अनिल त्रिवेदी
अच्छा होना अपने आप अच्छा है या बुरा होने से अच्छे होने का अस्तित्व है।जैसे कभी रात हो ही नहीं तो शायद दिन की पूछताछ में कमी हो जाये।अच्छे लोग बुराई से परहेज़ करते हैं पर बुरे लोग हमेशा अच्छाई को नकारते नहीं पर बुराई को अपनाये रखने से परहेज़ भी नहीं करते, यदि दुनिया में बुराई का नामोनिशान खत्म हो जाय तो क्या अच्छाई अकेलेपन में अहंकार शून्य हो जावेगी!यह भी एक सवाल है।अच्छे बुरे का सवाल केवल व्यक्तियों का ही नहीं विचारों का भी है।हम किसी व्यक्ति ,विचार, व्यवहार ,काम, रीति रिवाज, साधन, संगठन ,समाज ,भाषा, वेशभूषा, बोलचाल, जाति ,गीत संगीत, ध्वनि ,चित्र ,भोजन ,सम्पति, धर्म, देश , संसाधन और तकनीक आदि को अच्छा बुरा मानकर ही क्यों देखते समझते हैं।अच्छे -बुरे से परे निरपेक्ष भाव को मानव समाज ने क्यों नहीं अपनाया।अच्छे की हमारी व्याख्या भी शायद बहुत संकुचित मन से की गई है जो हमें अच्छा लगे वह अच्छा है, भले ही वह सबको अच्छा न भी लगे तो भी हम उसे अच्छा मानते हैं।इसका एक अर्थ यह भी माना जा सकता है अच्छा बुरा हमारी मनमर्जी की बात है।पूर्ण अच्छा और पूर्ण बुरा जैसा कुछ होता नहीं है,सब कुछ प्राय: प्रसंगवश है।
हम शान्त तटस्थ और सहज रूप में आजीवन नहीं रह पाते।हमारा अधिकांश जीवन सुविधा का संतुलन है।सहज रहना भी हमारे लिये तपस्या जैसा है,आजीवन हम किसी न किसी विशेषण के आदि होते जाते हैं।अच्छा और बुरा विशेषणों के दो छोर है।समय काल परिस्थिति हमारे अच्छे बुरे की अवधारणा को बदलती रहती हैं।हमारा अपने आप से अतिशय लगाव भी अच्छे बुरे की हमारी व्याख्या को बदलता रहता है।हमारी दृष्टि सोच समझ सब सापेक्षता से ओतप्रोत होती है।निरपेक्ष बुद्धि न के बराबर है इतनी बड़ी दुनिया की इतनी बड़ी जिन्दगी में।हम अपने आप से इतने ज्यादा गहराई से हर मामले में जुड़े हुए होते हैं कि हम सारी बातों को अपने संदर्भ से ही मानते जानते और समझते समझाते हैं।इसी से अच्छा बुरा व्यक्तिपरक आकलन बन गया है।तभी तो जो हमें अच्छा लगता है जरूरी नहीं की सब को भी अच्छा लगे।किसी को ज्यादा अच्छा लग सकता है किसी को कम और किसी को एकदम अच्छा न लगे।याने अच्छा होने पर भी इस बात की संभावना तो रहती ही है कि अन्य लोग अच्छाई की मात्रा को लेकर भिन्न भिन्न दृष्टि रखें।अच्छाई बुराई को लेकर कई मत-मतांतर है।एक मत यह है किसी का बुरा नहीं करना चाहिए।एक मत यह है कि अच्छे बन कर जी ही नहीं सकते।एक मत है अच्छे के साथ अच्छा और बुरे के साथ बुरा बन कर रहे।सच बोलना अच्छा है असत्य बोलना बुरा है।जितनी नीति और सद्व्यवहार की बातें हैं वे अच्छाई की बात करती है ।अनीति औरअसत्य बुराई को बुरा नहीं मानते । अच्छा सबसे अच्छा है यह मानने के बाद भी हम अच्छाई के साथ विचार पूर्वक और आग्रह के साथ जी नहीं पाते।बुराई को गलत मानते हुए भी आजीवन बुराई से संघर्ष करने का साहस हम सब में हर समय नहीं हो पाता।
