प्रकाश पर्व/जयराम शुक्ल
फर्ज करिए कि एक ऐसी प्रयोगशाला बना ली जाए जो हवा में तैरते हुए शब्दों को पकड़कर एक कंटेनर में बंद कर दे, फिर भौतिकशास्त्रीय विधि से उसका घनत्वीकरण कर ठोस पदार्थ में बदल दिया जाए तो उसका स्वरूप और उसकी ताकत क्या होगी? सृष्टि का ये नियम है कि न कोई जन्म लेता न कोई मरता सिर्फ़ वह रूपांतरित होता है। इस काल्पनिक सवाल का यथार्थवादी जवाब देते हुए मेरे भौतिकशास्त्री मित्र ने कहा कि ये शब्द ठोस रूप में एटमबम,हाइड्रोजन बम से भी घातक बन जाएगा।
मित्र ने गलत नहीं कहा। जमीन पर बवंडर मचाकर वायुमंडल में रोज इतने नकारात्मक शब्द जाते हैं जो कार्बनडाईऑक्साइड से ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं। वही दूषण हमारे दिमाग में भी घुसता रहता है। संसार की सारी माया शब्दों से ही बुनी हुई है। इसी से प्रेम इसी से घृणा।इसी से मेल इसी से झगड़ा। ज्यादातर आवेशिक अपराधों की जड़ में ये शब्द ही होते हैं।
एक बार किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के संदर्भ में एक केन्द्रीय जेल जाना हुआ। वहां एक बंदी मुग्ध कर देने वाली हारमोनियम बजा रहा था। एक बहुत ही बढ़िया भजन सुना रहा था।
कार्यक्रम के अंत में मैं उन दोनों बंदियों से मिला। जो हारमोनियम बजा रहा था वह इसलिए नहीं गा रहा था क्योंकि उसकी जुबान नहीं थी। गाने वाले के एक हाथ का पंजा कटा था। बात यह उभरके आई कि दोनों ही आदतन अपराधी नहीं थे। आवेश की वजह से हत्या हो गई थी।
जेल अधीक्षक ने बताया कि इसने अपने हाथ से ही अपनी जुबान काट ली क्योंकि वह इसी को अपराध के लिए जिम्मेदार मानता है। जिसका पंजा कटा था उसने उसी हाथ से अपने ही परिवार के एक मासूम का गला दबाकर हत्या कर दी थी क्रोधित परिवार वालों ने उसे पकड़कर वहीं सजा देदी। दोनों झगडे अप्रिय शब्दों से शुरू हुए थे। जिसकी परिणति दो हत्याओं और दो को उम्रकैद के रूप में हुई।
जेलों में बंद नब्बे फीसदी ऐसे कैदी हैं यदि उनकी जिंदगी में वे दो तीन मिनट नहीं आते जिसकी वजह से वे कुछ कह या कर बैठे, तो वे अपराधी नहीं होते।
घर परिवार समाज से लेकर दुनिया भर के झगडों की बुनियाद ये शब्द हैं। हर दंगे शब्दों से ही शुरू होते हैं। भीड़ शब्दों से ही उत्तेजित होकर मरने मारने उतारू हो जाती है। ये शब्दों का ही छलिया सम्मोहन है कि जनता ढोर डंगरों की भाँति ढोंगी बाबाओं का अंधानुकरण करती है। विचारों का संघर्ष भी शब्दों से ही शुरू होता है और उसका अंत विध्वंसक होता है।
अपने देश में भी किसी बेमतलब के मुद्दों को लेकर शाब्दिक धुनाधुन मचा रहता है। तर्क और कुतर्कों की मीसाईलें बरसती रहती हैं,जैसी कि इन दिनों बरस रही हैं। ये शब्द ही दुनिया भर के देशों के बीच तनाव और युद्ध के कारण। ये उस शब्द का नकारात्मक महात्म है जिस शब्द को ब्रह्म कहा जाता है। इसीलिए कबीर बार बार याद दिलाते हैं…साधौ शब्द साधना कीजै।
जिस शब्द से इस सृ्ष्टि का सृजन हुआ। हमारे देश के सभी ऋषि, मुनि,ग्यानी दार्शनिकों ने शब्द की महिमा का बखान किया है। उसके पीछे सुदीर्घ अनुभव और उदाहरण हैं।
भारतीय संस्कृति के दो महाग्रंथ शब्दों की महिमा के चलते रचे गए। यदि सूपनखा का उपहास न होता तो क्या बात राम रावण युद्ध तक पहुँचती? कर्ण को सूतपुत्र और दुर्योधन को अंधे का बेटा न कहा गया होता तो क्या महाभारत रचता? इसीलिये, कबीर, नानक, तुलसी जैसे महान लोगों ने शब्द की सत्ता, इसकी मारक शक्ति को लेकर लगातार चेतावनियाँ दीं।
पूज्य गुरु नानक कितने महान थे, उन्होंने शब्द को न सिर्फ़ ईश आराधना का आधार बनाया बल्कि उसे ईश्वर का दर्जा दिया। शबद क्या है, यही है उनका ईश्वर। गुरूग्रंथ साहिब श्रेष्ठ, हितकर,सर्वकल्याणकारी शब्दों का संचयन है। शब्द की सत्ता से ही एक पूरा पंथ चल निकला। भजनकीर्तन, प्रार्थना, जप सब शब्दों की साधना के उपक्रम हैं।
इसलिए कहा गया …साधौ शब्द साधना कीजै…
शब्दों को लेकर जितना कबीर ने लिखा उतना दुनिया में शायद किसी अन्य ने नहीं। कबीर ने शब्द की महत्ता का निचोड़ ही एक दोहे में बता दिया…..
शब्द संभारे बोलिए शब्द के हाथ न पाँव,
एक शब्द औषधि करे,एक शब्द करे घाव।।
नानक-कबीर के इस संदेश से क्या हम सबक लेंगे?