कमलेश पारे
किसी ने कभी कहा था कि “प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है”। उन्होंने यह बात अपने समय के हिसाब से कही होगी, किन्तु हम लोग अपने समय की जरुरत के मान से इसमें ‘राजनीति’ और जोड़ लें,तो एकदम सही होगा। क्योंकि,राजनीति भी तो अब युद्ध ही हो गई है। इसमें भी दांव पर करोड़ों करोड़ रुपये लगे रहते हैं। इसकी जीत के बाद ‘राजपाट’ तो मिलता ही है,लूटपाट का लाईसेंस भी मिल जाता है। इसलिये राजनीति में झूठ,चोरी,डकैती,भ्रम और भ्रष्टाचार आवश्यक ‘सदाचार’ की श्रेणी में आने लगे हैं।
अपने ही स्वर्गीय हरिशंकर परसाई भी तो कह गये हैं कि “रैलियां निकालने वाले और प्रदर्शन करने वाले ये दल चाहते हैं कि भ्रष्टाचार का अधिकार उन्हें मिल जाये। उनका भ्रष्टाचार पवित्र होगा जिससे जनता सुखी हो जायेगी।“ इसलिये खूब भ्रम फैलाया जाता है। इतना भ्रम कि उसकी उड़ी धूल में किसी को कुछ न दिखे। लोग भूल जाते हैं कि जिस पर हम कल भ्रम फैला रहे थे,आज वही हम कर रहे हैं। या,कल तक हम जो कर रहे थे,उसी पर आज भ्रम हम ही फैला रहे हैं।
किसी विज्ञापन का वह सवाल-जवाब सही है कि “आजकल क्या चल रहा है—आजकल पूरे देश में भ्रम चल रहा है” भ्रम के इस स्वर्णिम काल में आजकल एक बात बड़े जोरों से कही जा रही है कि ‘किसी’ ने देश का सब बेच दिया है। जनता के स्वामित्व के सारे कल-कारखाने बिक गये, हवाई अड्डे बिक गए,रेल्वे स्टेशन बिक गये और कुछ बचा ही नहीं।
जो जितना बड़ा नेता है,उतनी ही तेजी और जोर से वह यह बात करता है। शायद उन्हें मालूम है कि जनता के पास इतना वक्त नहीं है कि वह सच का पता करे। ऊपर से जनता को भी अपने ही देश का सच जानने में रुचि नहीं है,तो बाहर की बात करने से क्या फायदा।बात 80 के दशक की शुरुआत की है।
सारी दुनिया में अपने खराब वित्तीय और व्यापारिक प्रबंध के कारण सार्वजनिक क्षेत्र यानी सरकारी नियन्त्रण वाले उपक्रम सरकारों या समाज को अपने कल्याणकारी उद्देश्य पूरा करने में बाधक बन रहे थे। वे बजाय आर्थिक विकास में सहायक होने के, समाज और सरकारों पर भार बन गये थे। अपने तथाकथित कुप्रबंधों,लगातार घाटों व स्वयं के अस्तित्व के लिए सरकार के बजट पर ये निरंतर आश्रित होते जा रहे थे,या हो ही गये थे।
तब इंग्लैण्ड की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने अपने यहाँ इन उपक्रमों में सरकारी हिस्सेदारी को कम करने और इनमें व्यावसायिक ऊर्जा का संचार करने के लिये इनमें लगी सरकारी पूँजी को बाहर निकालकर इनमें निजी पूँजी लाने का निर्णय लिया था।उनका प्रयोग सफल हुआ। उद्यम भी अपनी क्षमता पर चल निकले, और सरकार के पास भी अपनी कल्याणकारी योजनाओं के लिये धन आ गया। यह था ‘विनिवेश’ यानी ‘डिसइन्वेस्टमेन्ट”
थैचर के इस कदम ने सारी दुनिया को प्रभावित किया था। अपने यहाँ भारत में भी ठीक वैसी ही स्थिति थी। तब पहली बार सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश की बात चली थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहाराव और उनके वित्तमंत्री डाक्टर मनमोहनसिंह ने वर्ष 1990-91 में विनिवेश प्रारंभ किया था। तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष डा मोन्टेकसिंह अहलूवालिया कहा करते थे कि इस परिकल्पना पर स्वर्गीय राजीव गाँधी ही काम शुरु कर चुके थे।यानी इस पर अस्सी के दशक से ही बातें चल पड़ी थीं।
यही वह विषय था जिस पर संसद में हुई एक ऐतिहासिक बहस में चंद्रशेखर जी ने नरसिंह राव जी से कहा था कि “हमने आपको चाकू सब्जी काटने दिया था और आपने इससे पेट का आपरेशन कर दिया”। देश की अर्थव्यवस्था पर भार बन चुके,या उसे लगभग लील रहे, सरकारी उपक्रमों में नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह ने निजी पूँजी का प्रवेश कराया था। तब इसी के तहत ऐसे 31 उपक्रम पहली ही खेप में निजी हो गये थे। आज के विपक्ष की भाषा में कहें तो वे ‘बिक’ गये थे।
