पुण्यस्मरण: एक आदिविद्रोही सर्वोदयी का स्मरण करते हुए

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 जयराम शुक्ल
आज के दौर में जब सरकारों पर उद्योगपतियों के पालने में झूलने के आरोप लगते हैं, मंत्रियों की क्या कहिये मुख्यमंत्री उनके लिए लाल दरी बिछाए अगवानी के लिए खड़े रहते हैं ऐसे में क्या ऐसे किसी मंत्री की कल्पना कर सकते हैं जो सत्तर के दशक में बिडलाज तक को अपने ठेंगे में रखता रहा हो? नहीं न..। पर मध्यप्रदेश में ऐसे एक औघड़ आदिविद्रोही मंत्री रहे हैं, नाम था चंद्रप्रताप तिवारी, मुकाम सीधी, चुनावी रणक्षेत्र चुरहट। पुरानी पीढी के पत्रकार उन्हें दो वजहों से ज्यादा जानते होंगे, एक-बिडला बाँस रायल्टी कांड, दूसरा-अर्जुन सिंह को चुरहट में ताल ठोककर हराने के लिए।

तिवारी जी होते तो इस 25 दिसंबर को अपने जीवन के 100वाँ जन्मदिन मनाते। उन्होंने आधी उमर राजनीति में उसूलों की लड़ाई लड़ते हुए बिताई और आधी सर्वोदयी झोला टाँगकर जलते हुए पंजाब और असम में घूमते हुए। तिवारी जी से मेरा साबिका यों कहिए उनका सानिध्य मिलना शुरू हुआ 1985 से। उन दिनों मैं देशबंधु से जुड़ चुका था और वह मेरी पत्रकारिता का आरंभिक दौर था।

यूँ तो मैं उन्हें बचपन से ही जानता था क्योंकि परिवार के रिश्ते के बड़े भाई जनार्दन प्रसाद शुक्ल गोवा आंदोलन में उनके प्रमुख साथी थे। वे अन्यों की तरह सादगी का ढ़ोग करने की बजाय उसे जीते थे। उनदिनों वे सीधी से लारी में बैठकर रीवा आते फिर अपनी पुत्री प्रोफेसर उमा परौहा(स्वर्गीय) की की लूना में पीछे बैठकर मेरे दफ्तर। आज क्या कोई कल्पना कर सकता है कि पच्चीस साल विधायक, वो भी नेता प्रतिपक्ष और मंत्री रह चुका कोई राजनीतिक व्यक्ति ऐसी सादगी में रहे। जब से ये पता चला कि इन्हीं महाशय ने बिडला की नाल में बाँस की फांस ठोकी थी तो और ताज्जुब हुआ। बाद में उनको तफ्सील से जाना उनकी ही पुस्तक ..ना समझी के चालीस वर्ष.. पढ़के जिसकी एक प्रति उन्होंने मुझे खुद दी। 1988 में साधारण से कागज में छपी इस पुस्तक की भूमिका प्राख्यात सर्वोदयी ठाकुरदास बंग ने लिखी है। ये पूरी किताब एक तरह से 1942 से लेकर 1982 तक की पाँलटिकल कमेंट्री के साथ तिवारी जी का हलफिया बयान है। इसमें जमीदारों के खिलाफ आक्रोश, भ्रष्ट होती राजनीति, सार्वजनिक जीवन का नैतिक पतन, राजनीति का पूँजी से गठजोड़,और भविष्य की चेतावनियाँ हैं।

डाक्टर लोहिया अक्सर कहते थे कि लोग मेरी बात सुनेंगे मेरे न रहने के बाद। चंद्रप्रताप तिवारी यद्यपि लोहिया के नहीं आचार्य नरेन्द्र देव के अनुयायी थे लेकिन उनके साथ भी यही है, उन्होंने उस जमाने में जो कहा,खादी और मखमल के गँठजोड़ की बात उठाई वो अब चरितार्थ होते दिख रही है। उनका तेवर और तेजस्विता दुर्वासा जैसी थी। रीवा के दरबार कालेज में पढने आए तो यहाँ जगदीश जोशी, यमुना शास्त्री, श्रीनिवास तिवारी जैसे युवातुर्कों का साथ मिला। राजनीति के संस्कार सोशलिस्ट के मिले। छात्र जीवन में ही भारत छोड़ो आंदोलन से जेलयात्रा शुरू की तो वह जमीदारी उन्मूलन से लेकर गोवा मुक्ति आंदोलन तक मुतबातिर चलती रही। सोशलिस्ट पार्टी जब बँटी तो ये और शास्त्रीजी नरेंद्रदेव की अगुआई वाले धड़े में चले गये जो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नाम से जानी गई। यदि पं.शंभूनाथ शुक्ल को विंध्यपप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त है तो नई पीढ़ी को जानना चाहिए उस सदन के नेता प्रतिपक्ष चंद्रप्रताप तिवारी थे।

