अनिल त्रिवेदी
भारत एक लोकतांत्रिक देश है पर कोरोना काल में हमारे लोकतंत्र के दो हिस्से हो गये।पहला हिस्सा नितनयी हलचल वाला लोक दूसरा हिस्सा लगातार असमंजस में तंत्र।कोरोना ने लोगों के जीवन, और मन में न केवल ढेर सारी चुनौतियां और सवाल खड़े कर दिये साथ ही साथ निरापद जीवन की अंतहीन चाह ने कई सारी नई हलचलें भी पैदा की। पर दूसरी ओर भारत के लोकतंत्र का लगभग समूचा तंत्र अभी तक असमंजस भरे सन्नाटे में ही है।करीब करीब समूचा तंत्र एक तरह से बिना किसी हलचल के असमंजसग्रस्त दिखाई पड़ रहा है।
कोरोना काल में समूचा तंत्र एक तरह से करोना की चुनौती में उलझ कर अन्य मामलों तंत्र की सामान्य गतिविधियां लगभग शिथिल सी हो गयी और अभी तक सामान्य कामकाज करते रहने की मनःस्थिति को खड़ा करने का कोई छोटा मोटा सा संकेत भी हमारा तंत्र दे नहीं पा रहा है।भारत की संसद और विधानसभायें भी सामान्य कामकाज करने की मनःस्थिति में अब तक नहीं आ पायी हैं।संसदीय और विधायी कार्य भी एक तरह से पूरी तरह ठप है।सारे चुने हुए जनप्रतिनिधि अपनी मुखर और सतत् सक्रिय भूमिका को सामान्य रूप से निभाने के लिये कोई पहल या नया रास्ता खोजने की ओर कदम बढ़ा रहे हो या विचार विनिमय भी कर रहे हो ऐसा जरा सा आभास मात्र भी नहीं हो पा रहा है।
यही हाल न्याय के क्षेत्र में भी है वकील और न्यायाधीश तो विचार विनिमय और समस्या समाधान या हल खोजने वाली दुनिया का नेतृत्व करने वाली लोकमान्य बिरादरी है।फिर भी नौ दस माह से समूची न्यायिक बिरादरी भी सामान्य कामकाज नहीं कर पा रही है।इस चुनौती से निपटने की कोई नई पहल या रास्ता खोजने का कोई विचार विमर्श चर्चा में भी नहीं है सब इंतजार कर रहे हैं। कार्यपालिका भी एक तरह से कामचलाऊ तरीके से ही काम करने की रस्म अदायगी ही कर पा रही है।अपने और देशवासियों के मन का भय कम या दूर नहीं कर पा रही है।अत्यावश्यक सेवाओं को छोड़ सामान्य कामकाज भी सामान्यतः होता दिखाई नहीं दे रहा है सार्वजनिक परिवहन सुचारू तरह से चल नहीं पा रहा है।शिक्षा का क्षेत्र भी वर्तमान और भविष्य को लेकर असमंजस का शिकार हो साकार
कुछ भी तय नहीं कर पा रहा है।सामान्य रूप से शिक्षण कार्य प्रारम्भ नहीं हो पाया है और न ही सामान्य व सुचारू रूप से शिक्षण का कार्य खड़ा करने का देशव्यापी समाधानकारक विचार भी कहीं प्रारम्भिक विचार विनिमय के स्तर पर भी नहीं दिख रहा है।अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाओं में एक नये भय का रोग आ गया हैं।कोरोना के इलाज के इंतजाम करने की आपाधापी में सामान्य रोगों की चिकित्सा व्यवस्था ही ध्वस्त हो गयी चिकित्सकों और बीमारों के मन का भय अभी भी सामान्य स्थिति को आने नहीं दे रहा है।
याने बड़ा अनोखा दृश्य हमारे यहां लोकतंत्र के लोकजीवन में पैदा हुआ है जिसमें संसद से लेकर विधायिका, न्यायपालिका,कार्यपालिका,शिक्षणसंस्थायें और स्वास्थ्य सेवाओं में एक घुप्प अंधेरे जैसा असमंजस का सन्नाटा छाया हुआ है फिर भी देश चल रहा हैं।लोगों में कई तरह की हलचलें हैं चिन्तायें हैं पर लोग तंत्र की तरह असमंजस में हाथ पर हाथ धरे बैठे बैठे इंतजार नहीं कर रहें हैं काम कर रहे हैं खतरा उठा रहे हैं।सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था के या तंत्र के सन्नाटेभरे असमंजस में भी जीवन और जतन की हलचलें निरन्तर किसी न किसी रूप में कायम है।
