कश्मीर डायरी…मौका मिले तो जरूर जाएँ…

Ayushi
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जब से कश्मीर में आतंकवाद ने पैर पसारे हैं, कश्मीर का नाम सुनते ही हमारे दिलो दिमाग में एक दहशत भरी दुनिया की तस्वीर उभर कर सामने आ जाती है। मीडिया के जरिये हर एक दो दिनों में आतंकवादी घटनाओं की खबरे सुनकर और पढ़कर लगता है कि हालात बेहतर नहीं है और पृथ्वी के स्वर्ग को देखने की ईच्छा पर यहीं विराम लगना शुरू हो जाता है। लेकिन ये सभी आशंकाएन निर्मूल साबित होती हैं जब वहाँ जाते हैं और स्थानीय लोगों से मिलते हैं तो लगता है सब कुछ सामान्य है बिलकुल हमारे यहाँ जैसा ही। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ और मैंने जब कश्मीर जाने की मंशा जाहिर की तो घर में ही आशंका व्यक्त की गई कि क्या वहाँ जाना ठीक रहेगा। फिर बर्फबारी की मीडिया के जरिये आ रही खबरों ने भी विचलित कर दिया कि वहाँ ठंड से जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया है। ऐसी स्थिति में कश्मीर जाने का उत्साह थोड़ा ठंडा जरूर पड़ गया लेकिन मन में आस थी कि एक बार बर्फबारी का आनंद लिया जाये भले ही थोड़ी तकलीफ सहनी पड़े । जैसे – तैसे कश्मीर जाने का ईरादा पक्का कर लिया तो मित्रों ने भी कहा कि इतनी ठंड और कोरोना काल में जा रहे हो ? आखिर असमंजस पर विराम लगाते हुये जाने का ईरादा पक्का कर कश्मीर के आकाशवाणी के समाचार एकांश के उपनिदेशक श्री एम.ए. तांत्रे से सलाह मशविरा कर टिकट बुक करा ली और कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़ा। कश्मीर जाने के कुछ दिन पहले ही वहाँ काफी बर्फबारी हुई थी। जिसके निशान हवाईअड्डे पर ही देखने को मिल गए। जगह जगह बर्फ पड़ी हुई दिखाई दे रही थी। दरअसल हवाई पट्टी से बर्फ हटाकर किनारे कर दिया गया था जो ठंड के कारण आठ दस दिनों बाद भी पूरी तरह पिघल नहीं पाई थी और ढेर के रूप में पड़ी हुई थी। हालाकि हवाई जहाज से पहाड़ों पर भी आच्छादित बर्फ देखकर ही मन रोमांचित हो रहा था।

 

कश्मीर यात्रा का पहला पड़ाव सोनमर्ग…… श्रीनगर से कोई 75 किलोमीटर दूर सोनमर्ग पहुँचने के पाँच छह किलोमीटर पहले से ही सड़क के दोनों ओर बर्फ के ढेर और पहाड़ भी बर्फ से ढंके … रोमांचित होना स्वाभाविक था और जैसे ही सोनमर्ग पहुंचे …… चारों ओर केवल सफ़ेद चादर बिछी हुई दिखाई दी। बर्फीली हवाओं से ठिठुरन तो बढ़ गई लेकिन रोमांच और अद्भुत दृश्य से ठंड का अहसास कम हो गया। वास्तव में हरियाली के नाम पर केवल पेड़ थे और उन पर भी बर्फ जमी हुई थी। ऐसे खुशनुमा मौसम में बर्फ पर जाने के लिए नियत स्थान पर काफी संख्या में जूते और जैकेट किराये से देने वालों के साथ लकड़ी की स्लेज से बर्फ से ढंके पहाड़ पर ले जाने वालों ने घेर लिया। जैसे तैसे भाव तय कर जूते और जैकेट पहनकर स्लेज पर बैठकर कोई एक किलोमीटर दूर बर्फ से ढंके पहाड़ पर जाने के लिए निकल पड़े।

 

