राज-काज: शिवराज के सामने मंत्री मंडलगठन करना एक चुनौती

Shivani Rathore
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यह गोविंद – तुलसी के साथ नाइंसाफी तो नहीं….
माना जा रहा था कि उप चुनाव में जीत के बाद मुख्यमंत्री मंत्रिमंडल का विस्तार चाहे जब करें लेकिन 6 माह की मजबूरी के कारण इस्तीफा देने वाले गोविंद सिंह राजपूत एवं तुलसी सिलावट को इंतजार नहीं करना पड़ेगा। दोनों ज्योतिरादित्य सिंधिया के सबसे खास हैं। उप चुनाव में इनकी जीत रिकार्ड मतों से हुई है। सिंधिया के सबसे नजदीक होने के कारण ही इन्हें सबसे पहले मंत्रिमंडल में जगह मिली थी। उप चुनाव के नतीजे आने के बाद खबर थी कि दोनों को दीवाली पर जीत का रिटर्न गिफ्ट मिलेगा और मंत्री पद की शपथ दिला दी जाएगी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की राज्यपाल से मुलाकात से यह संभावना बनी भी थी। अचानक शिवराज ने कह दिया कि मंत्रिमंडल विस्तार की कोई जल्दी नहीं है। वह अभी नहीं हो रहा। इससे सवाल पैदा हो रहा है कि कहीं राजनीतिक जोड़-तोड़ एवं गुणा-भाग के चक्कर में गोविंद एवं तुलसी का मंत्री पद झमेले में तो नहीं पड़ रहा। वैसे भी गोविंद के विभागों पर शिवराज एवं उनके खास मंत्रियों की नजर है। यदि ऐसा हुआ तो यह गोविंद – तुलसी के साथ नाइंसाफी तो नहीं होगी।

मंत्री बनने बेचैनी, शिवराज के लिए चुनौती….
उप चुनाव नतीजों का इंतजार कर रहे भाजपा के वे वरिष्ठ विधायक मंत्री बनने को लेकर बेचैन हैं, जिन्हें कांग्रेस के बागियों के कारण मन मसोस कर रह जाना पड़ा था। ये जानते थे कि बागियों में कुछ मंत्री हारेंगे और उनकी संभावना बनेगी। नतीजे आने के साथ ऐसा हो गया। इसी कारण दो दावेदारों अजय विश्नोई एवं गिरीश गौतम ने अपनी पीड़ा का इजहार करने में देर नहीं की। कांग्रेस सरकार गिरने के बाद जब शिवराज सिंह के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हुआ था, तब भी जगह न मिलने से नाराज इन दावेदारों ने खुलकर अपनी नाराजगी का इजहार किया था। मंत्री पद से इस्तीफा देने वाले गोविंद राजपूत और तुलसी सिलावट के दो पद छोड़ दें तब भी मंत्रिमंडल में 4 पर रिक्त हो गए हैं। मंत्री पद के दावेदारों की संख्या इससे काफी ज्यादा है। इसीलिए दावेदारों में मंत्री पद को लेकर बेचैनी है। शिवराज के लिए मंत्रिमंडल के रिक्त पद भरना सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। लिहाजा, फिलहाल वे मंत्रिमंडल विस्तार को टालने के मूड में हैं। दावेदारों में विश्नोई, गौतम के अलावा राजेंद्र शुक्ला, केदारनाथ शुक्ला, गौरीशंकर बिसेन, संजय पाठक सहित एक दर्जन नाम शामिल हैं। दूसरी तरफ बड़बोले बयानों के लिए चर्चित इमरती देवी ने यह कह दावेदारों के मंसूबों पर पानी फेरने की कोशिश की है कि वे मंत्री पद से इस्तीफा देने वाली नहीं हैं।

