नगर निगम में फर्जी बिल घोटाले का आंकड़ा तुअर दाल, शक्कर से लेकर सोने के भाव में तेजी की तरह बढ़ता ही जा रहा है। एक करोड़ से शुरु हए घोटाले के बढ़ते हुए ये आंकड़े के बाद सौ करोड़ को पार करते जाने के बाद भी कहीं कोई हलचल नहीं है। अभी जब चारों तरफ चार सौ पार का अभियान चल रहा हो तब इस घोटाले का सवा सौ करोड़ पार पहुंचना वैसे भी चिंता की बात नहीं होना चाहिए।
आम नागरिकों को तो महापौर की इस सजगता की तारीफ करना चाहिए कि घोटाला जिस दिन सार्वजनिक हुआ उस दिन से लेकर इसके महाघोटाला साबित होने के हर दिन तक वो पुलिस जांच के साथ ही दोषियों को छोड़ेंगे नहीं जैसा राग अलाप तो रहे हैं।प्याज के छिलकों की तरह घोटाले के परत दर परत खुलते रहस्य से इस निगम परिषद को यह सुकून तो मिल ही गया है कि यह जादूगरी तो पहले वाली परिषद के वक्त से चली आ रही है यानी असल दोषी तो पहले वाले हैं।
इस घोटाले के दोषी गिरफ्त में नहीं आने के कारण पुलिस को ईनाम भी घोषित करना पड़ा है। जाहिर है ईनाम घोषित करने के बाद अपराध अनुसंधान की वरीयता सूची से ऐसे मामले निचले क्रम पर चले जाते हैं। पिछली परिषद के वक्त से जारी घोटाले को इस परिषद के मुखिया नहीं समझ पाए तो उनकी राजनीतिक मजबूरी समझी जा सकती है। तत्कालीन निगमायुक्त हर्षिका सिंह जब तक पद पर रहीं नगर पिता से लेकर MIC सदस्यों से हर दिन बढ़ती दरार के किस्से भी इसी शहर ने देखे-सुने हैं। क्या माना जाए निर्वाचित प्रतिनिधियों और सरकारी अफसरों के बीच जब अबोला बढ़ने लगे तो क्या उसके कारणों में ऐसे घोटालों से आंखें फेर लेना भी होता है।
देश भर में सतत सात बार स्वच्छता सर्वेक्षण में नंबर वन रहे इंदौर को लेकर नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार के वक्तव्य से आगबबूला निगम के कर्णधारों को इस महाघोटाले को लेकर भी जवाब देना चाहिए कि इसे अंजाम देने वाले शातिर ठेकेदार फर्मों से कौन यारी-दोस्ती निभा रहा था। ये वही नगर निगम है जिसके एक बड़े ठेकेदार पप्पू भाटिया ने ठेके वाले निर्माण कार्यों की चालीस करोड़ बकाया राशि नहीं मिलने के कारण आत्महत्या कर ली थी।
भाटिया की आत्महत्या इसलिए अजूबा मानी गई थी कि कोई ठेकेदार सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि वह अपने मजदूरों, निर्माण कार्य से जुड़ी सहायक एजेंसियों का भुगतान करने और अपने नाम-काम की इज्जत बचाए रखने के लिए लिए ब्याज पर पैसा लेकर उनका भुगतान करने के तनाव में मौत को गले लगाने पर मजबूर हो जाता है। उसी नगर निगम के बाकी ठेकेदारों के घोटालों का आंकड़ा करोड़ों से बढ़कर अरब की तरफ जाता है तो निगम को विभिन्न मदों में टैक्स चुकाने वाले आम इंदौरी के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वह सारे टैक्स समय पर इसीलिए चुकाता रहे कि भ्रष्ट ठेकेदारों को संरक्षण देने वाले नेताओं का गठजोड़ मजबूत होता रहे।
पहले वाले महापौर हों या अभी वाले क्या यह मान लें कि इन्हें घोटाले पकड़ने की कला नहीं आती है, या सम्मोहिनी विद्या में पारंगत ठेकेदार इन निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को अपने वश में करने के बाद ही निर्माण कार्यों का टेंडर भरने का साहस दिखाते हैं। न्यायालय भी हर प्रकरण में गवाही और जमानत देने वाले को एक ना एक दिन तो पहचान ही लेता है और पुलिस सेंटिंग का सारा खेल बिगाड़ देता है। फिर क्या वजह है कि वर्षों से कुछ गिने चुने ठेकेदार-फर्मों का ही नगर निगम में जंगल राज कायम है।
माना कि ठेकेदारों और अधिकारियों की साठगांठ से ही सभी विभागों में घोटालों का खेल चलता रहता है लेकिन अधिकारियों और उन्हें संरक्षण देने वाले नेताओं के गठजोड़ की अंतरकर्था का इतिहास सार्वजनिक क्यों नहीं हो पाता? इस कांड के दोषी ठेकेदार और उनकी फर्मों का काला सच एक दिन तो सामने आएगा ही, रिश्ते निभाने वाले बड़े अधिकारी और संबंधित समितियों के अध्यक्षों का सच भी सामने आ पाएगा क्या? कानूनी बारीकियों के जानकार महापौर इस घोटाले के कीचड़ से अपनी टीम के अध्यक्षों को कैसे बेदाग रख पाएंगे यह देखना बाकी है।