राजनीति के इतिहासकार सहसा ये विश्वास नहीं करेंगे कि 1952 के पहले चुनाव में जहाँ समूचे देश में पंडित नेहरू के नाम से कांग्रेस का प्रचंड तूफान चल रहा था वहीं सीधी जैसा अति पिछड़ा जिला समाजवादी दल के साथ था। यह तिवारीजी के तेज, प्रताप का असर था जिसके माध्यम से उन्होंने गरीब गुरबों में अन्याय के खिलाफ लड़ने का हौंसला दिया और लामबंद किया। तब उनकी हर मोर्चे पर भिड़ंत उस समय के कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता चुरहट के रावसाहब शिवबहादुर सिंह से थी, जिन्हें 52 के चुनाव में तिवारीजी के सोशलिस्ट साथी जगतबहादुर सिंह ने हराकर देश का ध्यान खींचा। सीधी में
समाजवादियों की ऐसी धाक जमी कि जिले की एक या दो विधानसभा सीटों को छोड़कर सभी सोशलिस्टों के खाते में गई।
यहां तक कि लोकसभा सीट भी। जबकि दूसरी ओर नेहरू के भिश्ती,बाबर्ची भी आसानी से चुने जा रहे थे। सतना से तो नेहरू के घरू चाकर एसडी उपाध्याय दिल्ली से आकर जीते जो बाद में रीवा लोकसभा सीट पर थोप दिए गए।सोशलिस्टों की यह जीत देश के पैमाने पर बड़ी बात थी। भगवान दत्त शास्त्री सीधी के पहले निर्वाचित सांसद हुए। यह उस दौर में हुआ जब रीवा के महाराजा समेत प्रायः इलाकेदार,सामंत और सेठ काँग्रेस के साथ थे और गाँधी-नेहरू भगवान की भाँति भजे जाते थे। जब मध्यप्रदेश बना तब तिवारीजी का दायरा प्रदेशव्यापी हो गया। वे विधानसभा में लगातार प्रसोपा विधायक दल के नेता बने रहे।

इसे नियति का चक्र ही कह सकते हैं कि तिवारीजी का अवसान और अर्जुन सिंह का उत्थान एक साथ हुआ। राजनीति में इन दोनों के बीच की अदावत आज भी याद की जाती है। कई बातों का पता तो ..नासमझी के चालीस वर्ष.. पढके पता चला। मसलन तिवारीजी अर्जुन सिंह से भिड़ंत की कथा स्वयं बयान करते हैं। वे लिखते हैं – “द्वारिका प्रसाद मिश्र जब मुख्यमंत्री बने तो अर्जुन सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल करने की शिफारिश मैंने की थी। वजह नेहरू से अनबन के कारण जब डीपी मिश्र काँग्रेस से अलग हुए तो कुछ समय के लिए वे प्रसोपा में थे। इस संबंध के चलते मेरा मिश्र पर प्रभाव था। मैं अर्जुन सिंह में अपने पिता से अलग भविष्य का होनहार नेता देखता था” वे लिखते हैं कि मंत्री बनने के बाद अर्जुन सिंह के रंग बदल गए, अदावत साफ झलकने लगी। विधानसभा में एक ऐसा मौका आया जब मैंने उन्हें कहीं से भी चुनाव हराने का चैलेंज कर दिया। बस 67 के चुनाव में चुरहट से बदाबदी हो गई। जबकि मेरा क्षेत्र सीधी था।

चुरहट से उस चुनाव में अर्जुन सिंह हार गए। तिवारीजी डीपी मिश्र के मतभेद की शुरूआत की वजह उनका अर्जुन सिंह को उमरिया की सीट खाली कराकर लड़वाना और फिर मंत्री बनाना बताते हैं। “मैंने फिर विधानसभा में डीपी मिश्र को चैलेंज किया कि अब आपको मुख्यमंत्री नहीं रहने देंगे”। परिणाम यह हुआ कि काँग्रेस की बगावत के बाद जब संविद बना तो प्रसोपा जिसके नेता तिवारीजी थे, 9 विधायकों के साथ उससे जा मिले।

लोग बताते हैं कि तिवारीजी के सिरे सचमुच दुर्वासा सवार रहते थे। कब किससे भिड़ जाएं पता नहीं। संविद में गोविंदनारायण सिंह से भिड़ंत हो गई, तिवारी जी ने झटपट संविद के मुकाबले प्रगतिशील विधायक दल (प्रविद) बना लिया। वे लिखते हैं-संविद का पेट फाड़कर निकले प्रविद से सरकार का वही हाल हुआ जैसे केकड़ा के पैदा होने से उसकी माँ का होता है। संविद मर गया। 1968 में समाजवादियों का एक धड़ा राष्ट्रीय स्तर पर अशोक मेहता के नेतृत्व में कांग्रेस में मिल गया। तिवारीजी भी कांग्रेसी हो गए।

बिडला से इनकी तनातनी तब हुई जब ये सेठी के मंत्रिमंडल में वनमंत्री बने। पेपर बनाने के कारखाने ओपीएम के लिए बाँस की रायल्टी को लेकर इन्होंने सवाल उठाए और बिडला को नोटिश दी तो देश भर में हंगामा हो गया। बिडला सरकार के जाहिर कृपापात्र थे या यों कहें कि तत्कालीन नेतृत्व उनसे उपकृत था। वनमंत्री रहते हुए इंदिराजी तक की नहीं सुनी, सेठी से झगड़ा हुआ और फिर वही हुआ जिसके लिए चंद्रप्रताप जाने जाते थे, कांग्रेस से मोहभंग।

सन् 74 में जब जयप्रकाश नारायण कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा तैय्यार कर रहे थे तब तिवारीजी मध्यप्रदेश का योजनामंत्री रहते हुए उनसे मिलने जाने लगे, कुछ बैठकों में हिस्सा भी लिया, हश्र जो होना था वही हुआ, मंत्री पद से हटा दिए गए। इसके बाद फिर वही जेपी, वही बिनोबा, वही सर्वोदय। पंजाब जब जल रहा था तब तिवारीजी एक झोला टाँगे वहां पदयात्रा कर रहे थे। आखिरी समय तक बिनोबा को जिया। उसूलों से समझौता नहीं, टूट गए पर झुके नहीं..इससे आगे भी बहुत कुछ थे चंद्रप्रताप तिवारी। राजनीति में क्या ऐसे और किसी आदिविद्रोही के बारे में सुना है आपने? स्मृति को नमन।