नई शिक्षा नीति और सामाजिक सोच में कितना तालमेल है ?

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अजय बोकिल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में कहा कि ये शिक्षा नीति सभी के परामर्श से तैयार की गई है। यह कोई सर्कुलर नहीं बल्कि महायज्ञ है, जो नए देश की नींव रखेगा और एक नई सदी तैयार करेगा। प्रधानमंत्री का यह भाषण उनके संवाद कौशल की ही ताजा कड़ी है। असल सवाल यह है कि क्या आजाद भारत की ये तीसरी शिक्षा नीति नई सदी की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगी, दूसरे, हर शिक्षा नीति अपने विजन और आकांक्षा में अच्छी ही थी, लेकिन उसके धरातल पर उतरने में जमीन आसमान का फर्क रहा है। तीसरे, क्या यह शिक्षा नीति भी समूचे समाज की आकांक्षाअो, आग्रहों और सोच को संतुष्ट कर पाएगी, क्योंकि व्यावहािरक जरूरतें कुछ और हैं और शिक्षा नीति अपने ढंग से चीजों को देखती है। नई शिक्षा नीति में एक अहम बिंदु प्राथमिक स्तर पर भारतीय भाषाअों में शिक्षा देना है। यह तो पहले से था, लेकिन बीते तीन दशकों में शिक्षा के निजीकरण और अर्थ व्यवस्था के कारपोरेटीकरण ने भारतीय भाषाअों में शिक्षा के आग्रह को अंगरेजी शिक्षा की जरूरत और जुनून ने लगभग दफन कर दिया है। दरअसल एक तरफ देसी जबान में आरंभिक शिक्षा और दूसरी तरफ शिक्षा का निजीकरण परस्पर विरोधी हैं। नई शिक्षा नीति इस विरोधाभास को तोड़ने का कोई उपाय शायद ही सुझाती है।

इस देश में अंगरेजों के आने के बाद उन्होंने अपनी सत्ता को मजबूत करने तथा पश्चिम में हो रहे वैचारिक, वैज्ञानिक और ज्ञानात्मक बदलाव से भारतीयो को ‍परिचित कराने देश में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा लागू की। देश पारंपरिक गुरूकुलों, पाठशालाअो, मदरसोंं की पुरानी शिक्षा से बाहर निकलकर वैश्विक ज्ञान के क्षितिज से परिचित होने लगा। हालांकि इसी के साथ समाज के एक बड़े शिक्षित वर्ग में यह भावना भी पनपने लगी कि हमारा प्राचीन ज्ञान जो कुछ है, वह सब बेकार है। यह सोच भी गलत थी। ब्रिटिश इंडिया में पहली शिक्षा नीति 1835 में लाॅर्ड मैकाले के समय आई। मैकाले भारतीय पारंपरिक शिक्षा के विरोधी थे और उसे हेय दृष्टि से देखते थे। उस नीति के फलस्वरूप भारतीय समाज का उच्च वर्ग अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने लगा। इसमे दूसरा बड़ा बदलाव 1854 में हुआ, जब शिक्षा का लोकव्यापीकरण शुरू हुआ और सभी ईस्ट इंडिया कंपनी शासित प्रांतों में ‍िशक्षा विभाग की स्थापना की गई। उस समय भी आरंभिक शिक्षा स्थानीय भाषा में और माध्य मिक स्तर से अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती थी। यह सिलसिला लगभग देश आजाद होने तक चला। इस बीच शिक्षा में आमूल बदलाव की एक कोशिश 1937 में कुछ राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनने के बाद की गई थी। लेकिन ये सरकारें ज्यादा नहीं टिकीं।

1947 में देश स्वतंत्र होने के बाद शिक्षा के आधुनिकीकरण, गुणवत्तापूर्ण तथा वैज्ञानिक‍ शिक्षा को बढ़ावा देने के कई उपाय नेहरू युग में किए गए। उसी दौरान भारतीय भाषाअों को बढ़ावा देने और शिक्षा का माध्यम उन्हें ही बनाने की बात भी जोरों से उठी। नेहरू के जमाने में ही 1956 में ‍‍त्रिभाषा फार्मूला भी आया, जिसे मोदी सरकार की शिक्षा नीति में भी शामिल किया गया है। हालांकि यह तब भी स्वैच्छि क था और अब भी स्वैच्छिक है। वैसे नेहरू के जीते जी देश की अधिकृत राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं बन पाई थी। यह काम दौलत सिंह कोठारी आयोग ने 1968 में किया। तब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थी। इस नीति में शिक्षा की ‘मौलिक पुनर्संरचना ‘ की बात कही गई थी। साथ ही क्षे‍त्रीय भाषाअों में शिक्षा पर जोर, हिंदी को बढ़ावा तथा त्रिभाषा फार्मूले को अधिकृत तौर पर मंजूरी दी गई थी। दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय लाई गई। इसमें सभी को शिक्षा के समान अवसरों पर जोर था।

