बच्चों का खेल?

Akanksha
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शशिकांत गुप्ते का व्यंग्य

चुनाव भी एक खेल है। भूदान आंदोलन के प्रणेता सर्वोदय आंदोलन के संस्थापक गाँधीवादी विचारक स्वर्गीय आचार्य विनोबभावे ने एक बार कहा था,चुनाव लडो नही,चुनाव खेलो।उनके इस व्यक्तव्य पर बहुत चर्चा हुई थी। कुछ लोगों ने मज़ाक भी उड़ाया था।

वास्तव में चुनाव एक खेल ही है।खेल भी बच्चों का खेल है। बच्चे जब भी कोई भी खेल खेलना शुरू करते हैं,तब खेल तो एक तरफ रह ज्याता है,खेल के नियम कैसे होना चाहिए इस पर चर्चा ज्यादा करते है।नियम बनाते समय उनमे बहुत बहस होती है।नियम तो बनते नहीं, खेलने का समय जरूर समाप्त हो जाता है। इस दौरान,कोई रुठ जाता है।किसी को मनाने में सफलता मिल जाती है।कोई इतना रूठता है,अलग टीम बना लेता है।

कुछ शरारती बच्चे होते हैं,जो कहते हैं,ख़िलाव नही तो खेल बिगाड़ेंगे।कुछ शैतान होते हैं,जिनका कहना होता है,खेलेंगे भी नही और खेलने भी नही देंगे। कुछ खेल के मैदान को लेकर झगड़ते हैं।यहां नही खेलना वहाँ नही खेलना।कुछ विघ्नसंतोषी होते हैं,वे मैदान में कांटे ही बिछा देते हैं।

कुछ एक, ऐसे होते हैं,जिनको हमेशा कप्तान ही बनना होता है।जिस खेल के कप्तान बनने के लिए जिद करते हैं,भले ही वह खेल इन्हें खेलना आता नहीं हो,फिर भी कप्तान बनते ही हैं।कुछ खेलते कम हैं,बाते ज्यादा करते है। कुछ दूसरों की उपलब्धियों पर अपना हक जमा लेते हैं।कुछ होते हैं जो सिर्फ हंसी ठिठोली ही करते रहते हैं।कुछ बच्चे,सिर्फ आलोचना ही करते हैं।

कुछ बच्चे यदि एक टीम में नही खेल पाए,तो दूसरी टीम में चले जाते हैं।नई टीम में जाते ही पुरानी टीम पर बहुत निम्नस्तर के आरोप लगाते है।पूर्व टीम के कप्तान पर भ्रष्ट्राचार के आरोप तक लगा देते हैं।कभी ऐसे बच्चों की फजीयत भी हो जाती है।दूसरी टीम वाले भी इन्हें कुछ दिनो बाद अपनी टीम से निकाल देते हैं,अर्थात यूज एण्ड थ्रो।

कुछ बच्चे दूसरी टीम के साथ हमेशा प्रतिस्पर्धा करते हैं।सदैव मैच खेलने की बात करते हैं।मैच के समय इनकी एक शर्त रहती है,अम्पायर इन्हीं का होगा।कुछ बच्चे रसूखदारो से सरक्षण प्राप्त कर लेते है।कुछ कभी भी किसी भी मैदान में खेलने चले जाते हैं।यदि उस मैदान पर पूर्व कुछ बच्चे खेल रहे हो, तो उनका खेल रुकवा देते हैं।उन्हें वहां से बेदखल कर खुद खेलने लगते हैं।कुछ बच्चे हिंसक भी होते हैं।जरा सी बात पर मार पीट करने गलते हैं। बच्चों में बड़ो के ही संस्कार आते हैं।बच्चे बड़ो का ही अनुसरण करते हैं।बच्चे बड़ो के पदचिन्हों पर चलते हैं।

इन दिनों राजनीति में सलंग्न युवा वर्ग से लेकर वयोवृद्ध भी बच्चों जैसे ही आचरण कर रहे है। कुर्सी दौड़ प्रतिस्पर्धा खेनले के बजाए कुर्सी झपट प्रतियोगिता का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं।इनके विरोधी टीम के बच्चें इस इतंजार में रहते हैं कि,कब बिल्ली के भाग से छींका टूटता है।

दुर्भाग्य से इस खेल में खलने वाले बच्चों को खरीदने की चर्चा शुरू हो जाती है।कुछ खेल समीक्षक यह कतई समझ नहीं पा रहे हैं कि,यह खरीदने के लिए जो धन इस्तेमाल होताहै,वह काला काला है,व्हाइट व्हाइट है।
बच्चों व्यैवहारिक परिपक्वता कब आएगी या कभी आएगी भी की नहीं, यह बहुत अहम प्रश्न है?

शशिकान्त गुप्ते इंदौर