खेल रत्न: बाकी नामकरण भी खिलाड़ियों के नाम पर क्यों नहीं?

Pinal Patidar
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अजय बोकिल

देश के सबसे बड़े खेल पुरस्कार यानी पूर्व के राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदलकर देश के खेल नायक मेजर ध्यान चंद के नाम पर करने का मोदी सरकार का फैसला इस अर्थ में स्वागत योग्य है कि देर से ही सही हाॅकी के जादूगर ध्यानचंद को अपेक्षित सम्मान तो मिला। हालांकि उन्हें भारत रत्न अभी भी किसी सरकार ने नहीं दिया है। वैसे हर साल खेल रत्न पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले किसी भारतीय खिलाड़ी को दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं ट्वीट कर देश को बताया कि यह फैसला ‘लोगों की भावनाओं का सम्मान’ करते हुए लिया गया है।

खेल जगत ने तो इस निर्णय का स्वागत किया ही है, साथ में विपक्षी कांग्रेस ने भी इसका स्वागत करते हुए कटाक्ष किया कि ‘जन भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अहमदाबाद और दिल्ली के क्रिकेट स्टेडियमों के नाम भी बदले जाएं। इन स्टेडियमों के नाम भी क्रमश: नरेन्द्र मोदी और अरूण जेटली के नामों पर भाजपा शासनकाल में ही रखे गए हैं। क्रिकेट में इनका योगदान यह है कि ये क्रिकेट संघों के पदाधिकारी रहे हैं। कांग्रेस के तंज का आशय यह है कि खेल पदाधिकारी होना खिलाड़ी होना नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि खेलों से जुड़े तमाम पुरस्कारों, संस्थानो तथा भवनो आदि के नाम भी देश की खेल प्रतिभाअों के नाम पर ही रखे जाने चाहिए। न सिर्फ खेल बल्कि राजनीति से इतर सभी क्षेत्रों में नामकरण का आधार किसी क्षे‍त्र में असाधारण योगदान करने वाली विशिष्ट प्रतिभाओं के नाम ही होने चाहिए।

जहां तक मेजर ध्यानचंद का प्रश्न है तो भारत के खेल जगत में उनका स्थान अन्यतम है। पराधीन भारत में वो पहली ऐसी बुलंद खेल शख्सियत थे, जिसने अपने बेमिसाल खेल से पूरी दुनिया में भारत के नाम का डंका बजाया था। ध्यानचंद को ‘हाॅकी का जादूगर’ यूं ही नहीं कहा जाता। प्रतिद्वंद्वी टीमें उनके नाम से कांपती थीं। गेंद पर उनका नियंत्रण अद्भुत था। ध्यानचंद ने 1926 से लेकर 1949 तक अंतरराष्ट्रीय हाॅकी में भारत का प्रतिनिधित्व ‍िकया और कुल 185 मैचों में 570 गोल ठोके। ध्यानचंद फौज की पंजाब रेजिमेंट में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे। उनके पिता भी सेना में थे और वो भी हाॅकी खेलते थे। कहते हैं कि शुरू में ध्यानचंद की रूचि हाॅकी के बजाए कुश्ती में थी।

लेकिन बाद में वो हाॅकी खेलने लगे। न सिर्फ खेले बल्कि हाॅकी का पर्याय बन गए। 1936 के बर्लिन अोलि‍म्पिक में ध्यानचंद का खेल देखकर जर्मनी के ‍तानाशाह हिटलर ने उन्हें जर्मन फौज में नियुक्ति और जर्मनी की नागरिकता देने की पेशकश की थी, लेकिन ध्यानचंद ने देशप्रेम के कारण ठुकरा दी। उन्होंने लगातार तीन अोलिम्पिक में भारत को हाॅकी का स्वर्ण पदक दिलवाया। ब्रिटिश काल में ही उन्हें सिपाही से जूनियर कमीशंड अधिकारी बना दिया गया। आजाद भारत में उन्हे और पदो‍न्नति मिली तथा हाॅकी में उनके असाधारण योगदान के लिए 1956 में भारत सरकार ने पद्मभूषण सम्मान से नवाजा। वक्त के साथ खेल की दुनिया में ध्‍यानचंद के योगदान का महत्व स्वत: सिद्ध होता रहा है। उन्होंने हाॅकी जैसे खेल को उस युग में प्रतिष्ठा दिलाई, जब भारतीय समाज में ‘खेलना-कूदना खराब बनने’ का द्योतक था। वो पहले ऐसे भारतीय खिलाड़ी थे, जिन्हें अंतराष्ट्रीय मंचों पर बहुत आदर और सम्मान के साथ स्वीकारा गया।

यूं तो ध्यानचंद का परिवार यूपी के झांसी में बस गया था, लेकिन ध्यानचंद का मप्र से भी सम्बन्ध रहा। वो ग्वालियर के विक्टोरिया काॅलेज के छात्र रहे थे। ध्यानचंद की जन्म तिथि 29 अगस्त को वर्ष 2012 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ घोषित किया। लेकिन उसी के अगले साल 2013 में जब महान क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर को ‘भारत रत्न’ दिया गया, उस वक्त भी जनभावना यही थी कि इस सम्मान के पहले हकदार ध्यानचंद हैं। लेकिन ध्यानचंद को यह सम्मान इसलिए नहीं ‍िमला, क्योंकि 2013 के पहले तक खिलाडि़यों को इस लायक समझा ही नहीं जाता था। कुछ वैसे ही कि जैसे जिस ‘स्पोर्ट्स मैन स्पिरिट’ की सारी दुनिया में कद्र है, उन्हीं स्पोर्ट्स मैन को नोबेल पुरस्कार के काबिल नहीं समझा जाता। भारत रत्न के मामले में बाद में नियम बदला गया।

