विधेयक में खामियां या मंशा में खोट

Share on:

पुष्पेन्द्र सिंह 

आज डिजिटल युग में डाटा को सोने और तेल से भी कीमती माना जा सकता है। प्रतिदिन हम अपने विचार लेखों, फोटो, ऑडियो या वीडियो के माध्यम से इंटरनेट पर साझा करते है। फ्री में उपयोग करने को मिलने वाली इन ऐप या वेबसाइट पर हम या तो व्यक्तिगत जानकारी खुद साझा करते है या करना पड़ता है। जैसे किसी सोशल मीडिया पर आपका मोबाइल नंबर या किसी ऐप पर आपकी लोकेशन। व्यक्तिगत जानकारी साझा करने से आपको मानसिक तौर पर निशाना बनाया जा सकता है। जैसे आपकी खर्चे की आदतों पर असर डाला जा सकता है या आपको आर्थिक, सामाजिक या शारीरिक क्षति पहुंचाना आसान हो जाता है। यहां तक कि युद्ध की स्थिति में डाटा को किसी देश के अंदर हथियार की तरह उपयोग किया जा सकता है। इसी वजह से देश में डाटा संरक्षण की मांग काफी लंबे समय से चल रह थी। डिजिटल इंडिया पर जोर देने वाली मोदी सरकार इस मांग को लेकर जद्दोजहद में जुट गई। 2017 में इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने डाटा संरक्षण को लेकर एक कमेटी बनाई। जिसने 2018 में एक विधेयक का मसौदा प्रस्तुत किया। सरकार ने इसे व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक 2019 के नाम से सांसद में दिसंबर 2019 को प्रस्तुत किया। शुरुवात से ही कई विशेषज्ञ इस विधेयक के विरोध में आ गए थे। विपक्ष का भी विरोध को देखते हुए सरकार ने विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया।

इसी साल अगस्त में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक 2019 को वापिस लिया गया और अब डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2022 लाया गया है। इसे सरकार आगामी शीतकालीन सत्र में संसद में पेश करेगी। पहले वाले विधेयक में बहुत सी खामियों के साथ संसद में पास कराना थोड़ा मुश्किल था। सरकार के पास पर्याप्त बहुमत है इसे पास कराने के लिए, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके दो प्रमुख कारण हो सकते हैं, पहला, शुरू से हर मसौदे में तकनीकी खामियां रहीं है, इस से कम खामियां तो एक प्राइवेट बिल में भी नहीं रहती। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2019 के मसौदे के लिए जो सयुक्त संसदीय समिति बनाई गई थी उसने 81 संशोधन प्रस्तावित किए थे और 12 सिफारिशे भी की थी। दूसरा, सरकार जनता का मूड भापने की कोशिश में रही की जनता इस विधेयक को किस तरीके से समझ रही है। चुकी यह बिल सोशल मीडिया के द्वारा जनता के ऊपर निगरानी रखने का हक सरकार को दे देगा। अब जब जनता विरोध करते नहीं दिख रही है तो इसे सरकार के प्रति और लचीला कानून का स्वरूप लाकर सामने रखा जा रहा है।

