अनिल त्रिवेदी
जो जितना मंहगा है वह उतना अच्छा ही हो यह हमेशा जरूरी नहीं है।किस वस्तु की क्या कीमत हो यह तय करने का कोई पैमाना और मापदण्ड दुनिया भर में अभी तक बना नहीं है और शायद बनेगा भी नहीं,फिर भी अधिकांश लोग मंहगें को खुली लूट नहीं मानते या महंगे को लूट की संज्ञा नहीं देते।महंगे को पाने की लालसा मनुष्य में लगातार बनी रहती है पर नकारने की हिम्मत हमेशा मन में नहीं आती।यह हमारे मन सोच और जीवन का अजीब विरोधाभास है की हम मंहगे को लेकर अंर्तमन में कुढ़ते जरूर है पर उसे नकारने उस पर सवाल उठाने या उसे खुली लूट मानने की मानसिक तैयारी बन ही नहीं पाती।एक सवाल यह भी मन में आता है कि महंगे को नकारेंगे तो जमाना हमें गरीब,दीनहीन और बिना आर्थिक हैसियत का मानेंगा।यह मिथ्याभय भी महंगे के साम्राज्य विस्तार होने का एक महत्त्वपूर्ण कारक है।पैसे से ही चलनेवाली सभ्यता पैसे की जकड़न से मनुष्य मन को पैसा केन्द्रित बना देती है,नतीजा मनुष्य अपने जीवन की हर गतिविधि को पैसे के आधार पर ही जानता मानता और समझता है।पैसे से अलग कोई विचार मन मस्तिष्क में ठहरता ही नहीं है।इससे हम सब में यह समझ विकसित होती जा रही हैं कि पैसे से मूल्यवान कुछ भी नहीं है।जबकी पैसे के अविष्कार ने मनुष्य के प्राकृतिक जीवन के स्वावलम्बन को न के बराबर करते हुए पैसे के परावलम्बन को रोजमर्रा की जिन्दगी में प्रविष्ठ कर दिया। हमारे जीवन में आयी परावलम्बन की अतिशय प्रतिष्ठा ने पैसे को जिन्दगी का पर्याय बना दिया हैं।
पैसे की अतिशय प्रतिष्ठा ने आज हम जहां खड़े हैं वहां जो वस्तु, विचार, सेवा या तकनीक बहुत महंगी हैं उसे हम पहली निगाह में ही अच्छा ही मानने के आदी होते जा रहे हैं।इसका नतीज़ा यह होने लगा है कि हम सबका जीवन निरन्तर तनावपूर्ण इसलिये होता जा रहा है कि महंगा जीवन हमारे जीवन का क्रम बन गया है।महंगी मनमानी कीमत को जुटाने में ही हमारी जिन्दगी की जीवन्तता के लगभग खात्मे के साथ अंतहीन असंतोष हमारे जीवन में आता जा रहा है और फिर भी जानते बूझते हुए भी हम सब मूकदर्शक बने हुए हैं।हम महंगी चीजों सुविधाओं को इसलिये अपनी जिन्दगी में अपना रहे हैं कि हमें लगता है कि महंगी चीजों को नकारेंगे तो हम कमजोर वर्ग के माने जायेंगे।हमारी इस सोच ने हर महंगी वस्तु और सुविधा को खुली लूट का निरन्तर जरिया बना दिया है।महंगे का आकर्षण बढ़ेगा तो जीवन का तनाव कभी खत्म ही नहीं होगा।
जीवन के लिये आवश्यक जितनी भी बुनियादी जरूरतें है वे सब अमूल्य है फिर भी उनके महंगे सस्ते होने का सवाल अभी तक मानव के मन मस्तिष्क में आया नहीं है।हवा प्रकाश पानी अमूल्य है पर प्रत्येक मनुष्य के लिये सर्वसुलभ है।मनुष्य ने अपने कृतित्व और भाष्य से जिन जिन जरूरतों को मनुष्य की बेहतरी या विकास के लिये जरूरी बताया वे सब निरन्तर महंगी होती जा रही है।शिक्षा और स्वास्थ्यसेवा तो दिन दूनी और रात चौगुनी गति से महंगी होता जा रहीहै और दुनिया भर में लाभ हानि का मुक्तव्यापार बनती जा रही है।