प्रसिद्ध फिल्म लेखक दिलीप गुप्ते की कलम से
अभिनय को अभिनय न मान कर आपसी बातचीत मानने वालों में हमारे सामने बलराज साहनी आ जाते हैं. मोतीलाल के बाद यदि कोई सहज अभिनेता हुआ है तो बलराज साहनी. वे भले ही सिने अभिनेता के तौर पर लोकप्रिय रहे हों लेकिन यह उनका अधूरा परिचय है. उनकी मृत्यु के चालीस साल बाद उनके बेटे परीक्षित ने उन पर किताब लिखी है, नॉन-कन्फॉरमिस्ट. यानी बँधे बँधाए नियमों को न मानने वाला. इस किताब की प्रस्तावना अमिताभ बच्चन ने लिखी है.
परीक्षित का अपने पिता से निकट का वैसा संबंध नहीं रह जैसा आम पिता पुत्र का होता है. जब परीक्षित छह माह के थे तब बलराज और उनकी पहली पत्नी दम्मो यानी दमयंती उन्हें रावलपिंडी में दादी की गोद में छोड कर लंदन चले गए थे. यानी पिता नामक व्यक्ति से परीक्षित का परिचय बहुत बाद में हुआ. वे अपने चाचा भीष्म की गोद में बड़े हुए. जब माता पिता वतन लौटे तो साथ में एक नन्हीं बेटी भी थी. तीनों अंग्रेज़ीयत के नमूने थे. बालक परीक्षित देसी ही बना रहा. माँ का निधन होने के बाद परीक्षित पिता से और दूर हो गए. माँ ने परीक्षित की सगाई बचपन में ही देव आनंद की बड़ी बहन की बेटी से तय कर दी थी. माँ की मौत से परीक्षित को विशेष अंतर नहीं पड़ा . बलराज ने बाद में संतोष कश्यप से शादी कर ली. परीक्षित लिखते हैं कि वे अपने चाचा भीष्म साहनी के ज्यादा क़रीब थे.
फिर बलराज शांति निकेतन चले गए. वहाँ गुरूदेव ने उनके बेटे का नाम रखा परीक्षित. बांग्ला में पोरिक्खित और पंजाबी में परीक्षत. बाद में बलराज वर्धा चले गए और अख़बार के संपादकीय विभाग में नौकरी करने लगे. बंबई आ कर वे चेतन आनंद की टोली में शामिल हो गए. वहाँ से इप्टा से जुड़ गए और बस्तियों में जा कर नाटक खेलने लगे. बलराज मज़दूरों के बीच उठने बैठने लगे. उनके साथ देशी पीने लगे. परीक्षित ने लिखा है कि एक पार्टी में बलराज वेटर के साथ गप्पें लड़ाने लगे थे. हाथ से खाना खाने लगे और पी कर आउट हो गए थे. वे लीक पर चलने वालों में से नहीं थे. पुस्तक पढ़ते समय कभी कभी लगता है कि यह बलराज के बारे में कम और परीक्षित के बारे में ज्यादा है.
फिल्म ‘पवित्र पापी’ के सेट पर बलराज ने उन्हें बुरी तरह डाँट पिलाई थी. फिल्म ‘ऊधम सिंह’ के एक दृश्य में परीक्षित को उनके मुँह पर थूकना था. परीक्षित के लिये यह असंभव था. लेकिन बलराज ने उन्हें मजबूर किया. रिटेक पर रिटेक करवाए. इप्टा के नाटक खेलने के लिए वे साथियों के साथ तीसरे दर्जे में सफ़र करते थे. उनकी पहली फिल्म थी ‘हलचल’ जिसकी शूटिंग के लिये वे पुलिस के पहरे में हथकडी पहन कर आते थे. वे राजनीतिक क़ैदी थे. ‘सीमा’ फिल्म में उन्हें नूतन जैसी सुंदर अभिनेत्री के साथ देख नूतन के एक प्रशंसक ने उन्हें काफ़ी बुरा कहा. ‘दो बीघा ज़मीन’ में शंभू की भूमिका पहले अशोक कुमार करने वाले थे. जब उन्होंने यह फिल्म देखी तो कहा कि वे इतना सजीव अभिनय नहीं कर पाते. भूमिका में जान डालने के लिये बलराज ने कलकत्ता की सड़कों पर नंगे पैर रिक्शा चलाया. गर्म डामर से उनके पैर झुलस गए और उनमें फ़फोले पड़ गए.
बलराज को लिखने का भी शौक़ था. वे गुरूमुखी लिपि में लिखते थे. इसके लिये उन्होंने टाइपरायटर पर विशेष की बोर्ड लगवाया. शूटिंग के समय वे उसे साथ ले जाते थे. उनकी किताबें पंजाब विश्वविद्यालय के सिलेबस में थीं. उन्हें लेडीज़ मैन कहा जाता था. परीक्षित अपने पिता के बारे में और भी लिख सकते थे. इसकी जगह उन्होंने दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर और अमिताभ बच्चन के बारे में लिखा. उन्होंने संजीव कुमार, नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी को अपने पिता की अभिनय परंपरा के अगले प्रतिनिधि कहा.