देश का भुगतान संतुलन सुधारने के उद्देश्य से पहले वर्ष में डाक्टर मनमोहन सिंह ने 2500 करोड़ रुपये प्राप्ति का लक्ष्य रखा था। इसी तरह अगले साल प्राप्ति की राशि का लक्ष्य 3500 करोड़ रुपये रखा गया था। इस तरह नवीन भारत के कभी ‘मन्दिर’ या ‘तीर्थ’ रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में वर्ष 90-91 में निजी पूँजी ने प्रवेश किया था। तब की सरकार को देश की अर्थव्यवस्था सुधारने में इस कदम से उत्साहवर्धक परिणाम मिले थे, इसलिये 27 फरवरी’1993 को वित्त मंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह जी ने घोषणा की थी कि सरकार को अभी तक इससे 9793 करोड़ रुपये प्राप्त हुये हैं।
यदि आप राजनीति में नहीं हैं और सच जानना चाहते हैं तो संसद में मंत्रियों और प्रधानमंत्री के दर्जनों भाषण मिल जायेंगे जो इस बात की पुष्टि करें कि स्वर्गीय राजीव गांधी, नरसिंह राव और डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में विनिवेश प्रारंभ होकर एक राष्ट्रीय नीति बन चुका था। ये मनमोहन सिंह ही थे जिन्होंने तब पहली बार कहा था कि “सरकार का काम व्यापार करना नहीं है”। इन उद्यमों में प्रबंध की त्रुटियों, प्राप्ति के बजाय खर्च अधिक होने व अस्तित्व के लिये सरकारी बजट पर निर्भर रहने पर ही,पूरी मजबूरी में उन्होंने यह भी कहा था कि “पैसे पेड़ पर नहीं लगते”। ये दो वाक्य मुल्क की तक़दीर और तस्वीर बदलने वाले थे।
इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुये जून’96 में तत्कालीन सरकार ने एक ‘विनिवेश आयोग’ का गठन किया था। इस आयोग ने तत्काल 40 उद्यमों से सरकार के बाहर होने की सिफारिश की थी। यही आयोग जब औपचारिक रूप से वित्त मंत्रालय में एक विभाग बना था तब वित्त मंत्री पी.चिदंबरम थे। इस विभाग का नाम है ‘विनिवेश एवं सार्वजनिक सम्पत्ति प्रबंधन’। यह विभाग तभी से लगाकर आज भी कायम है।
ये तथ्य यह बताने के लिये काफी हैं कि “बिक गया, बिक गया, सब कुछ बिक गया” सिर्फ भ्रम की एक धूल है,जो हमारी आंखों में झोंकी जा रही है। इस विषय पर भ्रम की धूल तो फैलाई ही जा रही है,भाषा की सम्पूर्ण दरिद्रता के साथ एक ऐसी प्रक्रिया का मज़ाक बनाया जा रहा है जो गाली देने वालों ने ही शुरु की थी।
यह बात दस्तावेजों में अंकित है कि दिल्ली,मुंबई,हैदराबाद और बंगलौर हवाई अड्डे 2004 से 2006 के बीच निजी हाथों में जा चुके थे। इन सब के स्वामित्व के 74 प्रतिशत अंश निजी कम्पनियों ने खरीद लिये थे। आश्चर्य होता है कि या तो प्रतिपक्ष के पास इतनी सी सामान्य जानकारी भी नहीं है,या राजनीति के ताजा चलन के हिसाब से ये भ्रम फैलाकर ये अगला युद्ध जीतना चाहते हैं। यहाँ मुश्किल तो यह भी है कि जिन्हें सच बोलना है,वे भी राजनीति के औज़ार बने घूम रहे हैं।
‘विनिवेश’ एक राष्ट्रीय नीति है,जो अस्सी के दशक से आज तक चली आ रही है। इस बीच भारत में सभी राजनीतिक दल कभी न कभी सरकार में रह चुके हैं। अपने अपने वक़्त में सबने इसे सिर-माथे लिया था।लेकिन अब यह ‘पाप’ है। जिन सार्वजनिक उद्यमों को विनिवेश के अन्तर्गत लाने का लक्ष्य है उनकी 31 मार्च’2019 के दिन कुल संचयी हानियां 1,40,307.55 करोड़ रुपए थी। यानी इतने रुपये गड्डे में हैं।
इतने रुपये का तो कई विभागों का बजट नहीं होता। विनिवेश की प्रक्रिया की सारी अधिकृत जानकारी ‘सार्वजनिक सूचना पटल’(पब्लिक डोमेन) पर सबके लिये उपलब्ध है । लेकिन झूठ ही फैलाना है तो कोई क्या करे।