एन के त्रिपाठी
चार राज्यों और एक केंद्रशासित क्षेत्र में चुनाव की तिथियों की घोषणा के साथ पूरा देश चुनावी जुनून में आ चुका है।चुनाव एक प्रजातांत्रिक पर्व है जो अगली सरकार बनाने के साथ- साथ जनता को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों की जानकारी भी देता है। लेकिन दुर्भाग्य से भारत में पूरा प्रजातंत्र केवल चुनाव तक सीमित होकर रह गया है।सामान्य जीवन और हमारी संस्थाएँ प्रजातांत्रिक मूल्यों पर नहीं चलती हैं। सत्ता पक्ष अपने अहंकार के साथ अपनी शक्तियों का खुला दुरुपयोग करता है और असहमति को बर्दाश्त नहीं कर पाता है।
विपक्ष प्रजातांत्रिक मापदंडों को छोड़कर सभी संभव तरीक़ों से सड़क से लेकर संसद तक सरकार पर ऐसा ग़ैर ज़िम्मेदार हमला करता है जिसकी चोट सरकार के साथ-साथ कभी-कभी देशहित को भी लगती हैं।आन्दोलन करने के लिए जनभावनाओं को भड़काना विपक्ष बख़ूबी करता है। यदि आंदोलन में हिंसा भड़क जाय तो वह अपना मुँह दूसरी तरफ़ कर लेता है। कोई इस मुग़ालते में न रहे कि मैं केवल वर्तमान पक्ष और विपक्ष की बात कर रहा हूँ। वे बदलते रहते हैं परंतु उनका ढर्रा दशकों से ऐसे ही चल रहा है।
एक अन्य दुर्भाग्य यह है कि अन्य प्रजातांत्रिक देशों के विपरीत भारत में भाँति-भाँति के चुनाव जल्दी-जल्दी आते रहते हैं। हर चुनाव कांटे का मुक़ाबला हो जाता है तथा सत्तापक्ष के लिए नाक का, तो विपक्ष के लिए सत्ता में घुसने का अवसर प्रदान करता है। चुनावों को एक निर्धारित समय में कराए जाने के लिए राजनीतिक पार्टियों में मतैक्य नहीं हैं। चुनाव की रणभेरी बजते ही देश की सारी शक्ति उसी तरफ़ चली जाती है, और महीनों के लिए देश प्रगति की राह पर बढ़ने के स्थान पर ठहर जाता है। आगामी चुनाव जिन राज्यों में हो रहे हैं उनमें पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है, जिसे पहली बार बीजेपी गंभीर चुनौती दे रही है।
आसाम के इतिहास में पहली बार बनी सर्बानंद सोनोवाल की बीजेपी सरकार दोबारा आने के लिए लालायित है। कांग्रेस अपने दम के स्थान पर एक बड़ा गठबंधन बनाकर उसे कठिन चुनौती दे रही है। केरल में पिनाराई विजयन की मार्क्सवादी नेतृत्व की एलडीएफ सरकार है और कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ वहाँ पर अदला बदली की परंपरा के अनुसार आने के लिए तैयार है।तमिलनाडु में परंपरागत द्रविड़ पार्टीयाँ ईपीएस की एआईडीएमके और स्टालिन की डीएमके अपने-अपने साथियों के साथ आमने सामने हैं। डीएमके वहाँ पर राष्ट्रीय विपक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहा है। पुडुचेरी में वी नारायणसामी की कांग्रेस सरकार थी जो चुनाव से ऐन पहले गिर चुकी है।
चुनावों के नतीजों का पूर्वानुमान करने के स्थान पर धैर्य के साथ वास्तविक परिणामों की प्रतीक्षा करना अधिक श्रेयस्कर है। परिणाम कुछ भी आए, उनके संभावित प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर पड़े बिना नहीं रह सकते हैं।यदि ममता बनर्जी अपनी सरकार बचा लेती है तो यह बंगाल के लिए ज़्यादा स्वाभाविक परिणाम होगा, परन्तु यदि किसी प्रकार बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो निश्चित रूप से बंगाल की राजनीति में एक नया अध्याय प्रारंभ हो जाएगा और बीजेपी भारत में उतारा और पश्चिम के साथ साथ पूरब में भी एक प्रबल शक्ति बन जाएगी।केरल में बंगाल के विपरीत कांग्रेस मार्क्सवादियों से संघर्ष कर रही है और वहाँ यदि बारी-बारी से परिवर्तन की परंपरानुसार उसकी सरकार स्थापित हो जाती है तो राहुल गांधी के लिए भारी संतोष की बात होगी।
कांग्रेस साथ ही साथ आसाम में भी बदरूद्दीन अजमल की सहायता से यदि सरकार बनाने में सफल हो जाती है तो यह राहुल गांधी के लड़खड़ाते हुए नेतृत्व के लिए बड़ा सहारा होगा। कांग्रेस के दरबारी इसे गांधी परिवार की महान विजय के रूप में निरूपित कर सकेंगे। यदि किसी कारणवश कांग्रेस को अच्छी सफलता नहीं मिली तो राहुल गांधी पर कोई असर नहीं होगा और वे फिर अगले चुनाव में अपना भाग्य आजमाते नज़र आएंगे। तमिलनाडु में डीएमके की वापसी विपक्ष को मज़बूत शक्ति प्रदान करेगी।पुडुचेरी के चुनावों का कोई विशेष महत्व नहीं होगा।
कुल मिलाकर यदि इन चुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा, तो केंद्र सरकार के कामकाज पर उसका प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी है। कृषि सुधार लागू करने एवं किसान आंदोलन से निपटने की सरकार की क्षमता और कम हो जाएगी। मोदी सरकार सुधारों की रफ़्तार धीमी करके लोक लुभावन पैसा बाँटने की राजनीति पर उतर आयेगी।यदि ऐसा हुआ तो इसका ख़ामियाज़ा वर्तमान पीढ़ी को तो नहीं, लेकिन आगामी पीढ़ी को उठाना पड़ेगा, क्योंकि सुधारों का सकारात्मक प्रभाव लंबी अवधि के बाद होता है।आर्थिक सुधारों के बिना भारत इक्कीसवीं शताब्दी में वह स्थान प्राप्त नहीं कर सकेगा जो उसके आकार और क्षमता के अनुरूप है। यदि चुनाव परिणाम बीजेपी की अपेक्षा के अनुरूप आते हैं तो आर्थिक सुधारों की गति तेज हो सकती है और धार्मिक उन्माद पर उसकी निर्भरता कम हो जायेगी।