यदि खामियों की बात की जाए तो सबसे प्रमुख सूचना का अधिकार को शून्य होने की पूरी तरह संभावनाएं हैं। पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी के अनुसार “प्रस्तावित डाटा संरक्षण विधेयक में कहा गया है कि किसी व्यक्ति से संबंधित सूचना को साझा नहीं किया जा सकता। इसके अनुसार सूचना अधिकारी किसी सार्वजनिक जानकारी देने से इनकार करना बहुत ही आसान हो जायेगा।” सूचना के अधिकार ने लोकतंत्र में नागरिकों की शक्ति को बढ़ाने का काम किया है। और शासन में पारदर्शिता लाने के लिए सूचना के अधिकार को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ऐसे में सूचना के अधिकार के कमजोर होने से लोकतंत्र कमजोर होगा। निजता के अधिकार क्षेत्र में सूचना के अधिकार क्षेत्र का आपसी टकराव अवश्य होने वाला था। चूंकि इसका फायदा सरकार को ही था इसलिए सरकार ने एक सामंजस्य की स्थिति के निर्माण की कोशिश भी नहीं की। भारत सरकार ने जनता के हितों को बाजू में रखते हुए सरकार की शक्ति बड़ाने का प्रयास किया है। ऐसे में सरकार की मंशा पर सवाल उठने वाजिब हैं। कुछ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इस विधेयक से सूचना के अधिकार पर ज्यादा असर नहीं होगा क्योंकि सरकारी जानकारी पेपर फाइल में होती है। परंतु वह एक महत्वपूर्ण बिंदु को भूल रहे है। भारत एक डिजिटल क्रांति के दौर में है। भविष्य में हर शासकीय जानकारी डिजिटल फॉर्मेट में हो जायेगी। उस समय व्यक्तिगत डिजिटल जानकारी का हवाला देकर सूचना के अधिकार का हनन करना और भी आसान हो जायेगा। ऐसे में ऐसे तर्क पूरी तरह बेमानी हैं।

इस विधेयक को लाने की एक वजह स्थानीय डाटा भंडारण का मुद्दा भी माना जाता है। वर्तमान में हमारे द्वारा दिया जा रहा डाटा बहुत सी कंपनी विदेश में भंडारण करती हैं। ऐसे में हमें उनपर नियम लागू करने में भी परेशानी आती है और सुरक्षा की दृष्टि से भी यह अच्छा नहीं है। युद्ध की स्थिति में भारत को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसीलिए मांग की गई कि हमारा डाटा हमारे देश में ही रखा जाना चाहिए। स्थानीय डाटा सेंटर को लेकर सरकार ने पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल में प्रावधान लाई कि यह भारत में ही होने चाहिए। परंतु जब 2022 में संशोधित विधेयक लाया गया तब इसमें बदलाव कर दिए गए कि हम कुछ अधिसूचित देशों और क्षेत्रों में डाटा भंडारण स्वीकार करेंगे। नए प्रावधानों में कुछ संशय हैं, आखिर सरकार को इन बड़ी विदेशी कंपनियों के आगे क्यों झुकना पड़ा। आखिर में ये अधिसूचित देश और क्षेत्र किस आधार पर मान्य किए जायेंगे और क्या सच में हम इन मित्र मुल्कों पर भरोसा कर सकते हैं। यूनाइटेड किंगडम से हमारे अच्छे संबंध है लेकिन उसने विजय माल्या और नीरव मोदी के केस में मित्रता कभी नहीं दिखाई। अमेरिका का पाकिस्तान प्रेम बारंबार उभर आता है। कारगिल युद्ध के समय जीपीएस संबंधित सहायता के लिए अमेरिका ने मना कर दिया था। यदि वह मदद मिल जाती तो हमारे बहुत से सैनिक शहीद होने से बच जाते और कारगिल युद्ध इतना लंबा ना चलता। ऐसे अनुभवों के साथ हम कैसे किसी अन्य देश पर पूर्णतः निर्भर हो सकते हैं। पूरी तरह डाटा सेंटर भारत में लाना असंभव है लेकिन कुछ हद तक उन कंपनी को नियमित करना चाहिए।

विधेयक को भविष्य में आनी वाली चुनौतियों का ध्यान नहीं रखा गया है। इसमें हार्डवेयर निर्माताओं द्वारा डेटा के संग्रह पर रोक लगाने का कोई प्रावधान नहीं है। 5जी तकनीक के आने के बाद हार्डवेयर और इंटरनेट का आपसी समावेश बड़ जायेगा। IoT जैसी तकनीक का विकास बहुत तेजी से होगा।

