मैं कहता आंखन देखी

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संत-महात्माओं द्वारा हमेशा से यही कहा जा रहा है अपने भीतर की आध्यात्मिक सिद्धियां जगाना है…. ईश्वर को पाना है, तो ब्रह्मचर्य के साथ (स्त्री के बिना) जीने का अभ्यास करो…स्त्री से दूर रहो…उसका संसर्ग तो दूर, उसकी परछाई से भी फासला रखकर चलो…सामने से यदि कलावती-लीलावती आ रही है…तो सिर नीचे करके निकलो…कहीं जाओ तो कसकर लंगोट बांधकर निकलो…वरना ब्रह्मचर्य भंग हो सकता है…इन्होंने जैसे ब्रह्मचर्य को जाना ही नहीं…इनके अनुसार ब्रह्मचर्य के मार्ग में कोई सबसे बड़ी बाधा है तो स्त्री है… स्त्री नरक का द्वार है… इन्होंने ब्रह्म को जैसे लगोंट में अटका दिया…।

ब्रह्मचर्य दो शब्दों से मिलकर बना है…ब्रह्म+चर्य….ब्रह्म का अर्थ है ब्रह्म और चर्य का अर्थ है विचरना…ब्रह्म में विचरना…ब्रह्म के साथ जीना…उसके ही स्वध्याय में रहना…ऊर्जा के उर्ध्वगमन का अभ्यास करना…निश्चित रूप से जिसने भी, स्त्री को नरक का द्वार कहा होगा, वह विच्छिप्त रहा होगा…क्योंकि स्त्री से कैसे भी मुक्त नहीं हुआ जा सकता है… स्त्री के बिना के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना भी नहीं हो सकती…इसका मतलब यही है कि, ब्रह्मचर्य के मार्ग में स्त्री नहीं, तुम्हारा चित्त सबसे बड़ी बाधा है…तुम्हारे दिमाग में गलत ढंग से अनादि काल से यह भरा जा रहा है कि, स्त्री तुम्हारी बाधा है…ब्रह्मचर्य में रोड़ा है…जबकि सच तो यह कि स्त्री तो तुम्हारे प्रारब्ध ही सहायक और सहयोगी रही है…तुम जब स्त्री के साथ इस तरह से रहते हो, विचरते हो कि तुम ब्रह्म के साथ रह रहे हो…तो स्त्री तुम्हारी उद्धारक बन जाती है…वो ब्रह्मचर्य कैसा, जो स्त्री से डरता हो…? स्त्री से दूर भागता हो…? स्त्री से भागना कायरता है…नपुसंकता है…क्योंकि तुम्हारी धमनियों में एक स्त्री (मां) का रक्त बह रहा है…तुम्हारे शरीर की मांस-मज्जाएं उसके ही रक्त से निर्मित हैं…ब्रह्म में रमना और विचरना है, तो उसे धारण करो…स्त्री को नकारा नहीं जा सकता…उसमें ब्रह्म को देखना ही तो ब्रह्मचर्य है…जब उसके संग ब्रह्म का अनुभव होने लगे…समझ लेना ब्रह्म की चर्या में तुम उतरने लगे हो…स्त्री नरक का द्वार नहीं, वह तुम्हारे आचरण की कसौटी है… उसकी धारणा में ही तुम्हारी उत्पत्ति निहित है…वह तुम्हारी मुक्ति की निष्पति है…।-महेश दीक्षित