चुनाव जीतने की रणनीति में साथ दिया क्या कांग्रेस के क्षत्रपों ने ?

Share on:

नितिनमोहन शर्मा

क्या कांग्रेस संजय शुक्ला की विजय चाहती थी? क्या वाकई संजय की वो रणनीति सफल रही जिसमे कांग्रेस को एक तरफ रख चुनाव लड़ना मुकर्रर हुआ था? भाजपा के वोट में सेंधमारी का दावा करने वाली कांग्रेस के अंदर सब टीम शुक्ला के मुताबिक ठीक चला?? भाजपा के भितरघात पर पीठ ठोक रही टीम शुक्ला क्या अपने ही दल में हुए सेबोटेज से बच पाई? क्या पार्टी के स्थानीय बड़े क्षत्रपो ने संजय शुक्ला के लिए पूरी ईमानदारी से काम किया??

ये सारे सवाल आज हो रहे कांग्रेस के “नगर भोज” के कारण सामने आ गए। इस महाभोज में पूरी कांग्रेस जुट रही है। कार्यकर्ता से ज्यादा चर्चा नेताओ का है। पार्टी का औसत कार्यकर्ता तो अपने ” संजू ” के लिए प्राणप्रण से जुटे थे। लेकिन जीत के दांवों के बीच पार्टी के बड़े नेताओ की भूमिकाओं को कैसे बिसराया जेआ सकता है? इसमें पार्टी के दोनों विधायक जीतू पटवारी ओर विशाल पटेलनक साथ कद्दावर नेता सज्जन सिंह वर्मा, अश्विनी जोशी, सत्यनारायण पटेल, शोभा ओझा, रघु परमार से लेकर विनय बाकलीवाल तक के नेता शामिल है।

Read More : डॉलर के मुकाबले 80 के पार निकलने वाला है रुपया, पिछले वर्ष 5 रुपए से ज्यादा गिरा

नगर भोज से एक दिन पहले ये नेता फिर से मैदान में दिखने लगे। कुछ तो भोजनशाला तक एक दिन पहले पहुंचे और कड़ाही में पलटा चलाते फोटो सेशन भी करवाया कि…. हम सब साथ साथ है। लेकिन चुनावी समर भूमि में हकीकत इसके ठीक उलट थी। बड़े क्षत्रपों ने अपने अपने इलाको तक ही स्वयम को सीमित कर लिया था। स्वयम को अपने क्षेत्र तक समेट लेने की ये रणनीति चुनाव जीतने के लिए थी तो फिर कांग्रेस में भी भितरघात की चर्चा क्यो?

दिग्विजय-कमलनाथ की छाया

संजय शुक्ला का चुनाव भी पार्टी के दो बड़े प्रदेश स्तरीय क्षत्रपों के बीच चल रहे शाह मात के खेल की छाया से अछूता नही रहा। कहने को दिग्विजय सिंह की इन्दोर यात्रा से इसलिए परहेज किया गया कि उनके आने से वोट कम हो जाएंगे लेकिन दिग्विजयसिंह गुट से जुड़े नेताओ ने वोट जोड़ दिए? घर घर दस्तक में पसीना बहाया? कोई आक्रामक बयानबाजी के साथ सामने आया? भाजपा पर तीखे हमले करने वाले सजन वर्मा की पूरे चुनाव में चुप्पी ने भी सबको हैरत में डाला। यहां तक कि वे राजेश शर्मा भी इस बार मौन रहे जो हर चुनाव में पार्टी का सबसे मुखर चेहरा रहते है। तथ्य और तर्क के साथ इस बार ये ” कामरेड” भी रामचन्द्र नगर से टोरी कार्नर तक ही सीमित रहे।

नेता और उनका इलाका…संजू का क्या??

कांग्रेस विधनासभा 1 में तो चुनाव लड़ती दिखी। यहाँ से विधायक संजय शुक्ला स्वयम चुनाव लड़ रहे थे। यहां उनका मैनेजमेंट प्रत्येक बूथ तक काम कर रहा था। सबसे ज्यादा मतदान का प्रतिशत भी यही का रहा। विधनासभा 2 में कांग्रेस भाजपाई कमजोरी और अंतर्विरोध में स्वयम के लिये उम्मीद तलाश रही थी। विधनासभा 3 में कांग्रेस अश्विन जोशी और पिंटू जोशी के बीच झूलती रही। यहां इसका परिणाम अल्पसंख्यक वोटिंग के कम प्रतिशत से नजर भी आता है। विधनासभा 4 में अरसे से कांग्रेस का कोई “धणी धोरी” नही है।

Read More : मुंबई : आदित्य बिरला सन लाइफ इंश्योरेंस ने एबीएसएलआई फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान किया लॉन्च

