दिवाली के “उपहार” कर लेते है अजीब रूप धारण

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आनंद शर्मा
दिवाली बस अभी गई गई ही है , इस त्यौहार में आपस में एक दूसरे से मिलने और परस्पर उपहार के आदान प्रदान की भी खूब परंपरा है। उपहार “उपहार” के रूप में रहें तब तो ठीक है पर कभी कभी ये बड़ा अजीब रूप धारण कर लेते हैं। कहते हैं आखिरी दिनों में मुग़ल बादशाह शाह आलम का आने जाने वालों से मिलने वाले उपहारों से ही गुजर चला करता था ।

कभी कभार ये उपहार की परंपरा भारी भी पड़ जाती है , मेरे एक वरिष्ठ साथी जो अब मेरी तरह रिटायर हैं ने मुझे बताया कि एक बार वे दिवाली में अपने कमिश्नर साहब से मिलने गए । दिवाली के प्रसन्नता पूर्वक मिलन के बाद जब वे ख़ुशी ख़ुशी वापस जाने लगे तो बेध्यानी में जीप के स्टार्ट होते ही उसके नीचे छिप कर बैठा मेम साब का प्यारा “पपी” इस संसार से विचरण कर गया , जितनी जल्द हो सकता था उन्होंने वैसा ही पिल्ला ला कर साहब को भेंट किया और दिवाली को ख़ुशी के बजाये मातम का त्यौहार होने से किसी तरह बचाया ।

जब हम लोगों ने नौकरी शुरू की थी तो छत्तीसगढ़ के सुदूर ग्रामों में दौरा होने पर ग्राम के बाहर ग्रामीण जन गाजे बाजे से स्वागत करते और भेंट में कभी एक तो कभी दो रुपया देते ।मुझे ये बड़ा अजीब लगा करता और जब मै इसे लेने से मना करता तो साथ के बुजुर्ग अधिकारी समझाते कि रख लें साब ये “मान” का है | इसी तरह जब मैं परिवहन विभाग में उपायुक्त प्रशासन हुआ करता था तो मैंने देखा कि हमारे परिवहन आयुक्त एन के त्रिपाठी से मिलने दूर दराज के लोग तीज त्योहार के दरमियान आते , उन्हें टीका लगा कर दस बीस रूपये प्रेम से देते जिसे त्रिपाठी जी अपनी जेब में बड़े सम्मान से रख लेते , इसके बाद मिलने वाले त्रिपाठी जी को न जाने कहाँ कहाँ की तकलीफ सुनाते ।

पुलिस की तकलीफ़ें तो उन्हें बताते ही पर डाक्टरी की , पटवारी की और न जाने किस किस से सम्बंधित तकलीफ उन्हें सुनाते ।वे हरेक की धीरज से सुनते और संबंधितों अधिकारीयों को मदद के लिए फ़ोन भी करते , बिना हिचक हर किसी शरणागत की ऐसी मदद करने वाला मैंने कम ही अफसर देखे हैं । उपहार की इस परम्परा में कभी कभी बिना मांगे भी ऐसे उपहार मिल जाते हैं , और कभी कुछ दिलचस्प भी घट जाता है । बहुत पुरानी बात है तकरीबन 1993 की , तब मैं सीहोर में एस डी एम हुआ करता था और नरसिंहपुर से ट्रांसफर होकर आये एक बरस हो चुका था । किसी काम से मैं जबलपुर अपनी दीदी के यहाँ सपरिवार आया था , लौटते में सुबह सुबह न जाने कैसे मैं अपनी मारुति 800 में पेट्रोल डलवाना भूल गया !

मेडिकल चौराहे के बाद ध्यान आया तो सोचा गाड़ी गोटेगांव तरफ से ले लें वहीँ से पेट्रोल डलवा लेंगे । किसी तरह गोटे गाँव आये तो बस स्टैंड चौराहे पर पहले पेट्रोल पम्प पर पहुँचते पहुँचते पेट्रोल लगभग समाप्त हो चला था । मैंने पम्प पर तैनात कर्मी से पेट्रोल डालने को कहा तो पम्प-कर्मी ने बताया कि लाइट नहीं है पेट्रोल हाथ से चला कर देना होगा । मैंने कहा ठीक है पांच लीटर ही डाल दो , तभी पेट्रोल पम्प का मालिक जो हमारी बातें सुन रहा था , केबिन से निकल कर बाहर आया और बोला अरे नहीं साहब को पूरा पेट्रोल दो जितना मांगें , तुम इन्हें पहचानते नहीं ये हमारे एस.डी.एम. रह चुके हैं । मैंने हाथ से हैंडल चला कर पेट्रोल भरने की परेशानी और उसकी प्रेम पूर्ण पेशकश के बीच का रास्ता निकाल दस लीटर पेट्रोल डलवा लिया ।

इसके बाद मैंने पर्स ने निकाल जैसे ही पैसे देने चाहे उस सज्जन ने हाथ जोड़ कर कहा नहीं साहब पैसे तो मैं न लूँगा । मैंने बड़ी ज़िद की , पर मेरी बहुतेरी कोशिशों के बाद भी उसने मुझसे पैसे न लिए , एक आखिरी कोशिश जब मैंने फिर करनी चाही तो उसने मुझसे कहा साहब आप इतने दिन हमारे एस डी एम रहे कभी हमें अनावश्यक परेशान नहीं किया , अब मेरा आपसे कोई स्वार्थ भी नहीं है जो इसे आप अन्यथा समझो , बस इसे हमारी याद हमारा सम्मान समझ कर भूल जाओ । मैंने उसकी ओर बेबसी से देखा हाथ मिलाया और धन्यवाद देकर गाड़ी में बैठ कर अपने गंतव्य को चल दिया | ये भी एक उपहार ही था जो मुझे आज भी याद है , ये और बात कि वो उन सज्जन से ये मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी ।