जयराम शुक्ल
आज सबसे पहले दुष्यंत कुमार की ये गजल के कुछ शेर फिर आगे की बात-
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख,
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।
दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़,
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।
राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख।
आजादी की लड़ाई में नारे आंदोलनकारियों के लिए ‘इम्यूनिटी के बूस्टर डोज’ हुआ करते थे। ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है,’ दिल्ली चलो, तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा, करो या मरो, अँग्रेजों भारत छोड़ो..आदि आदि। आज की तरह प्रचार तंत्र नहीं था फिर भी ये नारे दावानल की लपटों की भाँति समूचे देश में फैल जाते थे और इनका असर दिखता था।
आजादी के बाद डाक्टर राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के नारों ने आहत समाज को उद्वेलित किया। नारों ने कई सरकारें पलट दीं। आखिरी सबसे प्रभावशाली नारा था..जय जवान जय किसान..इसे सन् 65 के भारत-पाक युद्ध के दरम्यान लालबहादुर शास्त्री ने दिया था। इसके बाद बांग्ला विजय के बाद इंदिरा जी ने ..गरीबी हटाओ.. का नारा दिया। यह नारों के असर के अंत की शुरूआत थी क्योंकि यह विशुद्ध चुनावी नारा था। पूरा नारा था– वे कहते हैं इंदिरा हटाओ..मैं कहती हूँ गरीबी हटाओ..।
इसके बाद नारे अपने अर्थ और प्रभाव खोते गए। इन सबके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर साल एक नया नारा देते हैं। मोदीजी ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल की शुरूआत महात्मा गाँधी के नाम से समर्पित स्वच्छता अभियान से किया। इस नारे की असर की बात करें तो अब वह सिर्फ़ बापू के चश्मा वाले ‘लोगो’ तक सिमटकर रह गया।
इस बार 9 अगस्त को उन्होंने एक बार फिर नारा दिया..’गंदगी भारत छोड़ो’। मोदीजी यथार्थ के धरातल पर जीने वाले नेता हैं। उनकी हर मुहिम देश के सर्वोच्च हित में होती है..। लेकिन देश का वही सिस्टम जिसके वे मुखिया हैं, उनकी हर मुहिम को फाइलों, नस्तियों के कड़े ढेर में दबा देता है। कायदे से उनकी पहली मुहिम अँग्रेजों के जमाने से चले आ रहे इस सिस्टम को बदलने के लिए चलानी चाहिए थी..जो सिस्टम कथित लोकसेवकों को लाटसाहबों का भी लाटसाहब बनाकर रखा है..।
हमारे यहाँ कोई भी परीक्षा दो हिस्सों में होती है,एक सैद्धांतिक दूसरी व्यवहारिक। सिद्धांत की व्यवहारिक परिभाषा यह है कि वह कभी भी व्यवहार में नहीं ढल पाता। गांधी जी जिंदगी भर सिद्धांत को व्यवहार में उतारने की लड़ाई लड़ते रहे। जब कोई कहता कि बापू मुझे कोई उपदेश दो, तो वे कहते कि जो मैं कर रहा हूँ वही मेरा उपदेश है। उन्होंने पहले अपने घर का पखाना साफ किया फिर अछूतोद्धार की बात की।
गांधी प्रयोगधर्मी थे सत्य को हथियार बनाया। उनके सत्याग्रह से विलायत के सम्राट का सिंहासन हिल उठता था। अब सत्याग्रह नगाडों की आवाज़ के बीच बाँसुरी के सुर जैसा बचा है। आज देश में हर छोटी बड़ी माँगों को लेकर हिंसा, तोडफ़ोड़, आगजनी सामान्य बात है।ऐसा इसलिए कि सत्ता प्रतिष्ठानों को सत्य का आग्रह नहीं सुहाता, भले ही गुलामी के दिनों में वयसरायों की नींद हराम करता रहा हो।
हमने गाँधी को देश की आजादी के दिन ही विसर्जित कर दिया। वैसे भी स्वतंत्रता संग्राम के इस सेनापति ने देश की आजादी का जश्र नहीं मनाया। न ही पंद्रह अगस्त को कहीं झंडा फहराया, न समारोह में शामिल हुए। गाँधी उस दिन दिल्ली की बजाय कलकत्ता में थे।
