चलिए जिंदा पितरों की भी सुधि लें!

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“कभी संयुक्त परिवार समाज के आधार थे जहां बेसहारा को भी जीते जी अहसास नहीं हो पाता था कि उसके आगे पीछे कोई नहीं। वह चैन की मौत मरता था। आज रोज बंगले या फ्लैट में उसके मालिक की दस दिन या महीने भर की पुरानी लाश मिला करती है।”

चलिए जिंदा पितरों की भी सुधि लें!
साँच कहै ता/जयराम शुक्ल

चलिए इस पितरपक्ष में जिंदा पितरों का हालचाल जाने। वैसे भी जो इस लोक में नहीं वे गरुड़पुराण के विधानानुसार सरग या नरक में फल भोग रहे होंगे। जो प्रत्यक्ष हैं नहीं उनकी चिंता करने से लाभ ही क्या?

पर हाँँ हमारा यह धरम जरूर बनता है कि जो पुरखे दयालु, धर्मात्मा, परोपकारी, विद्वान रहे हैं उनकी सीख, उनके आदर्श, उनके आचरण को पितरपख में ही क्यों..! हर पल, आठों याम स्मरण रखें।

लेकिन जो कलंकी, कुल के कुल्हाड़ी, अनाड़ी रहे हों, जीते जी धरती के बोझ, उन्हें.. तुलसीबाबा के कहे अनुसार -तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी.. की तरह त्याग दीजिए, भूल जाइए। भक्त प्रह्लाद पिता हिरण्यकशिपु के लिए पिंडा पारने गयाधाम तो नहीं ही गए होंगे न ही विभीषण अपने अग्रज रावण के लिए।

सो पुरखे अपने-अपने कर्मानुसार ऊपर फल भोग रहे होंगे, उन्हें भोगने दीजिए। चित्रगुप्त के पास सभी का बही खाता है। वे अपने देश के दफ्तरों के बाबू, अदालतों के पेशकार की तरह नहीं कि कुछ दे-ले के करमलेखा घटा-बढ़ा दें। न ही पेशी पर पेशी तारीख पर तारीख देकर न्याय को अपने मुताबिक़ मुल्तवी करवाए रखें। सो इसलिए हम क्यों न जिंदा पितरों की सुधि लें।

हमारे समाज में कितने ही बुजुर्ग पितर बन जाने की प्रतीक्षा में हैं, कईयों को घर में ठौर नहीं इसलिए वृद्धाश्रम में जिन्दगी की उलटी गिनती गिन रहे हैं। इनकी चिंता इसलिए जरूरी है क्योंकि कल हम भी पितर में परिवर्तित हो जाने वाले हैं। हमारे कहने का मतलब यह नहीं कि पितरों का पिंडा पारने, घर में हलवा, पूड़ी खीर की श्राद्ध नहीं करिए। करिये कम से कम इसी बहाने रिश्तों की कंताली के दौर में दस लोग एक साथ बैंठेंगे तो। कौव्वा, कूकुर, गाय समेत कइयों का पेट भरेगा।

फिलहाल एक ऐसे ही जिंदा पितर की सत्यकथा सुनिए-
” पितरों की श्रेणी में पहुंचने से पहले ये बडे़ अधिकारी थे। आफिस का लावलश्कर चेले चापड़ी, दरबारियों से भरापूरा बंगला। जब रसूख था और दौलत थी तब बच्चों के लिए वक्त नहीं था। लिहाजा बेटा जब ट्विंकल ट्विंकल ..की उमर का हुआ तो उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया। आगे की पढाई अमेरिका में हुई।

लड़का देश,समाज, परिवार,रिश्तेदारों से कैसे दूर होता गया साहब बहादुर को यह महसूस करने का वक्त ही नहीं मिला। वे अपने में मुदित रहे। उधर एक दिन बेटे ने सूचना दी कि उसने शादी कर ली है। इधर साहब बहादुर दरबारियों को बेटे की माडर्न जमाने की शादी के किस्से सुनाकर खुद के भी माडर्न होने की तृप्ति लेते रहे क्योंकि इसके लिए भी वक्त नहीं था।