यहां एक तथ्य यह याद रखना चाहिये कि हमारे लोकतंत्र के समूचे तंत्र की बागडोर या कहें तो प्रमुख भागीदारी या मुख्यभूमिका समूचे लोकसमाज के पढ़े-लिखे समझदार और नेतृत्वकर्ता लोगों की ही होती हैं।तंत्र का श्रेष्ठीवर्ग भी हर तरह से ताकतवर समृद्ध लोगों का ही प्राय: होता हैं।हमारे तंत्र में रोजमर्रा के साफ-सफाई से लेकर श्रमनिष्ठ आवश्यक सेवाओं में लोग कम पढ़े लिखे होकर आर्थिक तथा सामाजिक रूप से भी कम ताकतवर तबके के लोग ही प्राय: होते हैं। तंत्र का यह हिस्सा लाकडाऊन में भी निरन्तर बिना भय के कार्यरत रहा जो समूचे लोक समाज की मानवीय कार्यप्रेरणा का अनवरत स्त्रोत है।
खेती किसानी और श्रमनिष्ठ जीवन बिताने वाला लोक तो करोना काल में भी आंधी तूफान बारिश भीषण गर्मी लू लपट जैसी विपरीत प्राकृतिक परिस्थिति में भी काम करते रहने की अपनी मूल आदत को भूला नहीं सके और निरन्तर गतिशीलता और सहजता के साथ काम करते रहे।इस के विपरीत भारत का व्यवस्था तंत्र और उसका तानाबाना पूरी तरह असहज रुप से असमंजस में बना रहा और न खुद मार्ग खोज पाया और नहीं सहजता से सामान्य कामकाज करता दिखाई दिया।व्यवस्था तंत्र लोक- शिक्षण का मंत्र ही भूला बैठा और कोरोना काल को कानून और व्यवस्था बनाये रखने की एकांगी पुलिस प्रशासकीय शैली पर निर्भर हो गया ।समूचे कोरोना काल में समूचा तंत्र लोकजीवन को रास्ता बताने और उपाय समझाने में एकांगी प्रचार तंत्र के भरोसे ही रहा।
मीडिया भी विचार विनिमय की आधार भूमि खड़ी करने के बजाय आंकड़ों के मकड़जाल से भय का विस्तार करने में एक तरह से मददगार बन गया,स्वप्रेरणा से लोकजागृति का अलख नहीं जगा पाया।घर में ही सिमटे रहते हुए लोक और व्यवस्था दोनों में समन्वय खड़ा ही नहीं हुआ और लोगों के मन में व्याप्त भय और उठ रहे सवालों का समाधान का रास्ता अभी तक भी नहीं खुला है।एक अरब पैंतीस करोड़ की विशाल आबादी या विशाल लोक सागर के अन्तर्निहित अंर्तद्वन्दों और जरूरतों को लेकर तंत्र कोई समाधानकारी पहल कार्यपालिका ,विधायिका और न्यायपालिका सहित राजनैतिक सामाजिक जमातों के स्तर खोजता दिखाई नहीं दे रहा है।ठहरो और देखो, यथास्थिति और इंतजार करो यह तंत्र के सामूहिक विचारशून्यता और उथलेपन का स्पष्ट चित्र है ।
जो लोक के तंत्र और उस पर कायम भरोसे को खत्म करने की दिशा में बढ़ रहा हैं।समूचेतंत्र के गांव से लेकर शहर और प्रदेश से लेकर देश के आगेवान कर्ताधर्ता लोग अपनी अपनी भूमिका ही तय नहीं कर पा रहे हैं।राजनैतिक -सामाजिक ,धार्मिक -आध्यात्मिक ,चिंतक -विचारक और जीवन के कई क्षेत्रों के नेतृत्वकर्ता राष्ट्रीय संस्थान ,आई आई एम- आई आई टी सहित सारे विश्वविद्यालय -कालेज और स्कूलों के शिक्षाविद् व अनुसंधानकर्ता से लेकर सभी क्षेत्रों के सतत सक्रीय प्रोफेशनल्स।मल्टीनेशनल्स कंपनियों के प्रबन्धकों से लेकर राजनेता -समाजिक कार्यकर्ता सहित सारे छात्र और युवा सब कोई जो इतनी अधिक मानसिक आर्थिक प्रशासनिक राजनैतिक युवजनशक्तियों से सम्पन्न होते हुए भी असहाय से क्यों लगने लगे हैं? एक बात हम सबको समझना चाहिये कि ऐसी अंधी परिस्थिति और चुनौती मानव सभ्यता में पहली बार आयी है।इसके पहले ऐसा कभी संभव नहीं हुआ कि हमारे देश के मौजूदा शासन के