उन्होंने देश के लिए जो सपना बुना था उनके जीते जी ही वह व्यवहारिक बनने की बजाय कर्मकान्डी और सैद्धांतिक बन गया। अपने यहां चलन है, जिन बातों को न मानना हो उन्हें सिद्धान्तों की सूची में डाल दीजिए और जिस व्यक्ति का अनुशरण न करना हो उसे भगवान् बना दीजिए। भगवान् को मंदिर में बिराज दीजिए और सिद्धांतों का ग्रंथ बना लीजिए। ये दोनों ही कसम खाने के काम आते हैं।
अपने देश में कसम ऐसी ढाल है जो झूठ को ढाँप लेती है। हमारे नेता जब किसी पद पर आरूढ़ होते हैं तो गांधी को याद करते हैं। जो दिल्ली में रहते हैंं वे राजघाट में फूल चढाते हैं। अपने .अपने ईष्टदेदेवों और धर्मग्रंथों की कसम खाते हैं। और जो सिद्धांत संविधान के रूप में .. इंडिया दैट इज भारत.. से शुरू होता है उसपर अमल करने के लिए मनसा-वाचा-कर्मणा के साथ संकल्प लेते हैं। यह कर्मकाण्ड उसी दिन से शुरू है जिस दिन से देश आजाद हुआ, लोकतंत्र की बयार बही और देश की सांविधानिक गणतंत्र के तौर पर प्राणप्रतिष्ठा हुई।
पर अपने यहाँ तो सिद्धांत और व्यवहार का शुरू से ही छत्तीस का आँकड़ा रहा है इसलिए आमजनमानस में हाथी के दाँत खाने के कुछ दिखाने के कुछ की धारणा गहराई से बैठ गई है। कथनी और करनी के बीच गहरी और चौड़ी खाई है। आजादी के बाद इस खाई का क्षरण ही हुआ है। आज यदि हम सिद्धांत को व्यवहार में उतारते तो रामराज कब का आ चुका होता। नहीं आया इसलिए क्योंकि लोकतंत्र की खोल में चुपके से ढोंगतंत्र घुसकर बैठ गया।
गाँधीजी आज इसलिए याद आए क्योकि सतहत्तर ह साल पहले 9 अगस्त को ही उन्होंने ..अँग्रेजों भारत छोड़ो.. का नारा दिया था। इस नारे की ताकत ही थी कि पाँच साल तक के दमनचक्र के बाद भी अँग्रेजों को थक हारकर देश से बाहर जाना पड़ा। तब चर्चिल ने उपहास उड़ाते हुए कहा …कि क्या ये अनपढ जाहिल इंडियन देश को सँभाल लेंगे। गाँधी जी ने जवाब दिया था कि गुलामी के मालपुए से स्वाभिमान की सूखी रोटी अच्छी, महाशय आप चिंता न करें ,हम लोगों को आपसे सीखने की नौबत नहीं आएगी।
गांधी जी अँग्रेजों के भौतिक रूप से देश छोड़ने से ज्यादा अँगरेजियत का देश निकाला चाहते थे। देश आजाद हो गया। अँग्रेज चले भी गए पर अँगरेजियत ने अमरबेल की भाँति हिंदुसतानियत को ऐसे जकड़ा कि अब चौतरफा वही सिरपर सवार होकर हुक्म देने लगी है। संविधान के संकल्प धरे रह गए। जातिवाद धर्म और संप्रदायवाद, भ्रष्टाचार,छुआछूत, गैरबराबरी के दलदल में देश और धँसता गया। स्वतंत्रता स्वच्छन्दता में बदलती गई और आचरण में अराजकता ने कब्जा जमा लिया।
‘अँग्रेजों भारत छोड़ों’ नारे की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर तीन वर्ष पूर्व ..9 अगस्त को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का लोकसभा में दिया भाषण संभावनाओं के द्वार खोलने वाला लग रहा था। सुनकर ऐसा लगा था कि वे बोलने के लिये नहीं बोल रहे हैं। उनके भीतर आग है और उसकी ऊष्मा महसूस की जा सकती थी। उन्होंने 2017 से 2022 तक के समयकाल को क्विट इंडिया मूवमेंट की तर्ज पर .. न्यू इंडिया मूवमेंट का नाम दिया है।
उन्होंने अपने नारों व भाषणों में ऐसे भारत का सपना दिखाया है जो गैरबराबरी, जातिवाद, भ्रष्टाचार, संप्रदायवाद, अराजकता से मुक्त स्वच्छ, सुभ्र और पवित्र भारत होगा। लेकिन फिर वही..ढाँक के तीन पात सिद्धांत और संकल्प होर्डिंग्स, विग्यापन, प्रचार पुस्तिकाओं, भाषणों से व्यवहार में उतर ही नहीं पा रहे/ सिस्टम उतरने ही नहीं दे रहा हैं। कहीं मोदी जी की मुहिम भी समयचक्र के दस्तावेज में पूर्ववर्तियों की भाँति दर्ज होकर इतिहास के कूडेदान में तो नहीं चली जाएगी.! देखना होगा।