मुहावरे कुछ कह रहे

Shivani Rathore
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कुछ भी कितना भी करलो
स्वयं को नही कर सकते सिद्ध
घर का जोगी जोगड़ा होता है
और अन्य गांव का होता है सिद्ध

दूर के ढोल सुहाने लगते है
ये मेरी नही हम सभी की बात है
सच कहता हूँ मानो मेरी बात है
घर की मुर्गी होती दाल भात है

घर छोड़ दर दर भटकते रहे
न घर के न घाट के रहे
चिड़िया चुग गई खेत
सोए रहे थे ,सोते ही रहे

कभी न समझे वो हमें असल
हम जैसे दालभात में हो मूसल
किसे ठहराते हम कसूरवार
किये की काटते रहे हम फसल

आम खाने की बड़ी इच्छा थी
पर बो रखे थे हमने बबूल
चोर की दाढ़ी में देख कर तिनका
कैसे कर लेते हम गुनाह कबूल

चाहे जो हो जाये करके रहूंगा मैं
दूध का दूध ,पानी का पानी
नही भरने दूंगा किसी को मैं
नई बोतल में शराब पुरानी

मैं जो कह रहा हूँ वैसा करो
पड़ेगा वरना मुँह की खानी
मत लाना नो मन तेल
फिर कैसे नाचेगी राधारानी

तेरी बात का भरोसा क्या
हाथ कंगन को आरसी क्या
चल लिख कर बता मेरे जैसा
पढे लिखे को फ़ारसी क्या

चले गांव को न्यौता देने
जेब मे फूटी कौड़ी नही
जो जीवन भर यही करता रहा
चमड़ी जाए पर दमड़ी नही

सावन के अंधे को दिखे हरा
चादर जितनी है उतने पाव पसार
दुसरो को देख बराबरी मत कर
सब्र का फल मीठा होता है यार ।

धैर्यशील येवले, इंदौर