व्यवस्था तंत्र ने सजायाफ्ता कैदियों को जीवन सुरक्षा के लिये लम्बे पैरोल पर रिहा कर दिया और स्वतंत्र नागरिकों के जीवन क्रम को अनिश्चित काल के लिये जीवन सुरक्षा की दृष्टि से कई तरह के प्रतिबन्धों के अधीन कर दिया।आज हमारे पास पहले का बनाबनाया कोई समाधान नहीं है ।अब तक के घटनाक्रम से हमारे द्वारा बनाये विशाल व्यवस्थातंत्र का खोखलापन जिस व्यापकता से उजागर हुआ है उससे निपटने या उबरने का रास्ता हर जीवित मनुष्य को हर तरह से सोच और चिंतन कर विकसित और साकार करना ही होगा।यह जवाबदारी आज जो भी जीवित है और आगे लंबे समय तक सही मायने में निरापद जीवन
चाहते हैं उन सब पर है।हम सब लोग हमारे घर परिवार,समाज व आजीविका शिक्षा स्वास्थ्य न्याय ,आवागमन सहित जीवन के सारे आयामों को लेकर सतत आशंका ग्रस्त मानसिक परिस्थिति से उबरने का रास्ता किस तरह खोजें यह चुनौती कोरोना काल ने हमारे लोक और तंत्र दोनों के सामने उपस्थित की है।हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि इस परिस्थिति से उबरने का रास्ता आसमान से टपककर या किसी और अज्ञात अनखोजी दुनिया से नहीं आनेवाला है।वह रास्ता हम सब आज जो भी जीवित मनुष्य है उनके दिमाग में ही सोचने विचारनेऔर चिंतन की निरन्तर प्रक्रिया से ही विकसित हो सकता हैं दूसरा कोई विकल्प हमें उपलब्ध ही नहीं हैं।
यह चुनौती आज की समूची दुनिया के सभी मनुष्यों के सामने है कि कोरोना काल से पहले जैसी दुनिया और उसका तंत्र सारी दुनिया के देशों में विकसित हुआ वह हम सबके जीवन के सारे आयामों में कोरोना काल में निरापद सिद्ध नहीं हुआ और हम सबकी जिंदगी की सामान्यतः प्रचलित व्यवस्थाएं ठहर या सहम सी गयी है।भय के अंतहीन चक्र में अनिश्चित और आशंकाग्रस्त जीवन और व्यवस्था हम सबकी चिंतन प्रक्रिया से ही अंतत: खत्म होगी ।मनुष्यों की सतत सामुहिक सोच और विचार विनिमय की सम्मिलित ताकत ही एकमात्र उपलब्ध उपाय हैं।
जिसका हम प्रयोग न कर मनुष्य की सोच की ताकत को आशंका और भयग्रस्त मनःस्थिति में निरन्तर कम करते जा रहे हैं।हम सब सोचें समझें तथा लोकतंत्र में सामूहिक उत्तरदायित्व ,सतत सक्रियता के साथ नयी निरापद व्यवस्था को विकसित करें यही कोरोना काल ने हम सबको सबक दिया है।जिसे हम सबके अलावा कोई और हल नहीं कर सकता। हम सबने यह कभी भी भूलना नहीं चाहिये।हम सब सोचे – समझे, चितंन करें और नये निरापद सामान्य रूप से काम काज को निरन्तर गतिशीलता के साथ चलाते रहने वाला उपाय तलाशे तो भयमुक्त लोक व्यवस्था का तंत्र हमारे लोकजीवन में खड़ा हो पायेगा। यही एक मात्र उपलब्ध उपाय है।जिसे हिलमिल हम सबको अपने मन और जीवन में लागू करना ही एकमात्र उपलब्ध निरापद रास्ता है जिस पर हम सब बिना रूके और डरे चलते रह सकते हैं।
अनिल त्रिवेदी