खासकर कमजोर वर्गों तक शिक्षा पहुंचाने पर। देश में मुक्त विवि, ग्रामीण विवि तथा नवोदय‍ विद्यालयों की शुरूआत तभी हुई। इसी नीति में शिक्षा पर बजट का 6 फीसदी खर्च करने की बात भी कही गई। 1992 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव के समय शिक्षा नीति में कुछ ‍परिवर्तन किए गए। प्रोफेशनल और तकनीकी उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश परीक्षाएं अनिवार्य की गईं। इसी दौर में उच्च ‍िशक्षा के निजीकरण की भी ‍शुरूआत हुई। अब जब पीएम मोदी के कार्यकाल में तीसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति आई है, तब शिक्षा के निजीकरण का दायरा बहुत व्यापक हो चुका है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की भूमिका घटती जा रही है और शिक्षा माफिया ही परोक्ष रूप से अलग-अलग स्तर पर शिक्षा को संचालित कर रहा है। प्राथमिक तो क्या प्री-स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक एक समानांतर व्यवस्था चल रही है। ‍शिक्षा की इस दुनिया में सिर्फ पैसे, शोषण और दबंगई का बोलबाला है। इसके खिलाफ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है। हालांकि कुछ निजी शिक्षा संस्थान अच्छा काम भी कर रहे हैं। नई ‍शिक्षा नीति में ‘ए’ ग्रेड उच्च शिक्षा संस्थानों को पूरा फ्री हैंड देने का अर्थ यह है कि वो आर्थिक रूप से भी स्वावलंबी होंगे। इस स्वावलंबन की कीमत लोगों को देनी होगी, जिसमें सर्वाधिक मुश्किल गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों को होनी है।

यूं अब तक आई हर शिक्षा नीति की बातें और उद्देश्य अच्छे ही रहे हैं। लेकिन हमे ध्याेन रखना होगा कि जिसे ‘परिवर्तनकारी’ बताया जा रहा है, वह भी केवल नीति ही है, शिक्षा व्यवस्था नहीं। कहा जा रहा है कि बच्चे को पूर्व माध्यमिक स्तर पर क्रिएटिव ‍पढ़ाई का मौका मिलेगा। हालांकि छठी के बच्चे की क्रिएटिविटी को कैसे समझा जाएगा और इस उम्र का बच्चा खुद अपने भीतर की क्रिएटीविटी को किस रूप में महसूस कर पाएगा, यह जटिल प्रश्न है।

इससे भी महत्वपूर्ण बात छोटी कक्षाअों में मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई की है। यह फैसला सही है, लेकिन क्या वह हमारे सामाजिक सोच से भी मेल खाता है, इस पर भी विचार जरूरी है। अाज अमीर हो या गरीब, हर कोई अपने बच्चे को उस स्कूल में पढ़ाना चाहता है, जो पहली तो क्या केजी से अंग्रेजी में शिक्षा देता हो। कारण यह मान्यता कि अंग्रेजी में शिक्षा ही आज रोजगार, प्रगति और सामाजिक रौब की गारंटी है। हालांकि सभी शिक्षा शास्त्री मानते हैं कि बच्चे को आरंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में देना ही न्याय संगत है। लेकिन हमारा समाज कुछ और सोच रहा है तो इसलिए कि वह जो कुछ होता देख रहा है, वह शिक्षा नीति की सदाशयता से मेल नहीं खाता। लगभग पूरे निजी क्षेत्र और कारपोरेट के काम काज की भाषा मुख्यष रूप से अंग्रेजी ही है। वहां क्षेत्रीय भाषा तो दूर हिंदी की हैसियत भी ज्यादा से ज्यादा माल बेचने की जरूरत के रूप में ही है।

बड़ा विरोधाभास यही है कि एक तरफ सरकार तेजी से हर क्षेत्र का निजीकरण कर रही है तो दूसरी तरफ नई पीढ़ी को मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा की पैरवी भी कर रही है। यह जमीनी सोच है या जनता को भुलावा ? ऐसे में ‍‍िकतने लोग हैं अपने बच्चों को क्षे‍त्रीय भाषाअोंमें पढ़ाना चाहेंगे? इसका यह अर्थ कतई नहीं कि अंग्रेजी पढ़ने से बच्चा ज्ञानी हो जाता है। लेकिन वह उस लाइन में जरूर खड़ा हो जाता है, जहां से ज्ञानी होने का नकली आभामंडल झिलमिलाने का आभास मिलता है।
अगर इस नीति के बहाने सरकार समाज के सोच में ही आमूल बदलाव लाना चाहती है तो वह नामुमकिन-सा है, क्योंकि भारत जैसे देश में शिक्षा का मुख्यम उद्देश्य ज्ञान साधना न होकर किसी तरह रोजगार हासिल करना है। जब भजन-कीर्तन से ही साध्यर हासिल हो रहा हो तो ज्ञानार्जन की क्या जरूरत? हम कोई मौलिक या आधारभूत काम करने में विश्वास नहीं रखते। चीन से भी हम इसलिए मात खा गए, क्योंकि हमारी निजी कंपनियां शोध और अनुसंधान पर कौड़ी भी मुश्किल से खर्च करती हैं। इसी तरह ज्यादातर सरकारी शोध संस्थानों की हालत भी केवल रोजगारदाता संस्थानों की है।

प्रधानमंत्री ने विश्वास जताया है कि नई शिक्षा नीति नए भारत की नींव रखेगी। लेकिन नए भारत की नींव वास्तव में तभी रखाएगी, जब सचमुच ज्ञान और ज्ञानियों का पुरस्कार होगा, उनकी बात को महत्व मिलेगा। तिकड़मियों और मूर्खों की जगह सच्चे विद्वानों की सुनी जाएगी। किसी भी नीति की सफलता तभी है, जब वह व्यावहारिकता की कसौटी पर भी खरी उतरे। केवल सदिच्छा से कुछ नहीं होता। जो बात डराती है, वो यही है कि सदिच्छा और जमीनी हकीकत में कोई तालमेल न तो है और न ही इसे बिठाने का कोई दृढ़ और दूरगामी आग्रह है। हालांकि इस शिक्षा नीति में भी कई अच्छाइयां है, लेकिन कई लोग नीति से ज्यादा नीयत पर शक कर रहे हैं, यह शक निराधार है यह तो नीति को अमली जामा पहनाने के तरीकों से ही पता चलेगा।