पार्टी के लिए भाजपा की इस “अयोध्या” में सब कुछ “रामभरोसे” था। विधनासभा 5 में पार्टी के पास नेताओ की भरमार है। खजराना ओर आजाद नगर जैसे बड़े अल्पसंख्यक इलाके भी बड़ी उम्मीद के केंद्र रहे। लेकिन यहां टिकिट वितरण के वक्त से ही बड़े नेताओं ने ऐसा खेल बिगाड़ा की खजराना आज़ाद नगर जैसे कांग्रेसी गढ़ में भी मतदान 54-58 प्रतिशत तक सिमट गया। राऊ विधानसभा में तो जीतू पटवारी जैसे ” नेशनल लीडर” थे लेकिन वे बिजलपुर राजेंद्रनगर तक सीमित रहे। अपनी वाक पटुता के लिए पहचाने जाने वाले पटवारी उस दिन भाजपा और कैलाश विजयवर्गीय पर हमला करते नजर आये जब संजय शुक्ला उनके लिए में जनसम्पर्क के लिए पहुंचे।

यादव वोट “बाणेश्वरी” के साथ गया क्या??

विधनासभा 1 का पुराना यादव शुक्ला “संघर्ष” क्या इस बार के चुनाव में खत्म हो गया? क्या यादव वोट शुक्ला की झोली में गए? ये सवाल पार्टी के बड़े यादव नेता छोटे यादव के साथ इस “छोटे चुनाव” में हुई “बड़ी हरकतों” के कारण सामने आया। समाज मे भी चर्चा का विषय बना। यादव बनाम शुक्ला संघर्ष बाणगंगा इलाके की पहचान बना हुआ है। अरसे से ये राजनीतिक चलन है यहां पर की शुक्ला परिवार से कोई चुनाव मैदान में है तो यादव समाज का वोट खिलाफ जाता है और यादव समाज से कोई चुनाव में दो दो हाथ कर रहा है तो ” बाणेश्वरी” परिवार से जुडा वोट बैंक छिटक जाता है।

सुदर्शन गुप्ता अपना पहला विधानसभा चुनाव इसी समीकरण को साधकर संजय शुक्ला से जीते थे और कांग्रेस से सीधा जुड़ाव होने के बाद भी गुप्ता पूरे समय यादव समाज के चुनिंदा नेताओ के हर कामकाज की ढाल बने रहे। हालांकि गुप्ता को यादवों का ये साथ संजय शुक्ला के साथ 2018 में हुए दूसरे मुकाबले में नही मिल पाया ओर वे चुनाव हार गए। 2018 में विधानसभा 1 का यादव बिरादरी वोट कांग्रेस को गया लेकिन इसका कारण यादव शुक्ला के बीच संघर्ष समाप्ति का नही था। यादव समाज भाजपा की नगर निगम द्वारा गो पालकों के साथ हुए सलूक से भाजपा से रूठा था। तो क्या इस बार यादव वोट संजय के खाते में गया? आमतौर पर कांग्रेस के मिजाज से जुड़े इस बिरादरी का वोट अगर “बाणगंगा” की चली आ रही परिपाटी पर ही चला तो फिर..?? इस सवाल का जवाब 17 को ही अब सामने आएगा।

रोज तैयार होते थे नेता, जीप की सवारी नही मिली

कांग्रेस के स्थानीय क्षत्रपों में इस बात की गहरी नाराजगी भी थी कि संजय स्वयम ही पूरी कांग्रेस बन चुनाव लड़ रहा है। टीम शुक्ला की रणनीति संजय शुक्ला को इन नेताओं से दूर करती रही लेकिन ये दूरियां ही नेताओ के मन मे दुविधा बड़ा रही थी। बावजूद इसके बड़े नेता रोज अप डु डेट होते थे कि क्या पता कब बुलावा आया जाए और हम भी उस जीप में सवार हो जाये जिसमें खड़े रहकर शुक्ला मतदातओं के बीच जा रहे है। लेकिन कांग्रेस के इन सब बड़े नेताओ के खाते में कलफबन्द कपड़ो की क्रीज खराब करने और सिवाय इंतजार के कुछ हाथ नही आया।

दिग्गी नही आये, यादव क्यो नही आये??

दिग्विजयसिंह से तो वोट टूटने का डर था लेकिन मालवा के बगल निमाड़ में बेठे पार्टी के बड़ें नेता अरुण यादव ने भी इस चुनाव से दूरी बनाकर रखी। स्व रामलाल यादव जब चुनाव लड़ते थे निमाड़ से भी उनके लिए हर तरह की ” रसद ” उपलब्ध होती थी। यादव परिवार से दीपु यादव भल्लू भैय्या की विरासत संभाले हुए है लेकिन उनकी सक्रियता वार्ड 10 से बाहर नही हो पाई।

नेता प्लानिंग से दूर थे या “जमा” कर रहे थे

क्या वाकई कांग्रेस के सभी स्थानीय नेताओं ने संजय शुक्ला की उस रणनीति का साथ दिया जिसमें पार्टी ओर पार्टी नेताओं से दूरी बनाकर चुनाव लड़ना व जीतना शामिल था? या फिर सब नेता मिलकर शुक्ला का ” स्थायी समाधान ” करने में जुट गए थे कि “जमा करो” इसको…बार बार चुनोती दे रहा है। अगर ऐसा हो गया हो तो….ये चिंता टीम शुक्ला में पसरी हुई है।