साँच कहै ता/जयराम शुक्ल
डिजिटल फ्राड..! कंप्यूटर युग की शुरुआत में जो आशंका थी इस डिजिटल युग में अब यथार्थ है। एक जानकारी के अनुसार भारत में डिजिटल फ्राड की रकम 100000 करोड़ रुपये के ऊपर पहुंच चुकी है। मध्यप्रदेश के डीजिटल टेंडर जैसे ‘अनुषांगिक फ्राड़ों’ को जोड़ दीजिए तो यह रकम 2 लाख करोड़ रुपए के ऊपर बैठेगी।
11500 करोड़ का फ्राड तो अकेले नीरव मोदी का है। इन सभी फ्राडियों का आधारकार्ड तो जरूर होगा, मोबाइल और पैन के साथ लिंकिंग भी होगी और ये सब बैंकों से भी लिंक होंगे, ये सभी बैंक रिजर्व बैंक से, रिजर्वबैंक वित्तमंत्रालय से और वित्तमंत्रालय पीएमओ से।
इस लिंकमलिंक में कहीं न कहीं आईटीडी, ईडी, सेबी भी लिंक होंगे, पर पता तब चलता है जब फ्राड हो जाता है। अब इन लिंकों को खगालते रहिए, इनका डाटा एनालसिस करिये। चिड़िया सब चुग-चुगाकर फुर्र हो गई। वह भी माल्या, ललित मोदी और कई अन्यों की भाँति इतनी जल्दी जाल में नहीं आने वाली।
लुकआउट, रेडकार्नर कोई भी नोटिश जारी करते रहिए लिस्बन और लाँसबेगास के कैसीनों और जलवाघरों के दरबानों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, उनके अंदर ये सब के सब महफूज हैं। अगले बजट में ये सब बट्टे खाते में डालकर और फिर टैक्स के कोड़े से पब्लिक की चाम खैंचिए हर बार की तरह वो उफ नहीं बोलेगी।
हाँ जहाँ तक रही बात डिजटलाइजेशन की तो वह अपना रमचन्ना भोग रहा है। जिसका आधारकार्ड पीडीएस सिस्टम से लिंक होने से पहले ही कंप्यूटर का सर्वर डाउन हो जाता है और उसे हर बार राशन की दुकान से बैरंग लौटना पड़ता है।
रमचन्ना एक मजदूर है। ठेके पर मजदूरी करता है। मेरे घर में काम करने वाले मिस्त्री का सहायक। अचानक गायब होने के एक महीने बाद जब प्रगट हुआ तो बताया कि आधार कार्ड में उसकी उम्र 5 साल और बाप की जगह उसके बेटे का नाम है। इसगड़बड़झाले के चलते उसे पीडीएस का राशन नहीं मिल पा रहा है क्योंकि लिंक नहीं हो पाया। उसने बताया की रोज चक्कर लगाने के बाद एक दिन जब सब बन-बुना गया तो पहले की भाँति सर्वर फिर डाउन हो गया। उसे पहले जैसे 11किलोमीटर अपने गाँव लौटना पड़ा। अब वह अपना आधारकार्ड लिंक कराने के लिए पड़ोसी के बेटे को देकर मजदूरी पर हाजिर हुआ है।
श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी का लंगड़ खसरा-मिसिल से निकलकर आधारकार्ड तक आ गया, कोई बताए क्या ये कम तरक्की है अपने देश की ?..हुँह..डिजिटल इंडिया।
इस सर्वर और डिजिटल फीडिंग के फेर में एक बार मैं ही फँस गया। मेरे पास रेल्वे का प्रेस कंसेशन कार्ड है। हर दो साल में रिन्यू होता है। पिछली मर्तबे भोपाल स्टेशन से रिन्यू करवाया। रिन्यू के बाद आवंटित नए नंबर को फीड करने की बारी आई तो चाय की शिप के साथ समोसा भकोसते हुए बाबू ने फरमाया- जाइए अपना टाइम बरबाद मत करिए सर्वर डाउन है, आनलाइन होते ही इसे फीड कर देंगे..निश्चिंत रहिए।
जब स्टेशन में टिकट कटाने गया तो काउंटर क्लर्क ने लौटाते हुए बताया कि यह नंबर तो किसी अख्तर कुरैशी के नाम से फीड है। यह उसका बडप्पन था कि उसने मुझे इस डिजिटल फ्राड में नहीं फँसाया..सस्ते में ही जाने दिया। हो सकता है अख्तर साहब मेरी आईडी में अपनी फोटो चपका कर यात्रा कर चुके हों..या कुछ और भी कर रहे हों रामजाने..!
