कलेक्टरों ने खूब बेच दी सरकारी जमीन

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जब से सरकार ने सरकारी जमीनें बेचने का फैसला क्या लिया, कलेक्टर उतावले हो गए। हर सरकारी योजना में नंबर वन आने की दौड़ में शामिल कलेक्टरों ने अपने जिलों की कई महंगी जमीनों को भी सस्ते में बिकवा दिया। अब इस पूरे मामले की गुंज वल्लभ भवन में हो रही है। यह कोई सरकारी योजना नहीं है, जिसका लाभ आम जनता को पहुंचाना है। सरकार का खजाना भरने के चक्कर में कलेक्टरों ने जिस बेरहमी से कीमती और मौके की जमीन बेच दी। उसको लेकर अब जनप्रतिनिधि भी सजग हो गए हैं। इंदौर में पिछले कुछ महीनों में जो जमीन बेची गई है, वह किसने खरीदी और कितने में बिकी।

इस बात को लेकर जल्द ही शिवराज सिंह चौहान के पास मय प्रमाण शिकायत पहुंचने वाली है। सरकारी जमीनों के सरकारी रेट से कितने ज्यादा कीमत पर बड़े-बड़े प्लाट बेच दिए। इसको लेकर पूरे प्रदेश में जल्दी ही हंगामा होने वाला है। कहा जा रहा है कि नगर निगम और विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाओं को एक भी जमीन किसी कलेक्टर ने सरकारी रेट पर देना आखिर क्यों नहीं मुनासिब समझा, यह भी बड़ा सवाल है। अब इस मामले में मध्यप्रदेश संपत्ति प्रबंधन विभाग के अफसरों की भूमिका की भी जांच हो सकती है।

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आखिर कब मिलेगी मनोज श्रीवास्तव को सरकारी कुर्सी

रिटायरमेंट से पहले ही मनोज श्रीवास्तव (Manoj Shrivastava) ने किताब लिखने का सिलसिला जारी रखा था। अपने रिटायरमेंट के पहले बाद के इंतजाम के लिए आर एस एस के पक्ष में भी खूब आर्टिकल लिखें। राष्ट्रवादी विचारधारा से जकड़े हुए मनोज श्रीवास्तव ने संघ को खुश रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन शिवराज सिंह चौहान के प्रिय पात्र एक जमाने में रहने वाले श्रीवास्तव को संघ की चापलूसी भी कोई काम नहीं आ पाई है। इसको लेकर अफसर चटखारे लेकर उनके किस्से सुनाते रहते हैं, कि श्रीवास्तव को कोई भी सरकारी कुर्सी मिल जाए। नहीं तो अब कोई अफसर संघ और राष्ट्रवाद के पक्ष में कोई आर्टिकल लिखने की ताकत नहीं जुटा पाएगा।

दूसरे राघवेंद्र सिंह का भी कमाल देखिए

एक राघवेंद्र सिंह वह है जो सरकार के अच्छे कामों की तारीफ करवाने में सफल हुए हैं, और सरकार को बचाने में भी कई बार खास भूमिका निभा चुके हैं, और दूसरे राघवेंद्र सिंह झाबुआ कलेक्टर हैं। जो आदिवासियों के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। हलमा के कार्यक्रम के जरिए राघवेंद्र सिंह ने सरकार की नजर में अपने नंबर बढ़ा लिए हैं, क्योंकि हलमा का कार्यक्रम उम्मीद से ज्यादा अच्छा हुआ। सरकार के साथ-साथ संघ भी उनसे बहुत खुश हैं। ऐसे अफसर इन दिनों संघ के चाहते बने हुए हैं। जो आदिवासियों के लिए लगातार काम कर रहे हैं। आखिर सरकार भी तो यही चाहती है।

उज्जैन में महाकाल ही प्रोटोकॉल

उज्जैन के अफसरों की कोई और पहचान अब नहीं बची हुई है। जो अफसर महाकाल का ध्यान रखते हैं। बस वही अफसर तारीफ के हकदार माने जाते हैं। वैसे एक जमाने में वहां रहे कलेक्टर नीरज मंडलोई कहा करते थे कि यहां तो सिर्फ महाकाल ही प्रोटोकाल है। जिस तरह से इंदौर के कलेक्टर अधिकांश समय अपना एयरपोर्ट विजिट और सरकारी कार्यक्रमों में गुजार देते हैं। कुछ इस तरह से ही अब उज्जैन के अफसर भी सिर्फ महाकाल के कामकाज के अलावा कुछ नहीं कर पाते।

वहां बढ़ने वाली भीड़ ने प्रशासन के अफसरों को मजबूर कर दिया है कि रोज एक बार महाकाल जाना जरूरी होता है। पहली बार प्रदेश के इतिहास में ऐसा हो रहा है कि उज्जैन कलेक्टर को अब रोज महाकाल जाना पड़ता है। वहां पर बढ़ रही भीड़ हमेशा चिंता का विषय बनी रहती है, कि कहीं कोई गड़बड़ ना हो जाए। जरा सी गड़बड़ होने पर धर्म का मामला है । सरकार की कभी भी तिरछी नजर किसी भी अफसर पर पड़ गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे।

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