धर्मेंद्र पैगवार
जिस दिन से किसानों का आंदोलन दिल्ली में शुरू हुआ उसी दिन से इसके पीछे किसी देश विरोधी ताकत की साज़िश नजर आ रही थी। गणतंत्र दिवस के दिन जो कुछ हुआ जिसने इन आशंकाओं की पूरी तरह पुष्टि कर दी। आंदोलन की शुरुआत में किसानों के बीच जेएनयू और कम्युनिस्ट गैंग ने घुसने की पूरी कोशिश की थी। टुकड़े टुकड़े गैंग ने यहां अपने पोस्टर लगाकर आजादी आजादी के नारी तक लगा दिए थे। इस सबके बीच मामला संभालने की बजाय कुछ अति उत्साही राष्ट्रवादियों ने पहले दिन से इस आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ने वाले मैसेज वायरल करना शुरू कर दिए थे। यह एक गंभीर त्रुटि थी जिसकी तरफ जिम्मेदार संगठनों को ध्यान देना था।
अब जब गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली में हंगामा हो चुका है लाल किले की गरिमा धूमिल करने की पूरी कोशिश कर ली गई है तब इस देश के जिम्मेदार लोगों को और खास तौर पर मीडिया को संयम बरतने की जरूरत है। नीले कपड़े पहने धार्मिक साफा बांधे और हाथों में तलवार लिए लोग जो हिंसा कर रहे थे उन्हें अनियंत्रित हो चुके इस देश के मीडिया ने निहंग कहना शुरू कर दिया। यह एक गंभीर गलती है। वास्तविक निहंग ऐसा कर ही नहीं सकते। इस पूरे आंदोलन के पीछे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और इस देश में बैठे कुछ शरारती तत्वों की साजिश रही है।
वह जो चाहते थे उस काम को हमारे ही लोगों ने आसान कर दिया। सिख समाज जोकि 700 सालों से धर्म और देश की रक्षा के लिए बलिदानों की ऐसी श्रंखला दे चुका है जिसका कोई सानी नहीं है। त्याग और देश पर मर मिटने के उदाहरण सिख समाज ने प्रस्तुत किए हैं। गुरु तेग बहादुर से लेकर गुरु गोविंद सिंह जी के बेटों तक के बलिदान की कहानी सुनते वक्त रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस आंदोलन में सिखों को राष्ट्र की मुख्यधारा से तोड़ने और उन पर शक पैदा करने की एक नापाक कोशिश की गई। नीले कपड़े पहने लोग जो निहंग नहीं थे, उन्हें जान बूझकर किसान आंदोलन में भेजा गया। वह निहंग जो दशमेश गुरु की सेना का मुख्य हिस्सा रहे हैं। जिनका पूरा जीवन धार्मिक कार्यों को समर्पित है गुरुद्वारों की देखरेख जिनका मुख्य काम है। उन भोले भाले निहंग को किसने भड़काया किसने उनके रूप में ऐसे लोगों को खड़ा किया जो अचानक उग्र होकर लाल किले की गरिमा को भूल जाए।
सिख कौम इस देश का मुख्य आधार है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत पाकिस्तान और चीन के युद्ध में सिखों के बलिदान और वीरता की अनगिनत कहानियां है। भारतीय सेना की सिख रेजीमेंट के नाम से दुश्मन के दांत खट्टे होते हैं और इसका नाम सुनते ही पहले ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मुझे लगता है कि सीमा पार से इस आंदोलन के जरिए एक बार फिर खालिस्तान मूवमेंट को खड़ा करने की कोशिश की गई है। इस बीच हमारे नादान और अति उत्साही लोगों ने भी किसानों को धर्म में बांटने वाले मैसेज भेजकर देश के दुश्मनों का काम आसान किया है। यह बात देश के राजनेताओं और मीडिया को भी समझनी चाहिए।
क्या कुछ आंदोलनकारियों को आप एक पूरी समाज से जोड़कर देख सकते हैं? आज भी आप सरदार भगत सिंह से लेकर गुरु गोविंद सिंह जी के बलिदान की कहानियां सुनाते हैं तो आपकी हिम्मत कैसे हो जाती है कि आप कुछ मुट्ठी भर भटके हुए लोगों को पूरी सिख कौम से जोड़ दें। इस पूरे मामले में भारत की खुफिया एजेंसियों की भी नाकामी रही है। वे पहले दिन से लेकर 26 जनवरी तक आंदोलन में घुसे देश विरोधी और लोगों के मंसूबे भाप नहीं पाईं। इस देश में सिखों को बहुत सम्मान के साथ दिखा जाता है उन पर बहुत भरोसा भी किया जाता है। आप देखिए कि मध्य प्रदेश जैसे राज्य में जहां सिखों की आबादी बहुत कम है वहां सिख जनप्रतिनिधि शान से चुनाव जीते हैं।
होशंगाबाद लोकसभा क्षेत्र जहां 1% भी सिक्ख धर्म के लोग नहीं हैं। इसके बावजूद सरताज सिंह जैसे अनाम राजनेता तीन बार मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह को भारी मतों से लोकसभा चुनाव हरा देते हैं। मंदसौर से हरदीप सिंह डंग कांग्रेस और भाजपा दोनों से जीत जाते हैं। इस दौरान जाति और धर्म की बात नहीं आती। ऐसा इसलिए कि सिखों के प्रति पूरे देश में न केवल सम्मान है बल्कि भरोसा भी है। किसान आंदोलन के जरिए कुछ लोग इस सम्मान और भरोसे को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे लोग उनकी बातों को हवा देकर आंदोलनकारियों को खालिस्तानी कहकर देश के दुश्मनों की मदद कर रहे हैं। राजनेताओं से लेकर आम जनता और मीडिया को भी इसमें संयम बरतने की जरूरत है।
(लेखक प्रजातंत्र भोपाल के स्थानीय संपादक हैं)