एक दिन वह भी आया कि रिटायर्ड हो गए। बड़ा बंगला सांयसांय लगने लगा। सरकारी लावलश्कर, दरबारी अब नए अफसर का हुक्का भरने लगे। जब तक नौकरी की नात रिशतेदारों को दूरदुराते रहे। रिटायर हुए तो अब वे नातरिश्तेदार दूरदुराने लगे। तनहाई क्या होती है अब उससे वास्ता पड़ा। वीरान बंगले के पिंजडे में वे पत्नी तोता मैना की तरह रह गए। एक दिन सूचना मिली कि विदेश में उनका पोता भी है जो अब पाँच बरस का हो गया।

बेटे ने माता पिता को अमेरिका बुला भेजा। रिटायर्ड अफसर बहादुर को पहली बार गहराई से अहसास हुआ कि बेटा, बहू,नाती पोता क्या होता है। दौलत और रसूख की ऊष्मा में सूख चुका वात्सल्य उमड़ पड़ा। वे अमेरिका उड़ चले। बहू और पोते की कल्पित छवि सँजोए।

बेटा हवाई अड्डा लेने आया। वे मैनहट्टन पहुंचे। गगनचुंबी अपार्टमेंट में बेटे का शानदार फ्लैट था। सबके लिए अलग कमरे। सब घर में थे अपने अपने में मस्त। सबके पास ये सूचनाएं तो थीं कि एक दूसरे का जैविक रिश्ता क्या है पर वक्त की गर्मी ने संवेदनाओं को सूखा दिया था। एक छत के नीचे सभी थे पर यंत्रवत् रोबोट की तरह। घर था, दीवारें थी,परिवार नहीं था।

रात को अफसर साहब को ऊब लगी पोते की। सोचे इसी के साथ सोएंगे, उसका घोड़ा बनेगे,गप्पे मारेंगे आह अंग्रेजी में जब वह तुतलाकर दद्दू कहेगा तो कैसा लगेगा। वे आहिस्ता से फ्लैट के किडरूम गए। दरवाजा खोलके पोते को छाती में चिपकाना ही चाहा ..कि वह नन्हा पिलंडा बिफर कर बोला..हाऊ डेयर यू इंटर माई रूम विदाउट माई परमीशन..दद्दू।

दद्दू के होश नहीं उड़े बल्कि वे वहीं जड़ हो गए पत्थर के मूरत की तरह। दूसरे दिन की फ्लाइट पकडी भारत आ गए। एक दिन अखबार में वृद्धाश्रम की स्पेशल स्टोरी में उनकी तस्वीर के साथ उनकी जुबान से निकली यह ग्लानिकथा पढने व देखने को मिली।”

इस कथा में तय कर पाना मुश्किल है कि जवाबदेह कौन? पर यह कथा इस बात को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि संयुक्त परिवारों का विखंडन भारत के लिए युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। संवेदनाएं मर रही हैं और रिश्ते नाते वक्त की भट्ठी में स्वाहा हो रहे हैं।

कभी संयुक्त परिवार समाज के आधार थे जहां बेसहारा को भी जीते जी अहसास नहीं हो पाता था कि उसके आगे पीछे कोई नहीं। वह चैन की मौत मरता था। आज रोज बंगले या फ्लैट में उसके मालिक की दस दिन या महीने भर की पुरानी लाश मिला करती है। वृद्धों में खुदकुशी करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

पुरखे हमारी निधि हैं और पितर उसके संवाहक। हमारी संस्कृति व परंपरा में पितृपक्ष इसीलिए आया कि हम अपने बाप दादाओं का स्मरण करते रहें। और उनकी जगह खुद को रखकर भविष्य के बारे में सोचें। हमारे पुरखे श्रुति व स्मृति परंपरा के संवाहक थे।

भारतीय ग्यान परंपरा ऐसे ही चलती चली आई है और वांगमय को समृद्ध करती रही है। ये पितरपक्ष रिश्तों की ऊष्मा और त्रासदी पर विमर्श का भी पक्ष है। रवीन्द्र नाथ टैगोर की चेतावनी को नोट कर लें -जो पीढी पुरखों को विस्मृत कर देती है उसका भविष्य रुग्ण और असहाय हो जाता है।