किस क्षेत्र के पुरस्कारों का नामकरण किन लोगों के नाम पर होना चाहिए, जनभावना क्या है और राजनीतिक निर्णय क्या हैं, इसको लेकर शुरू से विवाद रहा है। राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार की शुरूआत भी पूर्व पी.वी.नरसिंहराव सरकार ने की थी। पुरस्कार के तहत एक मेडल व सम्मान निधि दी जाती है। शुरू में यह पुरस्कार 1 लाख रू. का था, अब यह राशि 25 लाख रू. कर दी गई है। इस पुरस्कार का नाम उस वक्त ‘हाॅकी के जादूगर’ ध्यानचंद के बजाए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नाम पर क्यों रखा गया, इसका कोई ठोस आधार नहीं है।

सिवाय इस‍के कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की निर्मम हत्या के बाद उनके प्रति देश में एक सहानुभूति का वातावरण था। दूसरे, देश में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंहराव थे, जिन पर गांधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा साबित करने का दबाव था। वरना लोकप्रिय नेता होते हुए भी राजीव गांधी का खेल से खास सम्बन्‍ध रहा हो, इसका जिक्र नहीं मिलता। कहते हैं कि बचपन में उनका रूझान ड्राइंग में था। बाद में वो पायलट बने। इस नाते किसी हवाई अड्डे का नामकरण उनके नाम पर करना ज्यादा तार्किक होता।

विज्ञान और दुनिया के अन्य देशों में किसी भी पुरस्कार, वास्तु अथवा संस्था के नामकरण का अपना एक लाॅजिक और औचित्य होता है। विज्ञान में तो नामकरण के नियम सुस्पष्ट हैं। हर खोज, आविष्कार अथवा परिकल्पना को उसे प्रतिपादित करने वाले वैज्ञानिक का नाम दिया जाता है। जिससे उस वैज्ञानिक का नाम भी अमर हो जाता है तथा उसके काम का महत्व आने वाली पीढि़यां समझती है। लेकिन हमारे देश में राजनीति और राजनेताओं ने हर क्षेत्र पर अतिक्रमण कर रखा है। इसके पीछे भी स्वयं नेताओं के अलावा उस चापलूस मानसिकता की भूमिका ज्यादा है, जो अपने नेता के नाम से नामकरण में ही अपनी स्वामी भक्ति की अमरता मानती है।

वरना क्या कारण है कि इस देश में गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव, संजय और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय आदि चुनिंदा नामों के अलावा नामकरण के लिए दूसरे नामो अमूमन पर विचार ही नहीं किया जाता। यानी नामकरण असंगत हो तो भी चलेगा, ले‍किन होना कोई नेता ही। कोई व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री रह लिया या वो हमारी विचारधारा का है, मात्र इस आधार पर हर वास्तु अथवा संस्था के नामकरण का आधार कैसे हो सकता है? क्यों होना चाहिए? और इस नामकरण परिवारवाद का क्या करें? क्या हमारे पास और लोग नहीं हैं या हम बाकी प्रतिभाओं को प्रतिभा ही नहीं मानना चाहते ? क्या स्थानीय हस्तियां इस लायक नहीं होतीं कि उनका नाम भी किसी को दिया

जाए या फिर उनके नामकरण से कोई राजनीतिक फायदा नहीं मिल सकता इसलिए? और फिर मानवीय गुणों से भरपूर खेल जैसे विशिष्ट प्रतिभा के क्षे‍त्र में भी नेताओं को क्यों घुसना चाहिए? क्या स्टेडियमो के नाम ‍महान खिलाडि़यों या उनके कोचों के नाम पर नहीं रखे जा सकते? खेल रत्न पुरस्कार का नामकरण ध्यानचंद के नाम पर करने के पीछे भी इस महान हस्ती के प्रति श्रद्‍धा भाव ही होना चाहिए, ऐसा मान सकते हैं। यह बात अलग है कि भारतीय हाॅकी का पतन ध्यानचंद के जीते जी ही शुरू हो गया था। अब चूंकि उसमें फिर जान आती दिख रही है, तो पुरस्कार के नामांतरण का यही उचित समय है। हालां‍कि सरकार चाहती तो यह घोषणा ध्यानचंद के जन्म दिन पर भी कर सकती थी। कुछ लोग इस ‘नामांतरण सदाशयता’ के पीछे उत्तर प्रदेश का आगामी विधानसभा चुनाव भी देख रहे हैं।

लेकिन ध्यानचंद जैसे महान लोग संकीर्ण सियासत की परिभाषा में कहीं से फिट नहीं बैठते। ध्यानचंद को सच्ची श्रद्धांजलि और भारतीय खेल जगत के लिए स्थायी बूस्टर यह होगा कि अब देश में खेल की दुनिया से जुड़े सभी नामकरण हमारे महान खिलाडि़यों अथवा खेलों के लिए जीवन समर्पित करने वालों के नाम पर करने का संकल्प लिया जाए और राजनीति को भी ‘खेल’ समझने वालों को इससे दूर ही रखा जाए। गनीमत मानिए कि इस देश में ‍िकसी ने अब तक ‘संसद भवन’ का नाम अपने किसी चहेते नेता, गुरू या बाबा के नाम पर करने की मांग नहीं की है। ऐसा हुआ तो उसी दिन देश में लोकतंत्र का‍ डिलीट बटन दबा समझो !