भूपेंद्र, गोपाल सफल, गच्चा खा गए नरोत्तम….
उप चुनाव में शिवराज मंत्रिमंडल के तीन दिग्गजों गोपाल भार्गव, भूपेंद्र सिंह एवं नरोत्तम मिश्रा पर खास नजर थी। तीनों के कंधों पर चुनिंदा सीटों में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के बागियों को जिताने की जवाबदारी थी। गोपाल के पास मलेहरा का प्रभार था और भूपेंद्र के पास सुरखी का दायित्व। नरोत्तम के पास उनकी पुरानी सीट डबरा की जिम्मेदारी थी। उप चुनाव के नतीजे आए तो कमाल हो गया। सुरखी एवं मलेहरा को कमजोर माना जा रहा था लेकिन गोपाल भार्गव एवं भूपेंद्र सिंह दोनों सीटें अच्छे अंतर से जिताने में कामयाब रहे जबकि नरोत्तम गच्चा खा गए। डबरा को सबसे सुरक्षित माना जा रहा था। इमरती देवी के रिकार्ड मतों से जीत की भविष्यवाणी की जा रही थी। कमलनाथ ने यहां इमरती को आइटम कह दिया था, जिसे भाजपा ने सभी 28 सीटों में मुद्दा बना लिया था। मजेदार बात यह है कि भाजपा ने कांग्रेस के बयान का लाभ दूसरी सीटों में तो उठाया लेकिन डबरा में ही ढेर हो गई। इसकी एक वजह इमरती का बड़बोलापन है। कमलनाथ पर जवाबी हमला कर उन्होंने खुद के लिए पैदा सहानुभूति खो दी। इसके साथ नरोत्तम के प्रबंधन पर भी सवाल उठ रहे हैं।

सुरखी में टेंशन मुक्त हो गए भाजपा-गोविंद….
बुंदेलखंड अंचल के ह्रदय स्थल सागर जिले की सुरखी विधानसभा सीट को लेकर भाजपा और गोविंद सिंह राजपूत का टेंशन एक साथ खत्म हो गया। भाजपा का टेंशन यह था कि उसे हर बार गोविंद के खिलाफ नया प्रत्याशी ढूंढ़ना पड़ता था। वह हारता था और जीता तो बहुत कम अंतर से जबकि गोविंद की जीत का फासला अच्छा खासा होता था। मजेदार बात यह भी थी कि विधानसभा चुनाव में गोविंद कांग्रेस के टिकट पर सुरखी जीत जाते थे, पर लोकसभा के चुनाव में हमेशा भाजपा जीतती थी। साफ था कि गोविंद अपने व्यक्तिगत संबंधों, संपर्कों व मेहनत की बदौलत जीतते थे। लोग गोविंद से कहते भी थे कि हम आपके कारण विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट देते हैं जबकि हमारी पसंद भाजपा है। अब भाजपा और गोविंद दोनों का टेंशन खत्म हो गया। दोनों को किसी चुनाव में हार का सामना नहीं करना पड़ेगा। इस उप चुनाव में ही गोविंद पिछले चुनाव की तुलना में दो गुना वोटों के अंतर से जीते। अलबत्ता, गोविंद के भाजपा में जाने से कांग्रेस का टेंशन जरूर बढ़ गया। अब कांग्रेस को भाजपा की तर्ज पर गोविंद के खिलाफ जीतने वाले प्रत्याशी की तलाश बनी रहेगी। पारुल साहू के तौर पर पहली खोज तो असफल हो गई ।

शेजवार जी ‘न घर के रहे, न घाट के’….
लोगों के बीच कुछ कहावतें प्रचलित हैं। जैसे, ‘न घर के रहे न घाट के’, ‘न खुदा ही मिला न बिसाले सनम’ और ‘माया मिली न राम’। उप चुनाव नतीजे आने के बाद ये सभी कहावतें किसी एक वरिष्ठ नेता पर फिट बैठती हैं तो वे हैं भाजपा के गौरीशंकर शेजवार। कांग्रेस से बगावत कर भाजपा में आए प्रभुराम चौधरी को जब से पार्टी ने सांची से प्रत्याशी घोषित किया, तब से ही शेजवार एवं विधानसभा का पिछला चुनाव लड़े उनके बेटे मुदित शेजवार की निष्ठा संदेह के दायरे में थी। शिकायत मिलने पर दोनों को बुलाकर पार्टी नेतृत्व ने बात भी की। पिता-पुत्र ने उप चुनाव में भितरघात किया या नहीं, यह वे ही जानते होंगे। लेकिन मतगणना समाप्त होते ही उन्हें कारण बताओ नोटिस थमा दिया गया। नतीजा आया तो प्रभुराम चौधरी रिकार्ड लगभग 63 हजार वोटों के अंतर से चुनाव जीत गए। अर्थात शेजवार द्वय पर कार्रवाई की तलवार भी लटक गई और जिसे वे नहीं चाहते थे वे जीत भी गए। अब शेजवार की स्थिति ‘न घर के रहे न घाट के’ जैसी हो गई। हालांकि भाजपा नेत्री उमा भारती खुलकर शेजवार के साथ खड़ी हैं। इसलिए नहीं लगता कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होगी, पर निष्ठा तो संदेह के दायरे में आ ही गई। सवाल यह भी है कि यदि शेजवार ने प्रभुराम का विरोध किया होता तब क्या वे इतने बड़े अंतर से चुनाव जीत सकते थे?