कश्मीर डायरी: गुलमर्ग में बर्फ पर भी स्वच्छता…

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भारत के प्रसिद्ध पर्यटक स्थलों में से एक गुलमर्ग में गंडोला ( रोप वे) से ढाई किलोमीटर से अधिक का सफर करीब 9 से 10 मिनट में तय करने के बाद पहाड़ पर समतल (कांगडोरी) पहाड़ पर पहुँचते हैं तो वहाँ के नजारे की तस्वीर पर्यटकों के दिल में इस कदर अंकित हो जाती है कि उसे दिल की हार्ड डिस्क से मिटाना संभव ही नहीं होता है। हालाकि इन दिनों ठंड के मौसम में पर्यटकों की संख्या काफी कम है लेकिन बर्फ से पूरी तरह ढँके पहाड़ों पर मानवीय आदतों से रूबरू होना ही पड़ता है। स्थानीय पथ प्रदर्शक (गाईड) मो. बशीर के साथ साथ चलते हुये मोहम्मद अय्यूब को हाथ में बोरी पकड़े और आसपास से पोलीथीन, रेपर, कागज आदि उठाते देखा तो जिज्ञासावश मैंने पूछा …. क्या यहाँ भी लोग कचड़ा फेंकते हैं? उसने बड़ी सहजता से जवाब दिया— यहाँ टूरिस्ट लोग आता है। पोलीथीन आदि फेंक देते हैं। ये कचड़ा बर्फ में अंदर न जाये इसलिए जमा करते हैं ताकि बर्फ प्रदूषित न हो। (दरअसल इंदौर लगातार चार वर्षों से स्वच्छता के विभिन्न मापदण्डों पर देश में अव्वल रहा है। अब हम इंदौर के बाहर कहीं भी जाते हैं तो सबसे पहले उस शहर या स्थान की तुलना स्वच्छता से ही करते हैं… जब मो. अय्यूब को पोलिथीन आदि उठाते देखा तो मुझसे रहा नहीं गया और उससे चर्चा करने लगा। हालाकि पथ प्रदर्शक मो. बशीर ने टोककर कहा… अब चले… लेकिन मैंने उससे काफी देर तक बातचीत की)

मोहम्मद अय्यूब ने बताया कि एक दिन में दो – तीन कट्टा (बोरी) कचड़ा जमा हो जाता है। जिसे वे केबल कार से नीचे ले जाते हैं। केबल कार प्रशासन कचड़ा का निपटान करते हैं। उन्होने बताया कि जब केबल कार चलता है तो टूरिस्ट यहाँ आता है इससे हमारा तनखा भी निकलता है। स्केइंग और स्लेज चलाने वालों को भी रोजगार मिलता है। कांगडोरी में ही पर्यटकों के जलपान की सुविधा के लिए होटलें भी हैं जहां चाय, काफी, कहवा, कश्मीरी पुलाव आदि बहुत कुछ आसानी से मिल जाता है। स्केइंग, स्लेज और बर्फ पर चलने वाली बाईक की सवारी करना अपने आप में ही बेहद रोमांचक होता है। इनकी सवारी करना थोड़ा महंगा जरूर लगता है लेकिन उनकी मेहनत देखकर उन्हें रोजगार देने का थोड़ा सुकून भी मिल जाता है। कांगडोरी में दो-तीन घंटे आसानी बर्फ पर चहलकदमी और यहाँ की रोमांचक गतिविधियों में शामिल होकर बिताए जा सकते हैं।

दरअसल, गंडोला से कांगडोरी तक का सफर पहला पड़ाव ही है। इससे भी आगे या ये कहें और ऊंचाई पर है अफरवाट। यह कांगडोरी से करीब डेढ़ किलोमीटर दूरी पर है जहां गंडोला से ही जाया जा सकता है। पथ प्रदर्शक मो. बशीर ने गंडोला की टिकट लेते समय ही बता दिया था कि कांगडोरी ही सबसे उत्तम स्थान है। अफरवाट पर बहुत कम लोग जाते हैं और वहाँ आनंद भी नहीं आयेगा। बहुत तेज हवाएँ चलती है और इन दिनों ठंड भी बहुत ज्यादा है। उनकी बात मानते हुये हमने कांगडोरी तक ही जाने का फैसला किया और यह ठीक भी रहा। इन दिनों कांगडोरी से शाम चार बजे तक सभी पर्यटक वापस नीचे आ जाते हैं। गंडोला से आने जाने का सफर बेहद रोमांचक रहता है जब नीचे बर्फ की मोटी चादर से ढँके पहाड़, बर्फ से लदे पेड़…नजरें हटती ही नहीं…. बर्फ पर पैरों के निशान के बारे में बशीर महोदय ने बताया कि ये भालू के पैरों के निशान हैं…. मैंने मन ही मन सोचा… हो सकता है… लेकिन मन में संदेह इसलिए था कि जब हम बर्फ़ीले रास्तों से अलग जाने का प्रयास करते हैं तो हमारा तो पैर काफी अंदर तक धंस जाता है तब भला भालू कैसे बर्फ पर चलता होगा? मैं बशीर की हाँ में हाँ मिलाते हुए पहाड़ पर बने छोटे मकानों को देखने लगा जिनपर पूरी तरह बर्फ जमी हुई थी।