तेरी तो…बस जय हो डिजिटल इंडिया।
ये हादसा किसी जरूरतमंद बेरोजगार नौजवान के साथ होता तो न जाने वह क्या कर बैठता.! मेरे बेटे का साथ हुआ। गनीमत यह कि वह देश के एक उच्च प्रबंधन संस्थान में पढ़ाई कर रहा था और उसे डिग्री पूरी करनी थी। पढ़ते हुए उसने यूँ ही आईबीपीएस में पीओ की परीक्षा देदी। प्रिलिम और फिर मेन्स प्रवीण्यता के साथ निकल गया। और अब बारी आई फायनल इंटरव्यू की। इंटरव्यू में लाख कोशिशों के बाद भी डिजिटल बायोमीट्रिक मशीन में उसकी अँगुलियों के निशान नहीं मिले।
ये वही अँगुलियाँ थीं जिसे बायोमीट्रिक मशीन ने पहले प्रिलिम में फिर मेन्स में स्वीकार कर ली थी। फाइनल इंटरव्यू में प्रश्नकर्ताओं ने नहीं अपितु एक डिजिटल डिब्बे ने रिजेक्ट कर दिया। अलबत्ता दिलासे के लिए बैंक के बोर्ड ने इंटरव्यू लिए पर जब फाइनल रिजल्ट आया तो उसमें नंबर की जगह दर्ज था-डिसक्वालीफाई इन इंटरव्यू।
ऐसा कितनों के साथ नहीं हुआ होगा..या आगे होगा। लेखा लगाइए ये डिजीटल गड़बडियाँ कितनों का न कँरियर खा चुकी होंगी..! जिम्मेदार कौन..? वक्त के रगड़े ने न जाने कितने युवाओं के हाथ की भाग्यरेखाओं को घिस दिया है। संवेदनहीन मशीन को क्या मालूम उसके एक रिजेक्शन से कितनों की गिरस्ती का शिराजा पलभर में बिखर जाता है।
.. हेल डिजिटल इंडिया।
अपने देश में मार्डन बनने व ग्रोथरेट का उच्च आँकड़ा छूने की ऐसी काटनहार होड़ है कि सभी को भेंड़ की तरह हाँका जा रहा है। अभी साक्षरता के आँकड़े को पचहत्तर पार नहीं पहुँचा पाए कि ऊपर लाद दिया डिजिटलाइजेशन।
देश में कंप्यूटर लिट्रेसी बमुश्किल दस से बारह प्रतिशत है और सब कुछ कंप्यूटर में। खसरा-खतौनी-नकल-मिसिल सबकुछ डिजटलाइज। फिरभी रोज लंबी घूँस लेते पटवरी,कानूनगो,राजस्व अधिकारी धरे जाते हैं। ठेका-परमिट-पेमेंट सबकुछ आँनलाइन फिर भी कमीशन, फिर भी फ्राड। डिजिटलयुग की बात इसीलिये होती है न कि सब कुछ पारदर्शी होगा, कहाँ गई पारदर्शिता।
नीरव मोदी व अन्य फ्राडिए कोई झोले या सूटकेश में तो 11500 करोड़ की रकम ले नहीं गए होंगे। रकम भी आनलाइन ट्राँसफर हुई होगी और बैंक की अंडरटेकिंग भी। फिर भी बैठे रहे ओके पर ओके करते हुए। लेखा लगाएं, तो निकलेगा व्यवस्था के डिजिटलाईजेशन के बाद फ्राड और करप्शन बढ़ा ही है।
मशीन के पास दिल नहीं होता। जितनी रकम गबन करने में हाँथ कँपते और कलेजा मुँह में आ जाता, उतनी रकम एक क्लिक में इधर से उधर हो जाती है। गरीब जनता के साथ आनलाइन फ्राड की बाढ़ सी आ गई है। किसी के एटीएम से रुपये निकल जाते हैं, किसी के क्रेडिट कार्ड से दूसरा शापिंग कर लेता है। आखिरी में पता चलता है कि फ्राड करने वाला जिबांबे,नाईजीरिया,फिलीपींस में बैठा है। पहले इतनी रकम लुटेरे लूटते या डाके पड़ते तो हंगामा खड़ा हो जाता अब वही क्लिक से हो रहा है। कहाँ फरियाद करें,कहाँ रपट लिखाएं। सरकार ने डिजिटल मायाजाल तो फैला लिया पर उसकी सुरक्षा के पहरेदार नहीं तैयार किए।
तरक्की, ठीक बात है। जमाने के साथ कदम तो मिलाना होगा। ये आधार,पैन सब ठीक हैं पर तब जब देश का एक-एक नागरिक इस डिजिटल दुनिया को जाने, इसकी अच्छाई भी इसकी बुराई भी। सिर्फ पाँच प्रतिशत लोग कंप्यूटरी लिट्रेट और यह थोप दिया गया सवा अरब लोगों के ऊपर बिना तैयारी के, बिना चेक एंड बैलेंस बनाए?
तकनीक दोधारी तलवार होती है वह या तो भला करती है या बुरा। चरित्र से वह तटस्थ रह ही नहीं सकती। बंदर के हाँथ उस्तरा लग जाए तो वह मालिक की नाक काटेगा या अपना गला। जरूरी है उस्तरे के सही उपयोग करने के अभ्यास का, जिसके बारे में हमारे नीति नियंता तनिक भी नहीं सोचते। उनके लिए तो डिजिटल इंडिया बस एक नारा है। जितनी जोर से बोलेंगे,उतने ही ज्यादा वोट झरेंगे..क्यों सही कह रहे हैं न..?