साहित्य एवं राजनीति के समन्वय पुरुष दादा बालकवि बैरागी

Rishabh
Published on:

डाॅ. माधुरी चैरसिया-

साहित्य को अपना सिर का साफा एवं राजनीति को अपने पाँव की जूती मानने वाले बालकवि बैरागी ने साहित्य एवं राजनीति के बीच जीवनभर अद्भुत समन्वय किया। राजनीति की रपटीली राहों पर लगातार चलते हुए वे न कभी फिसले और न ही डिगे। सन् 1945 से लेकर मृत्युपर्यंत वे कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ता रहे। सन् 1967 में जनसंघ के उड़ते पंछी सुंदरलाल पटवा को परास्त कर उन्होंने द्वारिकाप्रसाद मंत्रीमण्डल में स्थान बनाया। उसके बाद मध्यप्रदेश में अनेक बार मंत्री, मंदसौर संसदीय क्षेत्र से सांसद तथा राज्यसभा के सदस्य भी निर्वाचित हुए। फिर भी उनका सम्पर्क सामान्य लोगों से लगातार बना रहा। वे कभी भी अपने आपको राजनेता नहीं मानते थे।

इसी तरह साहित्य की जाजम पर भी उन्होंने मालवी एवं हिन्दी में लेखनी चलाई। वैसे तो साहित्य के क्षेत्र में मालवा का बड़ा योगदान रहा है। डॉक्टर प्रभाकर माचवे, नरेश मेहता, पंडित सूर्यनारायण व्यास, गणेश दत्त शर्मा, इंद्र बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ एवं बालकवि बैरागी ने मालवा की ख्याति को दूर-दूर तक पहुँचाया। बालकवि बैरागी मालवा माटी के सपूत होकर अपनी मधुर कंठ से मालवी कविताओं को सात समंदर पार विदेशों में भी वर्षों से गाते रहे हैं। इन्होंने मालवा के सम्मान में वृद्धि करके अपना संपूर्ण जीवन साहित्य को समर्पित किया।

बालकवि बैरागी रामपुरा में सन् 1931 में जन्मे। प्रारंभिक शिक्षा इनकी मनासा एवं रामपुरा में हुई। सन् 1945 से प्रजा मंडल के बैनर तले मधुर गीतों की शुरुआत करने वाले नंदराम दास बालकवि बैरागी ने 1954 में पहला कवि सम्मेलन तराना में पढ़ा। यहाँ एक ही मालवी गीत ‘‘म्हारो केलु वालों टापरो’’ ने इन्हें अपार लोकप्रियता दिला दी। इनके प्रसिद्ध गीत ‘‘पनिहारी’’ ने तो देश विदेश में धूम मचा दी। वे मालवा के सिद्धहस्त कवि होकर भावसारबा नरेंद्र सिंह तोमर, आनंद राव दुबे एवं पंडित सूर्यनारायण व्यास के साथ पूरे देश में कविताएँ पढ़ते रहे। क्षिप्रा के तट पर पहली बार मालवी कवि सम्मेलन आयोजन करने का श्रेय भी दादा को जाता है।

सन् 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय इनकी कालजयी कविता काफी चर्चित रही-
‘‘जब नगाड़ा बज ही चुका है सीमा पर शैतान का
नक्शे पर से नाम मिटा दो पापी पाकिस्तान का’’

इस कविता ने देशभक्ति का वातावरण निर्मित कर दिया, जिसे सीमा पर तैनात सैनिकों ने भी सराहा। इनका कविता संग्रह ‘‘आलोक का अट्टहास’’ आकाश की आराधना का संदेश देता है। मूलतः बैरागी जी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की भावना से जुड़े होकर आलोक के उपासक हैं इसीलिए इनकी हर कविता में प्रकाश पुंज दिखाई देता है। इनके प्रतीक भी सूर्य, दीपक आदि हैं जिनके माध्यम से यह चेतना का संचार करते हैं। बैरागी जी की कविताओं का मूल स्वर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी है। उदाहरण स्वरूप ‘आव्हान’ कविता की ये पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-
‘‘चंद्रगुप्त की तलवार मिली ये थाती में,
सांगा की साँसे चलती हैं वीर तुम्हारी छाती में
चेतक वाले महाराणा ने मरना तुमको सिखलाया
वीर शिवा ने लोहा लेकर जीवन का पथ दिखलाया’’

बैरागीजी ने गद्य की विभिन्न विधाओं में भी आप सफलता पूर्वक कलम चलाई। ‘‘कच्छ का पद यात्री’’ उनका संस्मरण प्रधान उपन्यास है जिसे उन्होंने एक ही बैठक में लिखा । इस उपन्यास में कुल 62 पेज हैं। यात्रा संस्मरण पर शोध कार्य सम्पन्न हुआ। ‘‘बर्लिन से बब्बू’’ इनका एक महत्वपूर्ण यात्रा वृतांत है जो इनके स्वदेश प्रेम को दर्शाता है।

बैरागी जी एक सफल कहानीकार के रूप में भी चर्चित हुए। वर्षों तक धर्मयुग एवं नई दुनिया में कहानियां लिखते रहे। इनका कहानी संग्रह ‘‘बिजुका बाबू’’ में भाषा का अद्भुत चमत्कार देखने को मिलता है। ‘‘बिजुका बाबू’’ की सभी कहानियाँ आसपास के परिवेश को व्यक्त करती हैं। ‘मनुहार भाभी’’ कहानी संग्रह की कहानियाँ यथार्थपरक होकर स्त्री मनोविज्ञान पर केंद्रित है। इसका कथा शिल्प अद्भुत है जिसके अवसरों पर मनोविज्ञान भी देखने को मिलता है।

31 पुस्तकों के रचयिता दादा बैरागी जी की कुछ पुस्तकें बच्चों के लिए भी लिखीं – ‘‘आओ बच्चों गाओ बच्चों’’ बाल कविता संग्रह है। ‘चटक म्हारा चम्पा की’ 6 कविताएँ विक्रम विष्वविद्यालय की बी.ए. पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही हैं।

दादा बैरागी जी मृत्युपर्यत सक्रियता से लेखन में जुड़े रहे। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख-कविताएँ आए दिन छपती रहती थीं। दादा न केवल अच्छे कवि या लेखक थे अपितु वे पाठक व समीक्षक भी थे। उनकी समीक्षाएं एवं पुस्तक भूमिका निरपेक्ष भाव से सटीक एवं तथ्यपरक होती थीं। वे पत्र लेखक के रूप में भी चर्चित थे। उनके लिखे हुए हजारों पत्र पाठकों की अमूल्य धरोहर हैं।

बालकवि बैरागी ने फिल्म जगत भी 20 से अधिक गीत लिखे। इनका प्रसिद्ध गीत ‘‘तू चंदा मैं चाँदनी’’ फिल्म रेशमा और शेरा में लता मंगेशकर ने गाया। जो लता मंगेशकर के टाॅप 10 गीतों में से माना जाता है। तलत महमूद ने बैरागीजी की ग़ज़ल ‘‘ज़रा कह दो इन फ़िज़ाओं से हमें इतना सताए न’’ गाई जो पूरे देश में प्रसिद्ध हुई। बैरागीजी ने समय-समय पर अनेक नारे भी लिखे। आज यद्यपि दादा बैरागी हमारे बीच नहीं हैं फिर भी उनकी मधुर यादें साहित्य के माध्यम से पाठकों को रोमांचित करती हंैं।