प्रखर वाणी
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एक सरकार दे रही महंगाई की मार…एक सरकार दे रही टैक्स भरमार…एक सरकार दे रही युवा बेरोजगार…जनता हो रही बेबस – लाचार…क्या कसूर है हमारा सरकार…मत देकर हमने किया परोपकार…विकास के नाम पर करों का उपहार…बन्द होता नहीं तुमसे भ्रष्टाचार…दफ्तर के कोने कोने में छोटे बाबू , बड़े बाबू हर कोई बेकाबू…चपरासी को देखो तो वो हाथ ठोककर तंबाखू चाबू…
हर काम का दाम बिना दाम हर काम बेकाम…कुछ कह दो तो हो जाता है अफसर बदनाम…घोटालों का भंडाफोड़ तो होता है परन्तु बस अखबारों की सुर्खियों तक…कोर्ट तक मसला जाते जाते ठंडा बस्ता किसी को नहीं कोई शक…लचीले कानून की बारीकियों का लाभ लेने में माहिर बच निकलते हैं…बाहर आते ही फिर वो जनता को खर्चा वसूली हेतु तलते हैं…ये दस्तूर बदस्तूर जारी है…बदनामी का ख़ौफ़ नहीं ये हो गई महामारी है…इधर थोपे गए करारोपण से त्रस्त नागरिक अपनी मध्यम कमाई को दे रहे हैं…
बदले में वो सुविधा नहीं सुविधाओं का आश्वासन ले रहे हैं…विकास कार्यों की लंबी अवधि योजनाओं को बदलने का कारक होती है…कार्य पूरा होते होते पद , प्रतिष्ठा और व्यवस्था ही बदल जाती है…सरकारों के नजरिये में नई घोड़ी नया दाम…जो आता है वो करता है अपने नियंत्रण का काम…ठेकेदार अपने , योजना अपनी , कमीशन अपना…शुरू हो जाता है फिर एक नया सपना…जनता ही पुरानी रहती है बाकी तो नेता भी बदल जाते हैं…चुन चुनकर जो आते हैं फिर पांच साल वो ही जन को रुलाते हैं…इतने वर्षों में तरक्की तो खूब हुई विकास भी हुआ…
मगर जितनी राशि का विकास हुआ उसी अनुपात में जेबों में मुद्रा खनकने का आभास हुआ…बढ़ते करों के बोझ से जीना दूभर और मरना जी भर हो गया…पंचसितारा स्थान में बैठकर नीतियां बनाने वालों पर हमारा भविष्य निर्भर हो गया…कभी गरीब से गरीब के साथ मध्यमवर्ग का भी ख्याल रखा करो जनाब…तुम भी क्या आतंक मचाते लोगों की तरह मुँह पर ओढ़ लेते हो नकाब…हम भी जीना चाहते हैं ईश्वर द्वारा प्रदत्त जिंदगी को सुकून से बिताना चाहते हैं…
जेब पर बढ़ते बोझ से दुखी होकर पलायन की सोच रखने वाले अब यहां से जाना चाहते हैं…सुविधा भी जब दुविधा बन जाती है तो चारों तरफ खौफ का मंजर होता है…इंसान अच्छे काम से व्यय की प्रतिपूर्ति नहीं कर पाता तो फिर वो कंजर होता है…राजा जब रंक को बिच्छू की तरह डंक मारना छोड़ दे तो वो दयावान होता है…सीमा से अधिक लगान वसूलने वाला राज्य शने: शने: मरघट या श्मशान होता है…जैसे तैसे लोग आजीविका के संघर्ष से कोरोना की मार झेलकर बाहर आये हैं…अब जब गाड़ी पटरी पर आने की कगार पर थी कि करों के अंबार लगाए हैं…
माना कि नीचे से ऊपर तक हर सरकार कंगाल है…कार्य हेतु कर्ज और कर्ज के ब्याज की पूर्ति हेतु भी लिया जा रहा माल है…सरकार का आर्थिक तंत्र सबको पता है कि हो गया बेहाल है…मगर इस पूंजीवादी हमले हेतु टैक्स ही क्यों बनता ढाल है…सरकारी खर्च कम करो , रिश्वतखोरी बन्द करो , फिजूल के आश्वासन चंद करो…ऊपर वाला भी मजलूमों की बद्दुआ पर तुमको सजा देगा कम से कम भगवान से तो डरो…सत्ता चलाना , जनता की सेवा करना , सरल भाषा में यही सरकार है…
मगर आजकल की सोच ही ऐसी हो गई कि हर किसी की जुबान पर आ गया कि राजनीति एक व्यापार है…व्यापार में लाभ-हानि होता है गैर व्यापार में आय-व्यय…कहीं धीरे धीरे समाज सेवा में व्यापारिक दृष्टिकोण नहीं आ जाए यही है हमको भय…हर काम को अब दौलत की तराजू में तोला जाने लगा है…नोटों की शैया पर लेटकर मुद्रा के लालच में तो मुर्दा भी जगा है…संस्था बड़ी होती है तो कार्य की सुगमता हेतु संस्था का विस्तार होता है…
नगर निगम के दायरे में वृद्धि का मतलब क्या हर झोन में जनता पर उपकार होता है…यहां उपकार के मायने बदल रहे हैं…उपकार भी अब उपकर हो रहे है…कर तक तो ठीक था अब उपकर भी लोग भर रहे हैं…किसी दिन ये कर बोझ सम्पत्ति न बिकवा दे इससे लोग डर रहे हैं…छोटी छोटी आय वाले लोगों ने बैंक लोन सुविधा के बाद किश्तों पर अपने घर का सपना पूरा किया है…किश्तें चुकाते चुकाते अन्य भार आ जाये तो ये उनके साथ शासन ने बहुत बुरा किया है…
किश्तों के मायाजाल में उलझकर सुख प्राप्ति की चाहत घातक है…जब बीच में ऐसे में भारी भरकम कर आ जाएं तो चकोर भी बन जाता सुख को चाँद पर निहारता चातक है…एक सामान्य परिवार की आय व्यय का बजट अब सदन पर प्रस्तुत बजट पर भारी पड़ गया है…आम नागरिक अब शहरों के आकर्षण से युक्त मायाजाल में आकर जकड़ गया है…समय बताएगा कि करों से प्राप्त आय जनता का भला करेगी या नहीं…नीतियों के प्रभाव का आकलन कालांतर में होता है सही सही…वक्त के साथ लोग नियन्ता की तारीफ या निंदा का मानस बनाता है…अच्छे प्रभाव पर प्रशंसा और बुरे पर बुराई को जताता है ।