देवशयनी एकादशी: भगवान विष्णु चार माह तक रहेंगे योग निद्रा में, मांगलिक कार्यों पर रहेगा विराम

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आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवशयनी एकादशी व्रत किया जाता है। इस बार यह एकादशी 10 जुलाई को मनाई जा रही है। सनातन धर्म में इस एकादशी का काफी महत्व माना जाता है क्योंकि आज से भगवान विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर गहरी निद्रा में चले जाते हैं। इसके बाद कार्तिक मास की एकादशी तिथि तक को भगवान विष्णु योगनिद्रा से निकलते हैं। इस दौरान भगवान शिव सृष्टि का संचालन करते हैं। देवशयनी एकादशी व्रत कथा का शास्त्रों में विशेष महत्व बताया गया है। इस व्रत की कथा सुनने मात्र से व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।

वामन पुराण के अनुसार, एक बार राजा बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया था। यह देखकर इंद्र समेत अन्‍य देवी-देवता घबरा गए और भगवान विष्णु की शरण में पहुंच गए। देवताओं को परेशान देखकर भगवान विष्‍णु ने वामन अवतार धारण किया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंच गए। राजा बलि ने वामन देवता से कहा कि जो मांगना चाहते हैं मांग लीजिए। इस पर वामन देवता ने भिक्षा में तीन पग भूमि मांग ली। पहले और दूसरे पग में वामन देवता ने धरती और आकाश और पूरा संसार को नाप लिया। अब तीसरे पग के लिए कोई जगह नहीं बची तो राजा बलि से वामन देवता ने पूछा कि तीसरा पग में कहां रखूं तब राजा बलि ने अपना सिर आगे कर दिया।भगवान विष्णु राजा बलि को देखकर काफी प्रसन्‍न हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा। बलि ने उनसे वरदान में पाताल लोक में बस जाने की बात कही। बलि की बात मानकर उनको पाताल में जाना पड़ा। ऐसा करने से समस्‍त देवता और मां लक्ष्‍मी परेशान हो गए। अपने पति विष्‍णुजी को वापस लाने के लिए मां लक्ष्‍मी गरीब स्‍त्री के भेष में राजा बलि के पास गईं और उन्‍हें अपना भाई बनाकर राखी बांध दी और उपहार के रूप में विष्‍णुजी को पाताल लोक से वापस ले जाने का वरदान ले लिया।माता लक्ष्‍मी के साथ वापस जाते हुए भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया की वह प्रत्‍येक वर्ष आषाढ़ शुक्‍ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास की एकादशी तक पाताल में ही निवास करेंगे और इन 4 महीने की अवधि को उनकी योगनिद्रा माना जाएगा। यही वजह है कि दीपावली पर मां लक्ष्‍मी की पूजा भगवान विष्‍णु के बिना ही की जाती है

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प्राचीन काल में साधु संन्यासी भी इन 4 महीनों में यात्रा नहीं करते थे। वे जहां पर रहते थे वहीं पर 4 महीने टिक कर भगवान का भजन कीर्तन और धार्मिक क्रियाओं को संपन्न किया करते थे। इसलिए चतुर्मास को धार्मिक कार्यों और साधना के लिए उत्तम माना जाता है लेकिन सांसारिक कार्यों के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। क्योंकि धार्मिक मत यह कहता है कि इस समय शादी, मुंडन, जनेऊ जैसे सांसारिक कार्यों को करने से भगवान का आशीर्वाद नहीं मिल पाता है।जबकि व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो इस समय वर्षा ऋतु होने से हर जगह जलभराव रहता है ऐसे में यात्रा करना और सांसारिक कार्यों का आयोजन करना कठिन और संकटकारी हो सकता है इसलिए यह समय संयमित भाव से रहने का होता है।

देवशयनी एकादशी 10 जुलाई को होने से चतुर्मास आरंभ हो जाने की वजह से 10 जुलाई से अगले 4 महीने तक शादी की कोई तिथि नहीं रहेगी, विवाह तिथि का आरंभ 4 नवंबर को हरिप्रबोधिनी एकादशी के दिन होगा। चतुर्मास लग जाने पर ऐसा माना जाता है कि धरती पर मौजूद सभी तीर्थ व्रज भूमि में आकर कान्हा की सेवा करते हैं इसलिए चतुर्मास के दौरान सभी तीर्थों का पुण्य एक मात्र व्रज की यात्रा और दर्शन से मिल जाता है