विष्णु नागर
साठ साल का सफर पूरा कर ‘कादम्बिनी ‘ आखिर लाकडाउन की बलि चढ़ा दी गई- बाल पत्रिका ‘ नंदन’ के साथ।’ कादम्बिनी ‘ से हालांकि मेरा संबंध बारह साल पहले ही छूट गया था और अब वह पत्रिका मुझे भेजा जाना भी बंद हो चुका था मगर उसके अतीत से पहले पाठक के रूप में और बाद में उसके संपादक के समकक्ष जिम्मेदारी संभाल चुकने के कारण उससे एक लगाव था ,इसलिए यह खबर मेरे लिए भी दुखद है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की राह पर देर से ही सही, हिंदुस्तान टाइम्स समूह भी आ गया।
कादम्बिनी प्रबंधन की उपेक्षा का शिकार तो मेरे कार्यकाल से पहले ही होने लगी थी।मेरे समय महीने में एक या दो बार कादम्बिनी का जो विज्ञापन हिन्दुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान में छपता था,उसे भी बाद में बंद कर दिया गया था।उसका आकार तथा कुछ और परिवर्तन मेरे न चाहते हुए भी किए गए थे कि इससे नये विज्ञापन आएँगे।न विज्ञापन लाए गए, न प्रसार संख्या बढ़ाने के कोई प्रयास हुए।खैर। वैसे लिखना तो चाहता था कादम्बिनी से अपने संबंधों के बारे में पहले ही मगर टलता रहा और कल वह दिन भी आ गया कि उसकी अंत्येष्टि के बाद श्रद्धांजलि देनी पड़ रही है।
बहरहाल एक फरवरी को मैंने और क्षमा जी ने अपने- अपने पद संभाले।उस कक्ष में उस कुर्सी पर बैठे,जिस पर पूर्व संपादक बैठा करते थे।एसोसिएट एडीटर होते हुए भी मृणाल जी यह स्पष्ट कर चुकी थीं कि सबकुछ मुझे ही देखना है,उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। इसलिए इस जिम्मेदारी की खुशी भी थी और यह भय भी था कि क्या इसे मैं संभाल पाऊँगा मगर आशंका पर खुशी और रोमांच हावी था।आशंका इसलिए भी हावी नहीं थी कि अब मैं पक्की नौकरी की बजाए तीन साल के कांट्रेक्ट पर था और यह सोचकर गया था कि जो होगा,देखा जाएगा।हद से हद घर बैठा दिया जाएगा।देखेंगे।इतना खतरा उठाना चाहिए।
मृणाल जी के सहयोग और समर्थन से पत्रिका का कायाकल्प करने की कोशिश की।भूत -प्रेतों, ज्योतिष,
बाबाओं का निष्कासन पहले ही अंक से किया,जो मार्च,2003 को सामने आया।कवर पर ईंट ढोती मजदूर औरत थी क्योंकि 8 मार्च को महिला दिवस था।अभी अंक आँखों के सामने नहीं है मगर इस अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी का निराला की कविता में आँखों के वर्णन पर था।बाद में भी उनका भरपूर सहयोग मिलता रहा।अपने छात्रों के बारे में उन्होंने एक सीरीज लिखी,जो बाद में पुस्तकाकार रूप में सामने आई।यह अपनी तरह की दुर्लभ पुस्तक है। प्रिय कहानीकार और मित्र मधुसुदन आनंद तब तक कहानी लिखने से विरक्त से हो चुके थे,उन पर भावनात्मक दबाव डालकर उनसे कहानी लिखवाई।गुणाकर मुले जैसे अत्यंत विश्वसनीय विज्ञान लेखक से लिखवाया।
आधुनिक और महत्वपूर्ण लेखकों से इसे जोड़ने का सिलसिला बहुत आगे तक बढ़ा।भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती आदि सब बड़े लेखक जुड़ते चले गए। जो किया,नहीं किया,इस पर ज्यादा लिखना ठीक नहीं।बगैर अंधविश्वासों का खेल खेलते हुए( मासिक भविष्यफल का एक स्तंभ छोड़कर) इसे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की लोकप्रिय-पठनीय पत्रिका बनाए रखने का प्रयत्न किया।तब के.के.बिरला जीवित थे,उन्होंने स्वयं मुझे बुला कर शाबाशी दी।मृणाल जी तो खुश थी ही,पाठक भी।स्टाफ ने भी जिसकी जितनी योग्यता थी,सहयोग किया।सबसे दोस्ताना संबंध बना।हरेक का जन्मदिन सब मिल कर प्रेस क्लब में मनाते।बीयर पीनेवाले बीयर पीते
मेरा सौभाग्य रहा कि मेरे निजी सहायक बलराम दुबे रहे,जो योग्य और विश्वसनीय रहे।बाकी सभी संपादकीय सहयोगियों का सहयोग भी मिला।मेरे कार्यकाल में हरेप्रकाश उपाध्याय, पंकज पराशर,शशिभूषण द्विवेदी, ऋतु मिश्रा जैसे योग्य लोग आए। 2008 में जब कादम्बिनी छोड़कर नई दुनिया के दिल्ली संस्करण में आना मेरे लिए जीवन का बहुत दुविधाजनक निर्णय था।जिन मृणाल जी ने यह बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी, उन्हें छोड़कर जाना सबसे कठिन था मगर मित्र आलोक मेहता से पुराने और घरेलू संबंध थे।
वही मुझे इस संस्थान में लाए थे।फिर दैनिक में फिर से काम करने का अपना आकर्षण भी था।मृणाल जी ने स्वाभाविक ही बुरा माना। दुखद संयोग की मृणाल जी भी उसके बाद वहाँ ज्यादा समय तक नहीं रहीं मगर उन्हें नई-नई जिम्मेदारियां मिलती गईंं और अभी भी वह हेरल्ड समूह में हैं।उन्होंने जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता मुझे दी थीं,उसके लिए मैं हमेशा आभारी रहूँगा। आखिरी दिन सब मुझे नीचे तक छोड़ने आए,सिवाय एक को छोड़कर, जिन्हें मैंने पुराने स्टाफ में योग्य मानकर सबसे अधिक आगे बढ़ाया था।वह उस समय भावी संपादक से अपनी निष्ठा जताने के लिए उनके पास आकर बैठ गए थे और उनकी पीठ मेरी तरफ थी।