क्या आप जानते हैं #जदुनाथसिन्हा कौन थे! जदुनाथ सिन्हा- महान दार्शनिक, इंडियन फिलॉसफी के लेखक थे, लेकिन गरीब थे। डॉ #राधाकृष्णन जैसे कथित विद्वान जदुनाथ सिन्हा के ज्ञान के सामने कुछ भी नहीं थे। हाँ, जदुनाथ सिन्हा गरीब थे और दुर्भाग्यग्रस्त थे। सबसे बड़ा दुर्भाग्य इनका यही था कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में इनकी थीसिस के एक्जामिनर बने सर्वपल्ली राधाकृष्णन और ब्रजेंद्रनाथ सील। राधाकृष्णन दो साल तक थीसिस दाबकर बैठे रहे और इसी दौरान छात्र जदुनाथ सिन्हा की थीसिस अपने नाम से छपवा ली।
इन्हीं दो सालों में उन्होंने इंग्लैंड में अपनी किताब इंडियन फिलॉसॉफी प्रकाशित करवाई, जो कि उसे बेचारे जदुनाथ सिन्हा की थीसिस ही थी। उस छात्र की थीसिस से राधाकृष्णन की किताब बिलकुल हूबहू है…एक कॉमा तक का अंतर नहीं है। जब उनकी किताब छप गई तभी उस छात्र को पीएचडी की डिग्री दी गई। यानी राधाकृष्णन की किताब पहले छपी। अब कोई यह नहीं कह सकता था कि उन्होंने चोरी की। अब तो चोरी का आरोप छात्र पर ही लगता।
हालांकि जदुनाथ सिन्हा ने हार नहीं मानी। उसने कलकत्ता हाईकोर्ट में केस कर दिया। छात्र का कहना था, “मैंने दो साल पहले विश्वविद्यालय में थीसिस जमा करा दी थी। विश्वविद्यालय में इसका प्रमाण है। अन्य प्रोफेसर भी गवाह हैं क्योंकि वह थीसिस तीन प्रोफेसरों से चेक होनी थी – दो अन्य एक्जामिनर भी गवाह हैं। वह थीसिस मेरी थी और इसलिए यह किताब भी मेरी है। मामला एकदम साफ है…इसे पढ़कर देखिए….”
राधाकृष्णन की किताब में अध्याय पूरे के पूरे वही हैं जो थीसिस में हैं। वे जल्दबाजी में थे, शायद इसलिए थोड़ी बहुत भी #हेराफेरी नहीं कर पाए। किताब भी बहुत बड़ी थी- दो भागों में थी। कम से कम दो हजार पेज। इतनी जल्दी वे बदलाव नहीं कर पाए…अन्यथा समय होता तो वे कुछ तो हेराफेरी कर ही देते।मामला एकदम साफ था। राधाकृष्णन का फँसना तय था। वो कोर्ट के बाहर सुलह कराने में जुट गए। कई दिग्गजों को बिचौलिया बनाया और गरीब छात्र जदुनाथ सिन्हा को मामला वापस लेने के लिए राधाकृष्णन ने उस समय दस हजार रुपए दिए थे। (1930 के आसपास के 10 हजार रु. शायद आज के 10 करोड़ के बराबर होंगे।)
शोधार्थी जदुनाथ बहुत गरीब था और दस हजार रुपए उसके लिए बहुत मायने रखते थे। दूसरी बात, राधाकृष्णन इतने प्रभावशाली हस्ती थे कि कोई उनसे बुराई मोल नहीं लेना चाहता था। ऐसे में वास्तविक न्याय की उम्मीद जदुनाथ को नहीं रही। राधाकृष्णन के साथ जो दूसरे एक्जामिनर थे ब्रजेंद्रनाथ सील, उन्होंने तटस्थ रुख अपना लिया। बेचारे की हिम्मत नहीं पड़ पाई कि राधाकृष्णन के खिलाफ बोल सकें। इसमें कलकत्ता की मॉडर्न रिव्यू में छात्र जदुनाथ सिन्हा और उनके बीच लंबा पत्र व्यवहार छपा।
राधाकृष्णन सिर्फ यह कहते रहे कि यह इत्तफाक है…क्योंकि शोध का विषय एक ही था..राधाकृष्णन पर लिखी तमाम किताबों में इस विवाद का जिक्र है..एक अन्य प्रोफेसर बी एन सील के पास भी थीसिस भेजी गई थी..ब्रजेंद्रनाथ सील….उन्होंने पूरे मामले से अपने को अलग कर लिया था…बहुत मुश्किल से राधाकृष्णन ने मामला सेट किया..जज को भी पटाया…जदुनाथ को समझाया …तब मामला निपटा..पहले तो ताव में उन्होंने भी मानहानि का केस कर दिया था…पर समझ में आ गया कि अब फजीहत ही होनी है…इसलिए कोर्ट के बाहर सेटलमेंट करने में जुट गए..बड़े बड़े लोगों से पैरवी कराई,मध्यस्थता कराई।
मध्यस्थता कराने वाले एक बड़े दिग्गज #श्यामाप्रसादमुखर्जी भी थे, जो तब कलकत्ता यूनिवर्सिटी के कुलपति थे। इतने दबाव के बीच गरीब जदुनाथ सिन्हा कहां टिकते। अदालत के बाहर मामला सेटल करा लिया लेकिन जदुनाथ सिन्हा की थीसिस और राधाकृष्णन की किताब में पूरी पूरी समानता ऑन द रिकॉर्ड है। इससे वे इन्कार कर ही नहीं सकते थे। बाद में उन्होंने प्रकाशक से मिलकर (बहुत बाद में, एकदम शुरू में नहीं) यह साबित कराने की कोशिश की, कि किताब पहले छपने के लिए दे दी थी और प्रकाशक ने ही काम बाद में शुरू किया।
जदुनाथ के साथ तो अन्याय हुआ, पर जब वो खुद पीछे हट गए तो मामला खत्म होना ही था। हमारी आपत्ति ऐसे व्यक्ति को भारत रत्न देने और उसके जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाने पर है। थीसिस चोर डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिन्हें ब्रिटिश सरकार से ठीक उसी वर्ष ‘सर’ की उपाधि मिली थी, जिस वर्ष भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा हुई थी। राष्ट्रीय आंदोलन में तो ये पूरी तरह से नदारद थे ही। 1892 में वीरभूम जिले में जन्मे जदुनाथ सिन्हा का देहांत 1979 में हुआ।