कितने बँटवारे और कितने पाकिस्तान बाक़ी हैं अभी ?

Ayushi
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Shravan Garg

श्रवण गर्ग

देश में बंगाल के बाहर बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो इस सच्चाई के बावजूद ममता बनर्जी को जीतता हुआ देखना चाहते हैं कि उनके मन में तृणमूल कांग्रेस की नेत्री के प्रति कई वाजिब कारणों से ज़्यादा सहानुभूति नहीं है। वे ममता की हार केवल इसलिए नहीं चाहते कि नरेंद्र मोदी की जीत उन्हें ज़्यादा असहनीय और आक्रामक लगती है। उनके मन में ऐसी कोई दिक़्क़त केरल और तमिलनाडु को लेकर नहीं है। असम को लेकर भी कोई ज़्यादा परेशानी नहीं हो रही है। इन राज्यों के चुनावी भविष्य पर ‘कोऊ नृपु होय, हमें का हानि’ वाली स्थिति है। सभी की नजरें बंगाल पर हैं।

नाराज़गी ममता और मोदी दोनों से है पर दूसरे के प्रति ज़्यादा है जो पहले के लिए सहानुभूति पैदा रही है। इसका कारण मुख्यमंत्री का ‘एक अकेली महिला’ होना भी हो सकता है। ममता अगर बंगाल में अपनी सत्ता बचा लेती हैं तो उसे उनके प्रति जनता के पूर्ण समर्थन के बजाय मोदी के प्रति बंगाल के हिंदू मतदाताओं में सम्पूर्ण समर्पण का अभाव ही माना जाएगा। कहा भी जा रहा है कि मोदी की जीत के लिए बंगाल के सभी हिंदुओं (आबादी के सत्तर प्रतिशत) के वोट अथवा पड़ने वाले कुल मतों के साठ प्रतिशत से अधिक के शेयर की ज़रूरत होगी। लोक सभा चुनावों (2019) में भाजपा 40.64 प्रतिशत के वोट शेयर तक तो पहुँच गई थी।

बंगाल में ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि एंटी-इनकम्बेंसी तो मौजूदा सरकार के प्रति है पर उसका स्थान वह पार्टी नहीं ले रही है जो ममता के पहले कोई साढ़े तीन दशकों तक राज्य की सत्ता में थी यानी माकपा (और उसके सहयोगी दल)। सवाल यह है कि ममता के ख़िलाफ़ भाजपा के सफल धार्मिक ध्रूवीकरण का मुख्य कारण अगर वर्तमान मुख्यमंत्री की कथित मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियाँ हैं तो क्या राज्य के हिंदू मतदाता घोर नास्तिक माने जाने वाले मार्क्सवादियों की हुकूमत में पूरी तरह से संतुष्ट थे?

क्या मार्क्सवादी ज़्यादा हिंदू परस्त थे और राज्य के मुस्लिमों का उनके प्रति वही नज़रिया था जो भाजपा का है? ऐसा होता तो सत्ता में वापसी की सम्भावनाएँ वामपंथी-कांग्रेस गठबंधन की बनना चाहिए थीं; एक ऐसी पार्टी की क़तई नहीं जो बंगाल की राजनीति में कभी प्रभावी तौर पर मौजूद ही नहीं थी और जिसे दूसरी पार्टियों से उम्मीदवारों की ‘खरीद-फ़रोख़्त’ करके चुनाव लड़ना पड़ रहा हो। बाद में बंगाल के हिंदुओं ने ही मार्क्सवादियों को सत्ता से बाहर रखने में ममता का दस सालों तक साथ दिया। बंगाल के अचानक से दिखने वाले इस चरित्र परिवर्तन, जिसे प्रधानमंत्री ‘आसोल पोरीबोरतन’ बता रहे हैं, के पीछे कोई और बड़ा कारण होना चाहिए।

एक अन्य सवाल यह है कि ममता अगर वापस से सत्ता में आ जाती हैं तो क्या वे अपने विरोधियों के प्रति ज़्यादा सहिष्णु हो जाएँगी? अधिक लोकतांत्रिक बन जाएँगी? अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर ज़्यादा उदार भाव अपनाने लगेंगी? अल्पसंख्यकों को पहले की तरह ही अपने साथ लेकर चलती रहेंगी? शायद नहीं। अंदेशा इस बात का अधिक है कि उनकी वापसी के बाद बंगाल में हिंसा ज़्यादा होने लगेगी, वे अपने सभी तरह के विरोधियों के ख़िलाफ़ प्रतिशोध की भावना से काम करेंगी। प्रतिशोध की राजनीति ही तृणमूल की मूल ताक़त भी रही है।

