आंध्र प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री और लोकप्रिय तेलुगु अभिनेता पवन कल्याण की आगामी पैन-इंडिया फिल्म ‘हरि हरा वीरा मल्लु’ 24 जुलाई को रिलीज होने जा रही है। इस अवसर पर उन्होंने तेलुगु भाषी जनता को हिंदी सीखने की सलाह दी, जिसे लेकर साउथ और उससे बाहर सोशल मीडिया पर बहस तेज हो गई है।
पवन कल्याण का बयान: हिंदी सीखना है उपयोगी, नहीं है बाध्यता
‘गोल्डन जयंती’ समारोह में पवन कल्याण ने कहा कि तेलुगु हमारी मातृभाषा हो सकती है, लेकिन हिंदी हमारी “राष्ट्रीय एकजुटता की राह” है। उन्होंने इसे तेलुगुदाताओं की भाभी कहते हुए, इसमें सीखने में कोई खेद नहीं बताया। उनका मानना था कि सीमाएँ पार करनी हों तो हिंदी जैसी सहायता मिलती है, और किसी के मातृभाषा की गरिमा को नुकसान नहीं पहुँचता। “हिंदी सीखना खुद को खोना नहीं है, बल्कि खुद को मजबूत करना है।”
प्रकाश राज का तंज: बड़े सवाल खड़े, भाषा थोपे जाने पर उफ़!
यह बयान प्रकाश राज को नागवार गुजरा। उन्होंने X (पूर्व ट्विटर) पर पवन कल्याण का वीडियो शेयर कर तीखा निशाना साधा: “किस कीमत पर खुद को बेचा? उफ… कितना शर्मनाक! … हैशटैग #JustAsking”
प्रकाश राज ने स्पष्ट किया कि यह हिंदी पर ‘घृणा’ नहीं बल्कि मातृभाषा एवं सांस्कृतिक पहचान की रक्षा की बात है। उन्होने लिखा, “Don’t impose your Hindi language on us. … It is about protecting our mother tongue and our cultural identity with self-respect.”
सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया
सोशल मीडिया पर यह विवाद तेजी से ट्रेंड कर रहा है। यूज़र्स ने प्रकाश राज से पूछा कि यदि वह हिंदी पर इतना गर्व नहीं रखते, तो वे हिंदी फिल्मों में काम क्यों करते हैं?
एक यूजर ने लिखा: “प्रकाश, आप हिंदी फिल्मों में काम मत करना।”
वहीं एक और बोले: “पवन ने तो सिर्फ हिंदी सीखने की बात कही, हिंदी थोपने की नहीं।”
कई ने पवन कल्याण की सराहना करते हुए कहा कि हिंदी सीखने से किसी की पहचान कमजोर नहीं होती, बल्कि उसे मजबूती मिलती है।
ग्रामीण भाषाओं की सुरक्षा बनाम राष्ट्रीय एकता
यह विवाद पूरे देश में भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता की बहस को फिर कर तेज कर गया है। प्रकाश राज, DMK समेत तमिलनाडु के कई नेताओं ने यह तर्क रखा है कि हिंदी बाध्य करने जैसा नहीं, बल्कि किसी की मौलिक भाषा से कभी समझौता नहीं होना चाहिए। वहीं पवन कल्याण NEP-2020 के बहुभाषा फॉर्मूले पर ज़ोर देते हुए कहते हैं कि हिंदी सीखना ‘ज़रूरी नहीं’ बल्कि ‘सहयोगी’ होना चाहिए।
क्या यह बहस बनी भारत की बहुभाषिकता का प्रतीक?
यह विवाद केवल फिल्मों और लोकप्रिय संस्कृति तक सीमित नहीं है। यह दरअसल पश्चिम और दक्षिण भारत की भाषाई पहचान और Hindi Belt के विचारों के बीच एक जंग बनती जा रही है। यह सवाल है कि क्या हिंदी को सीखने को प्रोत्साहन देना सांस्कृतिक विवेक का हिस्सा है, या फिर यह छद्म रूप में भाषा का थोपना बन जाता है?
इस बहस में, पवन कल्याण का तर्क है – ‘सीखने में कोई बुराई नहीं’, वहीं प्रकाश राज और तमिल नेतृत्व कहते हैं – ‘अपनी भाषा की गरिमा बचा लो।’