ब्रजेश राजपूत
ये भी गजब संयोग सा है कि 25 जून को आपातकाल या इमरजेंसी की सालाना तारीख आती है और उसी तारीख को खंगालने पर मशहूर लेखक जार्ज आँरवेल का जन्मदिन भी पडता है। आपातकाल की बरसी पर आँरवेल की बात क्यों कर रहा हूं ये बाद में बताउंगा मगर पहले ये जान लें कि बीच के पंद्रह महीनों का हटा दें तो लगातार सत्ररह साल से बीजेपी शासित राज्य में रहने पर आपातकाल क्या, क्यों, कैसे आया इसकी पक्की जानकारी मध्यप्रदेश की जनता को हो गयी है। इन दिनों भोपाल के बीजेपी दफतर में आपातकाल को लेकर प्रदर्शनी लगी है जिसमें आपातकाल के दौर में आज की बीजेपी और तब की जनसंघ के नेताओं को कैसे और कहां कहां से गिरफतार किया गया था इसे बताया गया है।
प्रदर्शनी में एक फोटो 17 साल की उमर वाले अबोध बालक शिवराज सिंह चौहान का भी लगा है जिन्होंने भी आपातकाल में जेल की सजा काटी थी। आपातकाल के दौर को आज पैंतालीस साल हो गये हैं। लोग भले हीशिकायत करें कि 45 साल पुराने गडे मुर्दे उखाडने से आखिर लाभ क्या है। मगर इतिहास हमें सिखाता है कि पुरानी घटनाओं से कैसे सतर्क रहें और पुरानी हुयी भूलों को नहीं दोहरायें। दरअसल राजनीति भले ही लोकतंत्र के नाम पर जनता की, की जाये मगर उसमें अधिनायकवाद का तत्व आ ही जाता है। यहि अधिनायकवाद 1975 में आ गया था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता जाती दिखी तो आपातकाल लगा दिया गया। सरकारी मनमर्जियां चलने लगीं। विरोधी जेल भेजे जाने लगे। सरकार विरोधी आवाज को दबाया जाने लगा। खैर आपातकाल का अंत भी हुआ। इक्कीस महीने बाद जब सरकार ने फील गुड में आकर चुनाव कराये तो मुंह की खानी पडी और आपातकाल का अंत हुआ।
लंबे समय तक राज करने के बाद अधिनायकवाद आ ही जाता है इस कमजोरी से कोई बच नहीं सकता। देश विदेश और प्रदेश की सरकारों में इसकी झलक दिखती है। इसी अधिनायकवाद को लेकर जार्ज आँरवेल ने 1949 में 1984 नाम का उपन्यास लिखा। ये कालजयी उपन्यास है। जिसकी गिनती दुनिया के बेहतरीन उपन्यासों में होती है। जार्ज आँरवेल बिहार के मोतिहारी में 25 जून 1903 में जन्मे थे। उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य में नौकरी की मगर लिखने की बैचेनी और शासन तंत्र की जनता पर होने वाली ज्यादतियों ने उनको बैचेन कर दिया जिसका नतीजा था नौकरी छोडकर लेखन और अंग्रेजी के दो बेहद चर्चित उपन्यास “एनिमल फार्म” और “1984 “ जिन्होंने आज तक अपनी धाक जमा रखी है।
एनिमल फार्म में जानवरों का रूपक लेकर शासन तंत्र में वीआईपी कल्चर को सामने लाने वाला इतना बेहतर उपन्यास है कि लगता है कि आज कल की ही बात हो रही है। ठीक वैसा ही उपन्यास 1984 है जिसके लिये आँरवेल को आज तक याद रखा जाता है। 1984 आज से तकरीबन सत्तर साल पहले लिखा गया मगर उसमें जनता को जिस तरह से शासन तंत्र अपने कब्जे में रखता है वो कल्पना आज साकार होती दिखती है। उपन्यास में बिग ब्रदर इज वाचिंग यू के नाम पर सरकार नागरिकों को नियंत्रण में रखती है। जनता के घरों में सरकारी टीवी की मदद से उनके रहन सहन तक पर निगरानी होती है। सरकारी टीवी सुबह जगाकर कसरत कराता है तो वही टीवी बाजारों में जनता पर नजर रखता है। कोई किसी से प्यार की बात नहीं कर सकता। बातें होगी तो सिर्फ देष पर राज करने वाली पार्टी और बिग ब्रदर की तारीफ की। घर में पति पत्नी भी जो भी करते हैं तो पार्टी के लिये ही करते हैं। शारीरिक संसर्ग भी सिर्फ संतान पैदा करने के लिये होता है।
माहौल ऐसा रहता है कि पति पत्नी और बच्चे सब एक दूसरे पर नजर रखते हैं और जासूसी करते हैं। विचार पुलिस तैनात रहती है जो जनता के विचारों पर नजर रखती है। कोई कुछ पार्टी और बिग ब्रदर के बारे में गलत तो नहीं सोच रहा, सवाल तो नहीं कर रहा। जो ऐसा करता है उसे यातना ग्रहों में भेजकर उनके दिमाग के जाले साफ कर फिर उसे उनके बीच ही भेजा जाता है उन पर नजर रखने जो उस जैसा सोचते हैं ताकि उनको भी पकडा जा सके। इस काल्पनिक शासन तंत्र के मंत्रालय पर तीन मंत्र लिखे रहते थे युद्व ही शांति है, स्वतंत्रता ही दासता है, अज्ञान ही शक्ति है। बिग ब्रदर की उपस्थिति हर जगह रहती है सिक्कों में चौराहों पर अखबारों में मीडिया में पोस्टरों में सडकों पर घरों में हर जगह बिग ब्रदर रहते हैं ओर अहसास कराते हैं कि वो आप को देख रहे हैं। बिग ब्रदर शासन अपने लिये नहीं देश की उस बहुसंख्यक जनता के लिये कर रहे हैं जो कमजोर है अपनी रक्षा नहीं कर पाती वो रात दिन काम उस जनता के लिये कर रहे हैं जो गरीब है भोली है भूखी है।
हर पन्ने पर दिमाग को झनझना देने वाला ये उपन्यास वैसे तो कम्युनिस्ट देशों में होने वाली शासन प्रक्रिया पर चोट करते हुये लिखा गया था मगर शासन तंत्र का ये तरीका आज भी किसी ना किसी नये रूप में मौजूद है। लेखक अपनी भाषा और कथ्य में बडा नहीं होता वो बडा होता है अपनी दृष्टि और सोच में। सत्तर साल पहले ऐसे उपन्यास की कल्पना करना और उसे गढना आँरवेल की प्रखर बुद्विमता को दर्शाती है। हमारे देश के शीर्ष व्यंग्कार हरिशंकर परसाई को भारत का जार्ज आँरवेल कहा जाता रहा है। मगर बात फिर आपातकाल की करें तो वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने लिखा है कि यदि आपको आपातकाल नहीं चाहिये तो फिर कुछ बोलते रहना बेहद जरूरी है क्योंकि बोलने से वापस आने वाली ध्वनियां चटटानों को चोट कर आती हैं और चटटानों पर चोट होती रहनी चाहिये। इसलिये आपातकाल ओर आँरवेल दोनों को नहीं भूलिये, बोलते रहिये लिखते रहिये।