इसके उलट, अगर भाजपा सत्ता में आ गई तो क्या एक स्वच्छ और ईमानदार सरकार उन लोगों की भागीदारी और नेतृत्व में बंगाल में क़ायम हो सकेगी जो अपने विरुद्ध कथित तौर पर भ्रष्टाचार के आरोपों अथवा अन्य ग़ैर-राजनीतिक कारणों के चलते इतनी बड़ी संख्या में तृणमूल और अन्य दलों से छिटककर उसके साथ जुड़ने को तैयार हो गए? राज्य की तीस प्रतिशत मुस्लिम आबादी, जो पिछले लोक सभा चुनावों के बाद से ही कथित तौर पर ममता को अल्पसंख्यक विरोधी और हिंदू तुष्टिकरण की नीतियों पर चलने वाली मानने लगी थी, क्या भाजपा के शासन में अपने आपको ज़्यादा सुरक्षित महसूस करने लगेगी?

तो क्या यह मानकर चला जाए कि बंगाल की बहुसंख्य जनता किसी अज्ञात समय से किसी ऐसी पार्टी के प्रवेश की चुपचाप प्रतीक्षा कर रही थी जो कि मार्क्सवादियों से भी अलग हो और तृणमूल कांग्रेस भी नहीं हो। बंगाल के मतदाता की नज़रों में ममता की पार्टी कांग्रेस से टूटकर ही बनी थी इसलिए उसे अब किसी भी तरह की कांग्रेस नहीं चाहिए। वर्ष 2015 के प्रारम्भ में दिल्ली विधान सभा के चुनावों में ऐसा ही हुआ था। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू पी ए सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी शीला दीक्षित सरकार को तो ले डूबी पर उसके स्थान पर दिल्ली में दूसरे क्रम पर स्थापित पार्टी भाजपा सत्ता में नहीं आ पाई। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि उसके कुछ महीनों पहले ही मोदी भारी बहुमत के साथ संसद में पहुँचे थे। मोदी का जादू न सिर्फ़ 2015 में ही काम नहीं आया ,2020 में भी नहीं चला।

बंगाल चुनावों को लेकर चिंता का निपटारा केवल इसी बहस पर सिमट नहीं जाना चाहिए कि कुछ लोगों की सहानुभूति मोदी के मुक़ाबले ममता के प्रति ज़्यादा क्यों है या कितनी होना चाहिए। एक दूसरे महत्वपूर्ण कारण पर भी गौर करना ज़रूरी है।सवेंदु अधिकारी इस बार भाजपा के टिकट पर ममता के ख़िलाफ़ नंदीग्राम में चुनाव लड़ रहे हैं। चुनावों के पहले तक वे ममता के नज़दीकी साथियों में एक थे और तृणमूल के टिकट पर ही नंदीग्राम से ही पिछला चुनाव जीते थे। वे उसी इलाक़े के रहने वाले भी हैं। ममता को हराकर भाजपा की सरकार बनने की स्थिति में सवेंदु मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हो सकते है। तृणमूल छोड़कर भाजपा में जाते ही अपने स्वयं के चुनाव क्षेत्र को लेकर उनका नज़रिया सफ़ेद से केसरिया हो गया।

चुनाव आयोग ने आठ मार्च को सवेंदु अधिकारी को उसे प्राप्त एक शिकायत के आधार पर नोटिस जारी किया था। नोटिस के अनुसार, सवेंदु द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र नंदीग्राम में 29 मार्च को दिए भाषण में कथित तौर पर जो कहा गया उसका अनुवादित सार यह हो सकता है :’अगर आप बेगम को वोट दोगे तो एक मिनी पाकिस्तान बन जाएगा। आपके इलाक़े में एक दाऊद इब्राहिम आ गया है।’ चुनाव-परिणामों से उपजने वाली चिंता हक़ीक़त में तो यह होनी चाहिए कि क्या ममता के हार जाने की स्थिति में पहले नंदीग्राम और फिर बंगाल के दूसरे इलाक़ों में मिनी पाकिस्तान चिन्हित किए जाने लगेंगे? बंगाल के और कितने विभाजन होना अभी शेष हैं? और फिर देश का क्या होने वाला है?

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