अर्थ का अभाव और अर्थ का प्रभाव दोनों समाज के लिए घातक – पंडित दीनदयाल उपाध्याय

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भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा। इस विचार के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य आम जन की सुख समृद्धि होना चाहिए। उन्होने तत्कालीन जनसंघ की आर्थिक नीति और राष्ट्रजीवन दर्शन का विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि के साथ विकास किया था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा को एक नई दिशा दी थी।

जलेसर रोड स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर भगवती प्रसाद और रामप्यारी उपाध्याय के मथुरा जिले के “नगला चन्द्रभान” ग्राम स्थित घर पर 25 सितम्बर 1916 को बालक दीनदयाल का जन्म हुआ था। इस जगह को अब दीनदयाल धाम कहा जाता है। दीनदयाल अभी 3 वर्ष के भी नहीं हुये थे, कि उनके पिता का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग लग गया। 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। और इसी तरह अल्प समय में ही एक एक कर परिवार के सदस्य नाना, नानी, मामी, भाई शिवदयाल आदि देवलोकगमन करते चले गए। 19 वर्ष की अवस्था तक उपाध्याय जी ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था।

 

1937 में कानपुर से बीए की पढ़ाई करते समय बालूजी महाशब्दे ने दीनदयाल जी का परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से करवाया। उन्हीं दिनों वो संघ के संस्थापक डॉ० हेडगेवार के संपर्क में आए और उनसे प्रभावित होकर दीनदयालजी ने संघ का दो वर्षों का प्रशिक्षण पूर्ण किया और संघ के जीवनव्रती प्रचारक के रूप में काम करने लगे।
सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ‘नेहरू – लियाकत समझौते’ का विरोध किया और मंत्रिमंड़ल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए 21 अक्टूबर 1951 को ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना की। 1952 में इसका प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ तब उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने। इस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से 7 उपाध्याय जी ने अकेले प्रस्तुत किये थे। डॉ० मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा था – ” यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारतीय राजनीति का परिदृश्य बदल कर रख दूँ।” 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के असमय निधन के पश्चात संगठन की पूरी जिम्मेदारी युवा दीनदयाल उपाध्याय के कंधों पर आ गयी थी।

दीनदयालजी की स्पष्ट मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। अपने विचारों को जन जन तक पहुंचाने के लिए उन्होने राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान के तले राष्ट्र धर्म नामक एक मासिक पत्रिका शुरू की। बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ (साप्ताहिक) तथा ‘स्वदेश’ (दैनिक) की भी शुरुआत की। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। अपने पत्रकार जीवन की शुरुआत में वो समसामयिक विषयों पर ‘पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पत्रकारिता के उस दौर में लिखे उनके शब्द आज भी प्रासंगिक हैं। उनके लेखन का एकमात्र उद्देशय था भारत की विश्व पटल पर लगातार पुनर्प्रतिष्ठा और विश्व विजय। एक पत्रकार के रूप में अर्जित अनुभव पर आधारित दीर्घकालिक विषयों से जुड़े उनके राजनीतिक लेख एक विरासत के रूप में सदा के लिए उपयोगी है।

उन्होने कहा था कि ”हमारी भावना और सिद्धांत यह होना चाहिए कि मैले कुचैले कपड़े पहने वो अनपढ़ लोग हमारे नारायण हैं, हमें इनकी पूजा करनी है, यह हमारा सामाजिक व मानव धर्म है, जिस दिन हम इनको पक्के सुंदर, स्वच्छ घर बनाकर देंगें, जिस दिन इनके बच्चों और स्त्रियों को शिक्षा और जीवन दर्शन का ज्ञान देंगें, जिस दिन हम इनके हाथ और पांव की बिवाईयों को भरेंगें और जिस दिन इनको उद्योंगों और धर्मो की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊंचा उठा देंगें, उस दिन हमारा मातृभाव व्यक्त होगा ।” पं. उपाध्याय ने अपने अंत्योदय सिद्धांत में कहा है कि आर्थिक असमानता की खाई को पाटने के लिए आवश्यक है कि हमें आर्थिक रूप से कमजोर लोंगों के उत्थान की चिन्ता करनी चाहिए क्योंकि “अर्थ का अभाव और अर्थ का प्रभाव” दोनों समाज के लिए घातक है ।
अपने जीवन काल में पंडित जी ने बहुत कुछ लिखा है। जिनमें जीवन का ध्येय, एकात्म मानववाद, राष्ट्र जीवन की समस्यायें, राष्ट्रीय अनुभूति, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ का सिद्धांत और नीति, कश्मीर, अखंड भारत, भारतीय राष्ट्रधारा का पुनः प्रवाह, भारतीय संविधान, इनको भी आज़ादी चाहिए, अमेरिकी अनाज, भारतीय अर्थनीति, विकास की एक दिशा, बेकारी समस्या और हल, टैक्स या लूट, विश्वासघात, द ट्रू प्लान्स, डिवैलुएशन ए, ग्रेटकाल आदि सम्मिलित हैं।

पंडित जी ने घर गृहस्थी बसाने की बजाय देश की सेवा को तवज्जो दी और देश सेवा के लिए मरते दम तक तत्पर रहे। देशवासियों के लिए उनका संदेश था कि देश या मातृभूमि हमारी माँ है ‘हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है, केवल भारत नहीं” माता शब्द हटा दिया तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। 1967 तक उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। 1967 में कालीकट अधिवेशन में उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वह मात्र 43 दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे। 10 और 11 फरवरी 1968 की रात्रि में मुगलसराय स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई। 11 फरवरी को प्रातः पौने चार बजे सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा नं० 1276 के पास एक मानव शव मौजूद होने की सूचना मिली। शव को प्लेटफार्म पर रखा गया तो लोगों की भीड़ में से कोई चिल्लाया- “अरे, यह तो जनसंघ के अध्यक्ष दीन दयाल उपाध्याय हैं।” यह सुनते ही पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गयी। भारतीय राजनीतिक क्षितिज पटल पर दैदीप्यमान और जीवन पर्यंत सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा को प्रोत्साहित करने वाले सूरज का अस्ताचल प्रयाण हुआ। अपने प्राण भारतमाता को समर्पित करने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय के बाद उनके सचिव के तौर पर अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को जनसंघ का अध्यक्ष बनाया गया था।

लेखक- राजकुमार जैन, स्वतंत्र विचारक