अमित मंडलोई
तस्वीरें देखिए… बाहरी तौर पर लगता ही नहीं है कि ये महाकाल की सवारी है। सिर्फ चुनिंदा पुजारी और पुलिसकर्मी ही नजर आ रहे हैं। ढोल-ढमाकों के साथ भक्ति में डूबे श्रद्धालुओं का रैला नदारद है। जो शामिल हैं वे भी मास्क के पीछे से जयकारे लगा रहे हैं। सवारी मार्ग भी औपचारिक रह गया है। बाबा रामघाट तक गए और लौट आए। जैसे मन समझा दिया गया। बाबा प्रजा के लिए अभी प्राण रक्षा ज्यादा जरूरी है। नगर भ्रमण के लिए तो दशहरे तक अवसर आते रहेंगे। महाकाल ने भी अफसरों के इस आग्रह को जैसे झट मान लिया। जितनी तेजी से गए उतने ही फटाफट लौट भी आए। हालांकि यात्रा कितनी ही छोटी क्यों न हो गई हो, उसका वैभव कम नहीं हो पाया, क्योंकि भस्मभूषित के लिए संसार का सर्वाधिक अल्प भी अनंत हो जाता है।
पिछले सालों में जब बड़े वैभव के साथ सवारी निकलती थी तब भी कोई उस तामझाम का इंतजार करता नहीं पाया जाता था। एक जैसे वस्त्रों में निकलती भजन मंडलियां, प्रात:-सांय आरती के भक्त मंडल, बैंड-बाजे, ढोल-ढमाके सब सूचना देने भर के काम आते थे। वह इतनी कि बाबा चल दिए हैं मंदिर से। बस आने वाले हैं। सड़क के दोनों किनारों से लेकर आसपास के घरों की मंजिलों-चौराहों पर जमी असंख्य निगाहें सिर्फ उस क्षण तकती थी, जब महाकाल उनसे रूबरू होते थे। तब किसी को कहां दिखाई देता होगा कि कौन कैसी वेशभूषा बनाकर निकला है, कैसे डमरू बजा रहा है, कैसे घड़ियाल नचा रहा है।
वे यह सब देखते भी तो सिर्फ इंतजार की अकुलाहट को कम करने के लिए। नजर और मन वही गड़ा होता, जहां से महाकाल आने वाले होते। तब तक वहां लग रहे जयकारों में अपने स्वर भरते, मंडलियों के भजन में अपनी तालियां जोड़ते रहते, मगर यंत्रवत क्योंकि यह कुछ भी अभिष्ट है ही नहीं। उनका मतलब तो सिर्फ उस पल से है, जब पालकी आंखों के सामने होगी। वे किसी पल के बहुत छोटे से टुकड़े में अपने आराध्य को निहारेंगे। चाहे फिर धक्कामुक्की के बीच तस्वीर बहुत धुंधली बने, मगर मन पर एक छवि अंकित हो जाए। बस किसी तरह उनकी कृपा दृष्टि उस पर पड़ जाए। उसी के लिए वह इस इंतजार का मोल चुकाता है।
क्योंकि मन में यही रहता है कि जिस वक्त वह उन्हें निहार रहा होगा, महाकाल भी उसे ही देख रहे होंगे। उसी क्षण में वे भीतर का सबकुछ टटोल लेंगे। मुझे कुछ कहने की जरूरत ही क्यों पड़ेगी उनसे। क्योंकि वे खुद निकले ही इसलिए हैं ताकि मेरे हाल जान सकें। और मैं भी इसलिए ही तो बरसभर इंतजार करता हूं कि कब सावन आए और कब महाकाल मंदिर से बाहर अपने चरण रखें। और भक्ति में डूबे इन क्षणों के लिए किसी वैभव की, तामझाम की, लाव-लश्कर की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
क्योंकि वे खुद तो मृत्यु के देवता है, संसार से आखिर में जाकर कुछ लेते हैं। प्राणों की उस पूंजी को आप जीवन पर्यन्त कैसे भी इस्तेमाल करते रहें। वे संसार को अपने अनुसार बरतने की पूरी आजादी देते हैं। खुद अपने स्वरूप से चेताते जरूर हैं, लेकिन किसी को कोई उपदेश नहीं देते कि तुम भी मेरी तरह सबकुछ त्याग कर के ही जियो। उल्टा मां गौरा को ढेर सारी कथा-वार्ताएं सुनाते हैं, ताकि लोग उन कथाओं के अनुसार आचरण को अंगिकार कर अपनी मनोकामनाएं पूरी कर सकें। व्रत मतलब कोई संकल्प लेकर उसे आचरण में उतारना ही तो है।
कोई अपेक्षा नहीं है, पूजा पद्धतियां, मंत्रोच्चार हमने बना लिए, लेकिन उन्हें किसी तरह के कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है। दूध मिला तो ठीक वरना लोटाभर पानी ही चढ़ा दिया। जो फूल, पत्तियां आसपास ऐसे ही उग आती हैं, वे ही अर्पित कर दें तो ठीक और न करें तो भी ठीक। गाल बजा दिए, जोर से ताली पीट दी। बस बम-बम कर दिया और हो गई आराधना। सूर्यवंशी राम समुद्र तट पर कुछ और न पाकर रेत से ही शिवलिंग बना देते हैं, वे वहीं रामेश्वर हो जाते हैं। वैसे ही जैसे इस बार कम भक्तों के साथ, बेहद सादगी से वे निकले और छोटा सा रास्ता तय कर वापस अपनी जगह पर जा पहुंचे।
और जो भक्त न जा पाए वे फेसबुक, यूटयूब और बाकी तरीकों से उन्हें ऑनलाइन देखकर ही कर्ताथ होते रहे। सुनते हैं सवारी के दौरान ही लगभग डेढ़ लाख भक्त सोशल डिस्टेंसिंग के साथ अपने आराध्य से रूबरू हो चुके। भक्ति का यह भी अलग स्वरूप है, जिसने हमसे कुछ छीना नहीं बल्कि कुछ सिखाया ही है। कोरोना इस बात के लिए अब तुम से कोई शिकायत नहीं।