दिल्ली में हिंदी भवन बनने की पूरी कहानी

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हिंदी कविसम्मेलनों में धूम मचाने वाले,हास्यरसावतार के विशेषण से सुशोभित सुप्रसिद्ध कवि पं. गोपालप्रसाद व्यास से कौन परिचित न होगा?लेकिन व्यासजी का यह परिचय अधूरा हैं।वे एक अनन्य समर्पित हिंदी सेवी भी थे।अपने जीवन के उत्तरार्ध में तन,मन,धन से वे एक ही ध्येय पूरा करने पर जुटे थे-दिल्ली में एक भव्य हिंदी भवन की स्थापना करना।महामना मदनमोहन मालवीय जी ने जिस तरह पूरे देश में घूम-घूम कर धन एकत्रित करके बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को साकार किया,उसी तर्ज पर व्यासजी गत 20 वर्षों से हिंदी भवन के निर्माण के लिए पूरे देश की यात्राएं कर रहे थे।आज दिल्ली के मशहूर बाल भवन के समीप जिस पांच मंजिला हिंदी भवन को हम देख पा रहे हैं, वह व्यासजी के एकल प्रयत्नों से ही सम्भव हुआ हैं।इस भवन में एक विशाल पुस्तकालय,हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों पर विपुल सन्दर्भ सामग्री,अतिथियों के लिए विश्राम कक्ष, भव्य सभाग्रह इत्यादि सभी सुविधाएं हैं।

व्यासजी के बम्बई आने की सूचना जब स्थानीय समाचार पत्रों में छपी तो मैं उन्हें अपने संस्थान में आमंत्रित करने के लिए व्यग्र हो उठा।मैंने उनके दिल्ली के पते पर पत्र लिखकर अनुरोध किया कि अपने बम्बई प्रवास में वे हमारे लिए भी थोड़ा वक्त निकाले।लौटती डाक से ही उनकी स्वीकृति का पत्र आ गया जिसमें उन्होंने यह भी लिखा कि बम्बई में कोलाबा में उनकी पुत्री रहती है(इनका पूरा पता व फोन नं. भी लिखा),वे वही ठहरेंगे,मैं पुत्री से मिलकर कार्यक्रम निश्चित कर लूं।उनके बताए पते पर जाकर मैंने पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा निश्चित कर दी।नियत दिन मैं व्यासजी को लेने जा पहुँचा।

वे बड़े प्रसन्नचित्त थे।उस समय उनकी आंखों की रोशनी लगभग जा चुकी थी फिर भी वे रंच मात्र भी चिंतित न थे।गौर वर्ण,मुख पर हास्य,ओजपूर्ण वाणी-सभी मानो में वे स्वस्थ दिखाई दे रहे थे।अपने व्याख्यान में उन्होंने कुछ शरारतपूर्ण स्वर में मुस्कुराते हुए कहा भी-मेरी केवल आंखों की रोशनी गई है,बाकी हर तरह के काम के लिए मैं पूरी तरह चुस्त-दुरुस्त हूँ।व्याख्यान में उन्होंने अपनी हिंदी भवन की अवधारणा के बारे में विस्तार से चर्चा की व श्रोताओं से बार-बार अनुरोध किया कि वे जब भी दिल्ली जाए तो हिंदी भवन जरूर आए।हिंदी के प्रति उनके समर्पण को देखकर सभी अभिभूत हो उठे।बता दें कि लाल किले पर प्रति वर्ष आयोजित किया जाने वाला राष्ट्रीय कविसम्मेलन व्यासजी की ही प्रेरणा से प्रारम्भ हुआ।

कारंथ जी से मैं भोपाल उनके प्रोफेसर्स कॉलोनी स्थित निवास पर मिल चुका था,जहाँ मैंने उनसे निवेदन किया था कि वे जब भी बम्बई आए,हम वैज्ञानिकों की सभा में उनका स्वागत करना चाहेंगे।उन्होंने स्वीकृति देकर बता भी दिया था कि वे अपनी नाट्य टीम को लेकर बम्बई कब आ रहे हैं।निश्चित दिन मैं उनका नाटक-सैंया भये कोतवाल का बम्बई के टाटा थिएटर में शो देखने पहुँचा और नाटक के बाद उन्हें अपने कार्यक्रम की सूचना दी।दूसरे दिन मैं उन्हें लेने जा पहुँचा।कन्नड़ फ़िल्म-“चोम्ना डूडी”को उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।संयोग से इस फ़िल्म की पूरी टीम भी उन दिनों बम्बई में ही थी।कारंथ जी ने इस टीम को भी साथ ले लिया।वह एक भव्य कार्यक्रम सिद्ध हुआ।हमने इस कार्यक्रम में विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजेताओं को कारन्थजी के हाथ से प्रमाणपत्र भी दिलवाए।दुर्भाग्य से इसके थोड़े अरसे बाद भोपाल का कुख्यात विभा मिश्र कांड हो गया जिसमें कारन्थजी को जेल जाना पड़ा।बम्बई के पेपरों में भी इस कांड की काफ़ी चर्चा हुई।मेरे एक मित्र,जिसे कारन्थजी के हाथों से प्रमाणपत्र मिला था,मिले तो बोले-मुझे तो ऐसी नफ़रत हो रही हैं कि लगता है यह प्रमाणपत्र फाड़ कर फेंक दूँ।निश्चित ही कारन्थजी की उजली छवि इस कांड से थोड़ी धूमिल तो अवश्य हो गई।