बर्फ पर चलना तो वैसे ही थोड़ा मुश्किल होता है, और ऊपर से जबर्दस्त ठंड…. ऐसे में स्लेज पर बैठे यात्री को खींचना वाकई बेहद मेहनत का काम होता है। स्लेज पर बड़े सलीके से बिठाने के बाद उन्होने स्लेज खींचना शुरू किया तो एक व्यक्ति ने आकर कहा… साब…हेल्पर की जरूरत पड़ेगी… बिना हेल्पर के आप वहाँ नहीं पंहुच सकते। जैसे तैसे बात बनी और हेल्पर ने भी ज़ोर आजमाईश शुरू कर दी। ज़ोर लगा के हाइया के स्थान पर अली..बली… और कश्मीरी में हौसला बढ़ाने के लिए नारे लगाते गंतव्य को चल पड़े। स्लेज वैसे तो लकड़ी की बनी होती है और बर्फ पर आसानी से फिसलती भी है।  स्लेज पर बैठ कर सवारी करना एक अलग ही अनुभव था लेकिन भीषण ठंड में स्लेज खींचने वालो को देखकर रंज भी हो रहा था कि इन्हें स्लेज खींचने में कितनी मेहनत करनी पड़ रही है। लेकिन किया भी क्या जा सकता था। उनकी भी मजबूरी थी और हमारी भी। यहाँ पर सभी का यही रोजगार है और इन दिनों पर्यटन का मौसम शुरू ही हुआ है…. धारा 370 के बाद हालात जैसे तैसे ठीक हो रहे थे कि कोरोना का कहर शुरू हो गया और पर्यटन को तो जैसे ठंड ने ही जकड़ लिया। ऐसी स्थिति में भले ही स्लेज पर बैठकर जाना अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन उन्हें रोजगार देने के भाव से थोड़ी राहत जरूर मिली। जब अंतिम लक्ष्य तक पँहुचे तो उसने  बड़ी शान से बताया… साब… यहीं बजरंगी भाईजान की शूटिंग हुई थी।

 

एक बात यह भी करना जरूरी है कि स्लेज, स्केईंग, और बर्फ गाड़ी चलाने वाले प्राय: सभी युवा ही थे। उन सभी का व्यवहार बेहद शालीन था….। पहाड़ पर जाते समय वे बीच बीच में तस्वीर लेना नहीं भूलते… वीडियो भी बनाने में माहिर…सच पूछा जाये तो उन्होने मोबाईल से फोटो लेने की समस्या काफी हद तक समाप्त ही कर दी थी। फोटो कैसे और किस अंदाज में लेना है… वे निर्देशित भी करते…. और जब मोबाईल में तस्वीर देखी तो लगा जैसे कोई व्यवसायिक फोटोग्राफर्स ने तस्वीर खींची है।

 

श्रीनगर से सोनमर्ग जाते समय कंगन नामक स्थान पर कश्मीर आर्ट महल ( हस्तकला की दुकान ) के समीप चाय पीने के लिए ड्रायवर ने गाड़ी रोकी। वहाँ कश्मीर आर्ट महल के मालिक मो. ज़हूर अहमद से मुलाक़ात हुई। उन्होने बड़ी शान से बताया कि मध्यपदेश के खजुराहो में भी उनका शोरूम है और वे जब भी समय मिलता है खजुराहो जरूर जाते हैं। उन्होने दुकान में रखी अनेक हस्तकला की वस्तुए दिखाई और उनकी खासियत के बारे में भी बताया। आखिर उनकी सलाह पर एक फ़ैरन खरीद ही लिया जिससे सोनमर्ग के साथ पहलगाम और गुलमर्ग में ठंड से बचाव करने काफी मदद मिली। ( फ़ैरन कश्मीरी लिबास है जिसे आमतौर पर पुरूष ही पहनते हैं। यह काफी ढीला होता है और जब कड़ाके की ठंड पड़ती है तब ठंड से बचाव के लिए फ़ैरन के अंदर काँगड़ी ( सिगड़ी) में लकड़ी जलाकर आग भरकर हाथ से पकड़ कर रखते हैं )

 

सोनमर्ग जाते समय ड्रायवर से बातचीत का सिलसिला भी जारी रहा और वहाँ के हालात पर भी चर्चा होती रही। ड्रायवर मोहसीन ने कहा कि धारा 370 हटने के बाद परिस्थिति में कोई खास परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है। सरकार किसी भी की हो… विकास के काम होने चाहिए। हमें तो कोई फर्क नहीं पड़ता।  पढ़ाई की बात चली तो मोहसीन ने बताया कि अब स्कूलों में शायद हिन्दी भी पढ़ाई जाएगी। मैंने प्रतिप्रश्न किया… हिन्दी पढ़ने से नुकसान है क्या ? उसने तपाक से उत्तर दिया … नहीं… इससे तो फायदा ही होगा। एक से अधिक भाषा जानने से अधिक ज्ञान अर्जित होगा। पर्यटन स्थल सोनमार्ग में अनिवार्य सुविधाओं (प्रसाधन) की उपलब्धता नहीं होने पर मोहसीन ने कहा … इसके लिए तो ज़हूर अहमद की दुकान पर ही रूकना होगा…  और चाय भी वहीं पिएंगे। वापसी में मैंने फ़ैरन पहन रखा था….. जैसे ही कंगन में कश्मीर आर्ट महल पहुंचे …. ज़हूर अहमद ने गले लगाते हुये कहा … मैं तो पहचान ही नहीं पाया… मुझे लगा कोई कश्मीरी ही है…. बिलकुल आप कश्मीरी लग रहे हो… मैं भी हौले से मुस्करा दिया।