सुबोध होलकर
जहाँ मालवा का पठार उतरता हुआ ख़त्म-सा होता है, और जहाँ से निमाड़ का विस्तार शुरू होता है, इस बड़ी लम्बी रेंज में कई बहुत ख़ूबसूरत दृश्य बनते हैं। कई छोटी-मोटी पहाड़ियाँ, गहरी खाइयाँ, नदियाँ, झरने, घने जंगल और जंगली जानवर और छिटके हुए गाँव…खेत।
लगभग पैंतीस साल पहले ऐसे ही एक छोर पर बसे गाँव चिखली में, मैं एक रात रुका था। चिखली में मेरे दोस्त के मामू रहा करते थे। गाँव से कोस-दो कोस दूर उनका खेत-खलिहान था। शाम पड़े खेत से बैलगाड़ी में बैठकर हम लोग गाँव की जानिब लौट रहे थे। मेरे आग्रह पर कि थोड़ा जंगल घूमते हुए गाँव चलते हैं, बैलगाड़ी जंगल की तरफ़ मुड़ गई। शांत सुरम्य और घना जंगल था, जंगल की बू-बास थी, बीच-बीच में विचित्र-सी आवाज़ें भी आ जाती थीं। गाड़ी में हम चार लोग थे; मैं, मेरा दोस्त, मामू और मामू का नौकर। रास्ते में जाने कहाँ से डर भी आकर बैठ गया था गाड़ी में, ठीक मुझसे लगकर। अंधेरा घिर आया था। कृष्ण पक्ष था। बैल थोड़ा तेज़ चलने लगे थे कि अचानक एक बैल बैठ गया। मामू फुसफुसाए-जानवर है-जानवर है! नौकर ने बैल को उठाने की बहुत कोशिश की, बैल टस से मस न हुआ। कोई बड़ा जानवर है-नौकर ने कहा। जो डर मेरे पास बैठा था, मैं उससे चिपट गया। मामू ने टॉर्च निकाली। सबकी निगाहें रोशनी की सीध में हो गईं। रोशनी का भी एक डंडा होता है। पहली बार मैंने टॉर्च की एहमियत को जाना। इधर-उधर होती हुई टॉर्च की डंडी गाड़ी-गडार की बाजू में ज़रा नीचे खोदरे में उतरी, जहाँ खूब सारे थुअर उगे थे। लगभग सौ-सवा सौ फीट की दूरी पर एक बड़े से पेड़ की आड़ से एक गर्दन बाहर निकली ! दो सुर्ख़ लाल चमकती आँखें !! मामू बुदबुदाए-तेंदुआ है। उसके पीछे से दो और चमकती आँखें ओट से बाहर निकलीं। जोड़ा है- कहते हुए नौकर ने गाड़ी से नीचे छलाँग लगाई और पिरानी से बेल को उठाने लगा, मालवी में गालियाँ बकते हुए। जैसे ही बैल उठा नौकर फुर्ती से गाड़ी में चढ़ा और दोनों बैल घर की तरफ दौड़ पड़े। थोड़ी देर चुप्पी रही फिर मामू हँसते-हँसते कहने लगे-स्साले बड़ी दूर से सूँघ लेते हैं, अब ये घर तक नहीं रुकेंगे और रास्ते भर पोटे करते रहेंगे। हुआ भी यही। मैंने पहली बार बैलों को इस क़दर हाँफते हुए सुना। दूसरी बार नर्मदा में सुना था। एक बड़ी-सी नाव में बैलगाड़ी चढ़ा दी गई थी और बैलों को नाव से बांध दिया था। बहुत चौड़ा पाट था, बहाव तेज़। पार उतरने में बड़ी देर लगी, तैरते हुए बैल बुरी तरह हाँफ गए थे।
ख़ैर, इस वाक़ए के कुछ दिनों बाद एक नालायक दोस्त के साथ जंगल जाने का प्रोग्रॅम बना। मैं चूंकि आए दिनों जंगल जाया करता था। लगभग पचासेक छोटे-मोटे वॉटर फॉल्स मैंने ढूँढ निकाले थे। मन करता उधर चला जाता। उन दिनों फोन-वोन तो होते नहीं थे, बस इंतज़ार होता था और कोफ़्त होती थी। सुबह दो घंटे इंतज़ार करने के बाद जब वो पाजी नहीं आया, मैं अकेला ही निकल पड़ा और सीधे बामनिया कुंड जा लगा। उन दिनों बामनिया का सीधा रास्ता नहीं था, नखेरी से उतर कर, दो नाले क्रॉस करके बामनिया और मेहंदी कुंड पहुँचा जा सकता था। उस पूरे इलाक़े में जहाँ तक नज़र जाती थी मेरे अलावा कोई नहीं था। सुंदर-सी आरामदेह जगह देख, मैं वहाँ बैठ गया। बहोत ही मनमोहक दृश्य था। ऐसी जगह पर मैं हमेशा ध्यान करता हूँ। यहाँ करता हूँ कहना ग़लत है। विषयांतर हो जाएगा, ध्यान के बारे में फिर कभी बात करता हूँ। तो वहाँ पर काहे का ध्यान-व्यान ! ज़रा पत्ता खड़का, लगा तेंदुआ आया ! सोचा पानी पीने तो यहीं आता होगा। फिर मुझे जगह-जगह तेंदुआ दिखाई देने लगा..पेड़ की आड़ से निकलता हुआ। मैंने दिल को बहुत समझाया-अरे दिन में भरी दोपहर में थोड़े ही निकलते हैं तेंदुए बाहर। लेकिन तेंदुआ था कि मानता नहीं था, कहीं भी दिखाई दे जाता था। वो भी जोड़े में ! ओशो की एक किताब का नाम है-द साउंड ऑफ रनिंग वॉटर। कितना ख़ूबसूरत शीर्षक है ! लेकिन उससे भी कहीं हसीन होती है बहते पानी की आवाज़ ! बहते पानी की आवाज़ हमें बहा ले जाती है अपने साथ, हम फिर वहाँ नहीं रहते जहाँ हम होते हैं। लेकिन मुझे तो उसमें भी गुर्राने की आवाज़ आ रही थी। डर के आगे जीत के लिए मैं थोड़ा और नीचे उतर गया। तेंदुआ कहीं बाहर नहीं था… भीतर था !
भारी मन से मैंने सोचा, जब कहीं चैन से बैठ नहीं पा रहे हैं, तो लौटना ही बेहतर। ठानकर लौटा कि आइंदा ऐसी जगहों पर अकेले नहीं जाना भइईया!