बर्फीले पहाड़ों पर सैर सपाटे के लिए जाते समय वाटरप्रूफ जैकेट और लाँग शूज पहनना जरूरी हो जाता है। आमतौर पर प्राय: सभी सैलानी वहाँ से ही किराये पर लेते हैं। यह इसलिए भी जरूरी होता है कि बर्फ में हम अपने जूते पहनकर चल नहीं सकते और बर्फ से गीले हो जाएँगे। इसी तरह जैकेट पहनकर बर्फ में लोट लगाने, गिरने और एक दूसरे के ऊपर बर्फ फेंकने का भरपूर आनंद भी लिया जा सकता है। बिना जैकेट के तो कड़ाके की ठंड से दाँत किटकिटाने से लेकर बीमार पड़ने तक की आशंका हो सकती है।

गुलमर्ग में यदि रात में रूकने की व्यवस्था हो जाये तो यह एक अलग ही अनुभव होता है। चारों तरफ केवल बर्फ ही बर्फ दिखाई देती है और इन्हीं के बीच होटल्स हैं। होटल तक पहुँचने के लिए बर्फ को हटाकर रास्ता बनाया गया है और इन रास्तों पर बेहद सँभलकर चलना होता है। पैर फिसलने का डर बना रहता है और यदि फिसल कर नहीं गिरे तो आपके मन में एक अधूरी ईच्छा रह जाएगी। रात में इन सुनसान रास्तों पर कुत्ते घूमते हैं इसलिए होटल के मैनेजर ने चेता दिया कि बाहर नहीं निकलें। हालाकि ये काटेंगे नहीं लेकिन भरोसा नहीं किया जा सकता । जब इंदौर से श्रीनगर के लिए यात्रा पर निकले तो मन में कहीं न कहीं कोरोना का खौफ था लेकिन वहाँ जाकर तो कोरोना का डर जैसे काफ़ूर हो गया लेकिन होटल के मैनेजर अलताफ़ और अन्य कर्मचारियों ने मास्क लगा रखे थे। मैनेजर अलताफ़ ने बताया कि वह 2004 से यहाँ पर्यटकों की खिदमत कर रहा है। पर्यटकों से ही हमारी रोजी रोटी चलती है । उसने कहा कि यदि किसी पर्यटक को रात में दो बजे भी पानी या चाय आदि की ईच्छा हुई तो हमें उनकी सेवा करना होता है। उसने बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा कि यदि हमारे घर में माता – पिता या कोई बुजुर्ग रात में पानी या कोई चीज मांग ले तो हम अनसुना कर देते हैं। जैसे हम यहाँ पर्यटकों की सेवाएँ कराते हैं, उसी तरह हम उनकी आज्ञा का पालन कर लें तो निश्चित ही हमें जन्नत मिलेगी। वह आह भर कर रह गया।

होटल में 20 – 21 साल के दो युवा बिलाल और इरदिश से मुलाक़ात हुई। दोनों गुलमर्ग से कोई 25 किलोमीटर दूर ग्राम पोंडी पाईन के रहने वाले हैं। सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा के छात्र है। बिलाल ने बताया कि उन्हें यहाँ सात हजार रूपये महीना तनखा मिल रही है। कोरोना के कारण लगाए गए लाकड़ाऊन के समय से ही स्कूल बंद हैं …अब ठंड के कारण । उन्होने बताया कि मार्च में स्कूल खुलेंगे तब तक वे यहीं काम करेंगे। स्कूल बंद है तो होटल में काम करने से जो तनखा मिल रही है, इससे घर वालों की मदद हो जाती है। बेहद शालीन और कर्मठ दोनों युवाओं के लिए दिल से दुआ यही निकली कि ये दोनों अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद कश्मीर के विकास में अपना योगदान दें।

गुलमर्ग की सुबह तो बेहद सुहानी होती है। कौवों की कांव कांव से नींद खुली तो बाहर धुंधलके में बर्फ से ही सामना हुआ। पेड़ों पर कौवे कभी इस डाल पर कभी उस डाल पर… कौवों के डाल से उड़ने और बैठने के दौरान पेड़ों पर जमी बर्फ गिरती तो आसमान से बर्फ गिरने का अहसास होता रहा…। आसपास पहाड़ होने के कारण सूरज के भी देर से दर्शन हुये । होटल के ऊपर बर्फ जमी हुई थी और बर्फ के पिघलने से पानी जब नीचे टपकने लगा तो वह कड़ाके की ठंड जम गया था… बेहद खूबसूरत दिखाई दिया तो तस्वीर लेना नहीं भूला… आप भी देखें। ( चौथी और अंतिम किश्त … जल्द ही …. 1989 में बना था आखरी हाऊसबोट )