमने चखा
और संतोषी माता का व्रत हमारी पत्नी ने रखा
एक उपवास में जिंदगी भारी हो गई
सुबह तक रामदुलारी थी
शाम तक रामप्यारी हो गई
चली गई सारी जवानी लेके
बुढ़ापे में ये दिन किसने देखे?
मांगीलाल और मैंने ।

माणिक वर्मा सहज बात को कैसे तीक्ष्ण
बना देते थे, पढ़िए ये कविता..

चरित्र के दाम
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सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है
‘आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!
हरी मिर्च एक रुपए की पांच
चेहरा बिगाड़ देगी आलुओं की आंच
आज खा लो टमाटर
फिर क्या खाओगे महीना–भर?
बैगन एक रुपए के ढाई
भिंडी को मत छूना भाई‚
पालक पचास पैसे की पांच पत्ती
गोभी दो आने रत्ती‚
कटहल का भाव पूछोगे
तो कलेजा हिल जाएगा
ये नेताओं का चरित्र नहीं है जो
चार आने पाव मिल जाएगा!’