सारा कसूर तो कमलनाथ का ही है….

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तो पन्द्रह महीने में कांग्रेस मध्यप्रदेश में दुर्गति को प्राप्त हो गई। तीन नवम्बर को कमलनाथ ने वोटिंग के दिन मतदाताओं से सहानुभूति हासिल करने के लिए अखबारों में दिए कांग्रेस के एक विज्ञापन में सवाल पूछा था, ‘मेरा कसूर क्या था?’ अब उनके पास और कांग्रेस के पास भी पूरा-पूरा समय है कि तसल्ली से इस सवाल के जवाब तलाशें। पूरे सब्र के साथ इन उत्तरों की समीक्षा करें। ईमानदारी से यदि कांग्रेस ने ऐसा किया तो उसे लगेगा कि गलतियों का अंबार उनके आसपास बिखरा पड़ा है। कुछ करने की गलती और कुछ न करने की भी गलतियां। वो दिन याद करें, जब कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान दी गई थी

सारा प्रदेश पंद्रह साल की सत्ता विरोधी एंटी इंकम्बैंसी से गूंज रहा था। कांग्रेस के पक्ष में यूं ही माहौल बना हुआ था। लेकिन उस सत्ता-विरोधी लहर को भी कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत का आधार नहीं बना सकी। यह कमलनाथ की नेतृत्व क्षमता की कमजोरी का बहुत बड़ा साक्ष्य था। फिर मुख्यमंत्री बनने के बाद तो वह राजनीतिक अपरिपक्वता के बड़े उदाहरण बनकर रह गए। उन्होंने आम जनता से जैसे मुंह ही मोड़ लिया। वल्लभ भवन के भीतर चुनिंदा नेताओं और छंटे हुए अफसरों के बीच घिर कर बैठ गए। जो समय बचा, उसमें कभी दिल्ली तो कभी छिंदवाड़ा चले गए। सब जानते थे कि कमलनाथ नाम भर के मुख्यमंत्री बनकर रह गए थे।

सत्ता के असली सूत्र दिग्विजय सिंह ने अपने हाथ में ले लिए थे। लेकिन नाथ ये जानकर भी अनजान बने रहे। यह बात भी किसी से छिपी नहीं थी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को नाथ के आजू-बाजू से ही ‘प्रोवोक’ किया जा रहा है। कमलनाथ सिंधिया के मिजाज को बखूबी जानते थे। उन्हें निश्चित ही पता होगा कि सिंधिया के अपमान की रबर यूं खींची गयी तो मामला बिगड़ सकता है। लेकिन इस तरफ सकारात्मक कोशिश करने की बजाय तत्कालीन मुख्यमंत्री ‘तो उतर जाएं’ वाले दंभ में चूर नजर आए। यहां तक कि अपने तख्तापलट की निरंतर बढ़ती गतिविधियों के बीच नाथ रेत में मुंह धंसाए शुतुरमुर्ग जैसा बचकाना आचरण ही कमलनाथ को डूबोने के लिए काफी था।

अब इतनी त्रुटियों के बीच मंगलवार को आया नतीजा बता रहा है कि कमलनाथ को कोई एक कसूर नहीं रहा। उन्होंने असंख्य गलतियां कीं। जिसका खामियाजा इस राज्य ने भारी-भरकम महंगे उपचुनाव के रूप में भुगता। कमलनाथ न एक सच्चे मुख्यमंत्री बन पाए और न ही अच्छे जन प्रतिनिधि। तो फिर ऐसे में अपनी गलती पूछने की महागलती करने का भला क्या औचित्य रह जाता है? हां, औचित्य है आने वाले समय में गलतियां सुधारने का। अब कमलनाथ और दिग्विजय को चाहिए कि अब वह स्वेच्छा से राजनीति की बजाय वानप्रस्थ आश्रम में चले जाएं। मध्यप्रदेश में युवा नेतृत्व को तवज्जो और स्थान, दोनों प्रदान करने में उदारता दिखाएं।

यह मानकर चलें कि उनकी पार्टी 2023 का विधानसभा चुनाव भी नहीं जीतेगी। आज के नतीजों से पार्टी का मनोबल लंबे समय के लिए टूट जाना तय है। इसलिए कांग्रेस आठ साल का समय लेकर चले। इस दरमियान अपनी पुरानी गलतियों को नए सुधारों के साथ दूर करे। गुटों को खत्म करे। संगठन के ढांचे को इतनी मजबूती दें कि पार्टी की यह रीढ़ भाजपा की तरह सीधी और मजबूत बन सके। जीतू पटवारी, उमंग सिंघार, कुणाल चौधरी, ओमकार सिंह, सुखदेव पांसे जैसे जमीनी चेहरों को आगे लाकर पार्टी में नयेपन की बयार लाई जाए। उपाय अनंत हैं, लेकिन सवाल केवल एक? वह यह कि इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी कमलनाथ और दिग्विजय खुद में कोई सुधार लाना चाहेंगे? अगले विधानसभा चुनाव तक ये दोनों नेता पचहत्तर साल के आसपास के होंगे। कांग्रेस का कायाकल्प करने के लिए पुराने चेहरों को सत्ता का मोह छोड़कर नए लोगों के लिए जगह खाली कर ही देना चाहिए।