पहले वो चर्चित नज्म फिर और बात

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स्मरण:अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने –
“जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने”

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर “माल वो चोरी का तूने क्या किया”

“कैसी चोरी, माल कैसा” उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर –

“मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो”

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

“कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं”

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, “इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, “साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें”

बोला थानेदार, “मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है”

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
“कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल”

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
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जो गजल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।।
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भारत को आजाद हुए 2 माह ही बीता था, लोगों में आजादी के जश्न की खुमारी छायी हुई थी। चारों तरफ आजाद भारत की चर्चाएँ हो रही थीं। कहीं-कहीं पर रह-रह कर उत्सव भी मनाये जा रहे थे। इन्हीं उत्सवों के मध्य एक उत्सव गोण्डा के आटा ग्राम में 22 अक्टूबर, 1947 को मनाया गया, जिसका मुख्य कारण रामनाथ सिंह का जन्म था।

रामनाथ सिंह का जन्म वैसे तो आजाद भारत में हुआ था किन्तु स्थिति परतंत्र भारत के जैसी थी। तत्कालीन भारत की जो सबसे बड़ी समस्याएँ थीं वे आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक व धर्मिक थीं। राजनीतिक क्षेत्र में कांग्रेस का बोलबाला था किन्तु अर्थ, शिक्षा व धर्म पर सत्तापक्ष का पूर्ण नियंत्रण न हो पाया था, जिसके परिणामस्वरूप अशिक्षा, भुखमरी, कुपोषण, महामारी तथा धार्मिक दंगे बढ़े। अभाव और सामाजिक उन्मादों का प्रभाव गोंडवी जी पर पड़ा साथ ही अवध में जन्म होने के कारण आप पर गंगा-जमुनी तहजीब का भी असर पड़ा। परिणामस्वरूप आपकी लेखनी सेकुलरवादी हुई। अदम गोंडवी भारतीय इतिहास की समझ रखते थे, ऐसे में हो रहे दंगों के मध्य अदम को कहना पड़ा-

 

गर गलतियाँ बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले।
ऐसे नाजुक वक्त में, हालात को मत छेड़िए।।

राम सिंह साहित्य जगत में ‘अदम गोंडवी’ के नाम से विख्यात हुए। अदम ने तत्कालीन धार्मिक कट्टरता को देखकर ‘कबीर’ की तरह समाज के उपदेशक एवं सुधारक की भांति बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहा-

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है।
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।।

इसी कविता की अंतिम कड़ी के द्वारा आपने समाज को ये सुझाव दिया-

छेड़िए एक जंग, मिल जुलकर गरीबी के खिलाफ।
दोस्त, मेरे मजहबी, नग्मात को मत छेड़िए।।

अदम गोंडवी अपनी कविता के द्वारा सामाजिक सहिष्णुता के पक्षकार के रूप में चर्चित हुए। आपने अपनी गजलों के द्वारा बढ़ती साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता पर प्रश्नचिह्न खड़े किए।

अदम ने अपनी गज़लों को माशूक के जलवों पर न खर्च कर गाँव की गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, भ्रष्टाचार तथा विधवाओं की समस्याओं पर खर्च किया।

भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।
जो गजल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।।

अदम गोंडवी स्वयं गाँव के रहने वाले थे इसलिए गाँवों का ताना-बाना उन्हें खूब पता था। प्रधान व विधायक आदि किस तरह से गाँव की भोली-भाली जनता को लूटते हैं। चुनावों में विधायक लोग जो गाँवों में रामराज लाने की बात करते हैं, वही चुनाव के बाद अपने क्षेत्र में दिखाई तक नहीं पड़ते और रामराज होता है सिर्फ विधायक निवास में।

जनता के साथ विश्वासघात करने वाले जनता के प्रतिनिधियों की गोंडवी जी ने खूब खिंचाई की है। गाँव के सामन्तवादी लोग गरीब, मजदूरों की बहू-बेटियों की अस्मिता पर वार करने वालों को आपने अपनी कविता में प्रदर्शित किया है।

अदम जी का जन्म आजाद भारत में हुआ था किन्तु समस्याएँ जस की तस थीं। सत्ता भारतीयों के हाथ में जरूर थी किन्तु सामाजिक प्रगति के नाम पर लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा था। बुद्धिजीवी वर्ग और सत्ता पक्ष के द्वारा जनता को लूटा जा रहा था। अदम जी की पीड़ा सामाजिक असमानता को लेकर थी। वे चाहते थे कि समाज समान रूप से प्रगति करे किन्तु ऐसा सम्भव न हुआ इसके पीछे बहुत से कारणों में से एक कारण भ्रष्टाचार भी था। ऐसे में अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता गया। ऐसे में गाँवों का विकास भी रूका जिसका वर्णन आपने कुछ इस तरह किया-

जो उलझकर रह गई है, फाइलों के जाल में।
गाँव तक वो रोशनी, आएगी कितने साल में।।

तत्कालीन छद्म समाजवाद व सत्तानशीन नेताओं की मानसिकता को आपने अपनी गज़लों के द्वारा पर्दाफास किया। सत्ता के खोखलेपन को आपने कुछ यूँ उजागर किया-

आँख पर पट्टी रहे और अक्त पर ताला रहे
अपने शाहे वक्त का यूँ मर्तबा आला रहे।

तालिबे शोहरत है कैसे भी मिले मिलती रहे
आयदिन अखबार में प्रतिभूति घोटाला रहे।

एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छः चमचे रहें माइक रहे माला रहे।।

बेरोजगारी, मुफलिसी, अपराध को सरकारी तंत्र दूर नहीं कर पा रहा था और न ही सामाजिक व्यवस्था से न्याय हो पा रहा था। सरकारी तंत्र में लूटम-लूट मची हुई थी। तंत्र पूर्णतः विफल था, ऐसी व्यवस्था से अदम जी नाराज थे। जनता में त्राहि-त्राहि मची हुई थी और राजनेताओं के घर पर रामराज था। ऐसी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए आपने जनता से आह्वान किया-

जनता के पास एक ही चारा है बगावत।
यह बात कर रहा हूँ मैं होशोहवास में।।

अदम गोंडवी जी हिन्दी के उन चंद गज़लकारों में हैं जिनकी गज़लों से भारतीय अस्मिता के ताप को महसूस किया जा सकता है। आप प्रगतिशील लेखक के रूप में सदैव याद किए जायेंगे। आपके साहित्य से गरीबों, मज़लूमों को हमेशा बल मिलता रहेगा। अदम जी की मृत्यु 18 दिसम्बर, 2011 को लखनऊ के संजय गाँधी हॉस्पिटल में हुई।

अजीत कुमार सिंह