जिसे ताकतवर से लेकर कमजोर तबके तक सब लोग टुकूर टुकूर देखते हैं दु:खी होते हैं रोते और झल्लाते रहते हैं फिर भी न केवल महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को सहन करते हैं वरन उसे विकास की जरूरत भी बताते हैं। यह विरोधाभास तो समझ में आता है पर यह समझ में नहीं आता कि आधुनिक समाज समान और सर्वसुलभ सस्ती शिक्षा और स्वास्थय व्यवस्था के लिये अपनी जबान क्यों नहीं खोलता या सवाल क्यों नहीं उठाता।समान शिक्षा हम क्यों नहीं चाहते?अपने पूरे जीवन को बेहतर बनाने के लिये हम शिक्षा की कल्पना करते हैं पर हमारा और हमारे बच्चों की जिन्दगी को हम तनाव मुक्त नहीं बना पाते।भारत जैसा देश, जहां अस्सी करोड़ से ज्यादा आबादी गरीबी की रेखा से नीचे की श्रेणी में आती है में महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा लगातार महंगी होती जा रही है।इतनी महंगी कि उच्च शिक्षा के लिये उच्च मध्यम वर्ग को बैंक से ऋण लेना सामान्य बात हो गयी हैऔर स्वास्थय के लिये लाखों का बीमा करना समाधान हो गया।फिर भी लोग वैचारिक रूप से लाचार और महंगी शिक्षाऔर स्वस्थ्य सुविधा लेते रहने के न केवल आदी हो गये वरन गर्व करने लगे देखो कितनी महंगी शिक्षा हम अपने बच्चों को दिला रहे हैंऔर हमने तो बीमा भी करा लिया है।महंगी वस्तुओं और सुविधाओं का आदी होना एक तरह से खुली लूट को जीवनावश्यक गतिविधि बना देने जैसी मन:स्थति का बन जाना है।हमारी समझदार और नासमझदार आबादी महंगाई पर मौन है।
जीवन जीने में आह आह हो रही है फिर भी महंगी वस्तुओं और सुविधाओं की वाह वाह करते नहीं थकते।महंगा मोबाइल बाईक कार मकान शिक्षासंस्थान और चिकित्सा संस्थान का आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा है।एक जमाने में देश के हर हिस्से में लोग अपने प्रतिरोध जुलुस में खुलकर नारा लगाते थे लुटनेवाला जायेगा कमानेवाला खायेगा नया जमाना आयेगा।आज ऐसा नया जमाना आ गया कि लुटनेवाला हम सब का सिरमौर है।महंगा हमारी पहली पसंद है।महंगा चुनौती का विषय न हो जीवन में वैभव का प्रदर्शन हो गया। हमें मंहगे से नहीं सस्ते से परेशानी होती है।सस्ती आवागमन व्यवस्था, शिक्षा – चिकित्सा सुविधाओं को दोयम दर्जे में धकेल कर हम आगे आकर महंगी चीजों को जीवन का अंग बना चुके हैं।महंगी वस्तुओं की हमारी दीवानगी ने खुली लूट को जायज स्वरूप का बना दिया है।इसी का नतीजा हुआ है घोर विषमता और विरोधाभासों से भरपूर हमारा समाज और लोकतंत्र खुले लूटतंत्र में अपने आप बदल गया है।हम जमीनी स्तर पर मजबूत लोकतंत्र बनाने में भले ही सफल न हुए हों पर जमीनी स्तर पर सरकारी असरकारी लूट तंत्र खड़ा करने में जरूर कामयाब हुए हैं। हम महंगे को लूट के बजाय अपनी हैसियत बढ़ना समझने लगे हैं!तभी तो महंगा हमारी चर्चा और चिन्ता का नहीं आकर्षण का विषय बन गया है।यह नये जमाने की खुली हकीकत है जिसमें हम लूटतंत्र में भागीदारी पसंद करते हैं और लोकतंत्र में अनमने रहना पसंद करने लगे हैं।