बुराई एक तरह से हमारे लिये गुरू की तरह भी काम करती है।बुराई हमें समझाती या सीखाती है कि यह बात बुरी है तो हम उससे बच या दूर रह सकते हैं या अपनी बुराई को त्यागने की दिशा में जा सकते हैं।जैसे हिंसा अच्छाई नहीं है ।फिर भी अहिंसक होना अच्छाई होते हुए भी हम सबको सहज सरल नहीं लगता और हम कम या ज्यादा मात्रा में हिंसा का उपयोग कई रूपों में जाने अनजाने करते रहते हैं। उसे न्यायसंगत ठहराने की नाना दलीलें भी गढ़ते नहीं थकते।कई बार आवश्यक बुराई की दलील को भी हम अपनी ढाल बना लेते हैं।इस तरह अच्छाई की महत्ता को जानते समझते हुए भी हम बुराई को त्याग नहीं पाते साथ ही अच्छाई को छोड़ बुराई को अपनाना या बुराई को लेकर उदासीन बने रहना हमें व्यावहारिकता लगने लगी है।भ्रष्टाचार बुराई है पर हम उसे मिटाना संभव नहीं मानकर सामान्यतः व्यवहार का आम तरीका बना बैठे हैं।शिष्टाचार जीवन की सभ्यता है या अच्छाई है पर हममें से अधिकांश उसे निभाने में लापरवाह और उदासीन बने जाते हैं और सामान्य जीवन में अशिष्टता को बढ़ने से रोकना चाहते हुए भी अशिष्टता को जाने अनजाने रोक नहीं पाते हैं।अच्छाई अपने आप में हम सब के जीवन का साध्य है।बुराई जीवन के साध्य को जानबूझ कर लोभ लालचवश नकारना है।बुराई के साधन से अच्छाई को हासिल करने की पहल करना याने अपनी जीवनी शक्ति को ही नकारना है।दिन दिन इसलिये है की वह हमेशा प्रकाशवान प्रकाश खत्म तो दिन खत्म हैं ।इसी तरह अच्छाई भी स्वत:अपने-आपही अच्छी है अच्छाई में बुराई का सूक्ष्मतम भी योगदान नहीं है।
रात और दिन धरती की गति से आते जाते हैं।अच्छाई और बुराई मनुष्य की मति की उपज है।रात और दिन का एक निश्चित क्रम बना हुआ है पर अच्छाई बुराई का कोई क्रम नहीं ,सब हमारी सोच समझ और मन:स्थिति पर निर्भर हैं।हमेशा अच्छा बना रहना सहज भी है और कुछ हद तक कठिन भी है।बुराई करना सरल है और बुराई से आजीवन बचे रहना असंभव तो नहीं पर कठिन जरूर हैं पर मन में ठान लें तो कुछ भी कठिन नहीं।अच्छा और बुरा हमारे निजी और सार्वजनिक जीवन में हर समय हमारे साथ बने रहते हैं ।पर यह हमारे ऊपर है कि हम जीवनभर अच्छे को माने और बुराई को आवश्यक बुराई के तर्क के आधार पर भी न माने तो ही हम अच्छाई को आजीवन आत्मसात कर जीवन को सहज स्वरूप में जी सकते है।अच्छाई हमारी जीवनी शक्ति को हमेशा व्यापक जीवनदृष्टि तथा सहजता की समझ वाली बनाये रखती है।इस तरह अच्छाई और बुराई दिन और रात की तरह है जो जीवन को प्रकाश में प्रगट और प्रखर करते हैं और रात के अंधेरे मे सुप्त हो जाते है।अच्छाई जीवन का सात्विक स्वरूप है और बुराई तामसिक है।अच्छाई लोभ लालच से परे रहना और बुराई लोभ लालच के साथ रहना है।अच्छाई सबके भले के लिये होती है, इकठ्ठा कर अपने पास रखने के लिये नहीं।इसी से कहा गया है नेकी कर दरिया में डाल। अच्छाई जीवन की गहराई है जबकी बुराई जीवन का उथलापन।