इसमें प्रावधान किया गया है कि यदि हैकिंग की वजह से डाटा चोरी हुआ तो इसकी जानकारी उपयोगकर्ता को देनी होगी। वरना इसे नियमो का उल्लंघन माना जायेगा। यदि व्यवसाय ऐसे किसी उल्लंघन का दोषी माना जायेगा तो उसपर 50 करोड़ से लेकर 500 करोड़ तक का जुर्माना लगाया जाएगा। यह जुर्माना पिछले ड्राफ्ट विधेयक से काफी बड़ा दिया गया है। हालाकि बिग टेक कंपनी के लिए यह ऊंट के मुंह में जीरा के समान होगा। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि यह कंपनी कितनी आसानी से भारतीय कानूनों की सहायता से इन जुर्मानो से बच जाएंगी। इन केसों को भारतीय न्यायव्यवस्था में लंबित करना भी आसान है। अभी तक जिस तरह अभी तक बिग टेक कंपनियों ने सरकार के आदेशों की अवहेलना ही है उस से यही लगता है की केवल छोटे व्यवसाय ही नियमो के अंतर्गत कार्य करते नजर आएंगे। विधेयक में विधेयक का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये डेटा संरक्षण बोर्ड के गठन का भी प्रस्ताव है। लेकिन डाटा संरक्षण बोर्ड की नियुक्ति कैसे होगी और उसकी शक्तियां क्या होंगी उस पर विधेयक मौन है। यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है की बोर्ड तभी कार्यवाही करेगा जब उपभोक्ता किसी नियम के उल्लंघन की शिकायत करेगा। अभी देश में डाटा सुरक्षा को लेकर इतनी जागरूकता दिखाई नहीं पड़ती की उपभोक्ता स्वयं ऐसी घटनाओं को बोर्ड तक लेकर जा पाएगा।

डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2022 कहता है कि यदि एक उपयोगकर्ता के तौर पर आपने कहीं भी गलत जानकारी दी तो आप पर 10 हजार का जुर्माना लगाया जा सकता है। ऐसा प्रावधान दुनिया में कहीं नहीं है अभी तक जहां उपयोगकर्ता को इस कदर जबाबदेह बनाने की कोशिश की गई हो। मुझे नहीं मालूम कंपनी इसे किस तरह उपयोग करेंगी। किसी भी जानकारी को गलत ठहराया जा सकता है जैसे प्रोफाइल फोटो में यदि खुद की जगह आपने अपने माता पिता की फोटो, दोस्त की या किसी जगह की फोटो डालोगे वो गलत जानकारी मानी जा सकती है। यदि आप गलती से भी जन्मतिथि गलत डाल देते हैं तो 10 हजार तैयार रखे। फिर तो अंग्रेजो ने भी हमे जवाबदेह बनाया था उसे गुलामी क्यों कहते है। आजाद देश और लोकतांत्रिक देश में सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है। उसके अलावा यदि मजबूर किया जाएगा तो इसे तकनीकी गुलामी की शुरुवात कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा।

Also Read : मालवाचंल यूनिवर्सिटी में इंडक्शन प्रोग्राम हुआ प्रारम्भ, फॅार्मेसी में करियर के लिए मिलेगा बेहतर अवसर

हमारे डाटा का संरक्षण होना चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन उसका एक संतुलन राईट टू इनफॉर्मेशन के साथ बनाना उतना ही आवश्यक है। इस विधेयक पर मंत्रालय 2017 से काम कर रहा है ऐसे में 5 साल बाद भी कई खामियां होना एक गंभीर विषय है। सरकार का कहना है कि उन्होंने संयुक्त संसदीय समिति के सुझाव का इस विधेयक में ध्यान रखा है। यदि ऐसा है तो समिति ने संभावित दुरुपयोग को लेकर चिंता व्यक्त की थी। फिर भी इस विधेयक में ‘राज्य’ और उसके उपकरणों को हमेशा के लिये व्यापक छूट क्यों दी जा रही है। मेरी मंशा बस इतनी है कि इतना महत्वपूर्ण बिल एक व्यापक चर्चा के बाद ही कानून का स्वरूप ले, ताकि देश के हर नागरिक को वह न्याय मिल सके जिसका वह हकदार है।